11 जून 2025

लंगड़ा आम की विदेश-यात्रा

(एक हास्य-प्रधान लेख)

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-डॉ. डंडा लखनवी 

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लंगड़ा आम को आम समझना, आम की तौहीन है। उसका नाम भले ही ‘लंगड़ा’ हो, पर ठाठ-बाट में वह किसी महाराजा से कम नहीं। और जब बात उसकी विदेश यात्रा की हो, तो समझ लीजिए – ये किसी राजदूत के दौरे से कम मामला नहीं।


✈️ यात्रा की तैयारी

बनारस के एक बग़ीचे में पका-पका लंगड़ा आम अपनी डाल पर इतरा रहा था। तभी बगल के दशहरी आम ने तंज कसा —

“अबे लंगड़े, तू तो बस भारत के चाट-चौबों के लिए बना है। विदेश जाना तेरा काम नहीं।”


लंगड़ा मुस्कराया, “भैया, तुम अब भी प्लास्टिक की ट्रे में बिकते हो। मैं तो सीधे डिप्लोमैटिक कार्गो में पैक होता हूँ।”


बासमती चावल और बनारसी साड़ी को साथ लेकर, लंगड़ा आम को एक विशेष एयर कंडीशन्ड क्रेट में लपेटा गया — जैसे कोई नवविवाहित कन्या को विदेश विदा किया जाता है।


🌍 एयरपोर्ट की उठा-पटक

एयरपोर्ट पर TSA (टाइट सेक्योरिटी आम) चेक में लंगड़े की खुशबू ने हंगामा मचा दिया।


अमेरिकी कस्टम अधिकारी: “इस संदिग्ध पैकेट से मीठी-महक क्यों आ रही है?”


भारतीय अधिकारी मुस्कराया: “सर, यह लंगड़ा आम है, ये वैरस नहीं, वैरायटी है।”


🗽 न्यूयॉर्क की गलियों में लंगड़ा

न्यूयॉर्क पहुँचते ही लंगड़े को एक सुपरमार्केट की शान बना दिया गया। अल्फ़ांसो से लेकर कीसर तक सब जल-भुन गए।


एक फॉरेनर महिला ने पूछा –

“Is this really called Lung-da Mango?”

भारतीय दुकानदार बोला –

“Yes ma'am. It's not lame, it's legendary!”


🍴 अमेरिकी स्वाद, भारतीय ठाठ

पहली बार जब किसी अमेरिकी ने उसे खाया, तो बोला –

“Oh my god! This mango just punched me in the soul!”


लंगड़ा आम मन ही मन सोचने लगा –

“ये पंच तो मैंने नहीं मारा... मेरी मिठास ने किया है!”


🥭 टीवी इंटरव्यू और इंस्टाग्राम स्टार

कुछ ही दिनों में लंगड़ा आम को CNN ने बुला लिया –

“Tell us your journey from Varanasi to Vogue!”


लंगड़ा बोला –

“मैं तो यहीं का था, मगर अब देश की नाक बन गया हूँ। और जी, मुझे फिल्टर की ज़रूरत नहीं – मैं नेचुरली स्वीट हूँ।”


🇮🇳 देश वापसी का भावुक मोड़

जब विदेश मंत्रालय ने ट्वीट किया — “Proud of Langda Mango representing India globally!”

तब दशहरी आम ने मन ही मन माना –

"लंगड़ा ही सही, पर निकला इंटरनेशनल खिलाड़ी।"


🍃 उपसंहार

इस तरह, लंगड़ा आम न केवल देश की सीमाएं पार कर गया, बल्कि दिलों की सीमाएं भी पार कर गया। अब वह न केवल आम रहा, बल्कि VIP आम हो गया —

Very Indian Produce!


नोट: अगली बार जब आप कोई आम खरीदें, तो ध्यान रखें — कहीं वो विदेश यात्रा का सपना लिए बैठा लंगड़ा आम न हो! 😄

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10 जून 2025

ड्युटी पार्लर की गाइडलाइंस

✍️ डॉ. डंडा लखनवी

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नोट- जहाँ एक ओर देश की संसद में "कर्तव्य" को संविधान की प्रस्तावना में शामिल करने की बहस चल रही थी, वहीं मोहल्ले के नुक्कड़ पर श्रीमती बिल्लेश्वरी देवी ने "ड्युटी पार्लर" खोल कर जनता का कर्तव्य-बोध बढ़ा दिया। अब आप सोचेंगे कि ये ड्युटी पार्लर कोई सरकारी दफ्तर जैसा होगा—न जी न! ये एक अनोखा ब्यूटी पार्लर है, जहाँ "सौंदर्य" नहीं, "कर्तव्य-बोध" निखारा जाता है। "ड्युटी पार्लर” की गाइडलाइंस एक नज़र मैं। 

1️⃣ फेस वैल्यू फेशियल

💡 चेहरा चमकाने से पहले चरित्र स्कैन

"टी-ज़ोन ठीक है, पर टाइम मैनेजमेंट डल!"

2️⃣ विचारों में हाइलाइट्स

🧠 बाल नहीं, सोच के रंग बदलिए

"कृपया बताएं, आपके विचार कितने उजले हैं?"

3️⃣ वाद-विवादिंग वैक्सिंग

🗣️ ज़ुबान की वैक्सिंग से पहले मौन मुद्रा पैक "अति बहस = एकांत ध्यान कमरा!"

4️⃣ कर्तव्य-काजल पैक

📋 हर मेकअप के साथ 'कर्तव्य पत्रक' फ्री!

☑ वृद्धा को सड़क पार कराई?

☑ पौधा लगाया?

☑ झूठ नहीं बोला?

5️⃣ दर्पण रहित सौंदर्य केंद्र

🚫 कोई शीशा नहीं, केवल “अंतरात्मा का आईना” ✨ जो कर्म से सुंदर, वही सचमुच चमकदार!

👩‍🎓 यहां सेल्फी नहीं, स्वाभिमान बनता है!

👦 बंटी बोले: “अब झूठ नहीं बोलूंगा मम्मी!”

👵 चाची बोलीं: “सब्जीवाले को छुट्टा दिया आज!”

🎖 विशेष छूट किन्हें सुलभ:

जिन्होंने आज समाज के लिए कोई अच्छा काम किया हो —

उन्हें बिना मेकअप ही ग्लोइंग स्किन गारंटी!

🪪 ड्युटी पार्लर:

“जहां ड्युटी ही असली ब्यूटी है!”

📍पता: हर ज़मीर वाले मोहल्ले में खुला

📞 संपर्क करें: अपनी अंतरात्मा से!

📢 अगली सेवा जल्द आ रही है:

“जिम्मेदार जिम – जहां वजन नहीं, आदतें 

घटती हैं!”

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,10/06/25

गंगा-जमुनी तहज़ीब के बाजूबंद

—हास्य-प्रधान लेख

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-डॉ. डंडा लखनवी 

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गंगा-जमुनी तहज़ीब का नाम सुनते ही हमारी कल्पना में बनारस की गलियों, लखनऊ की नवाबी, और इमामबाड़े के सामने बैठी गुपचुप चाट वाली ठेली का चित्र खिंच जाता है। यह तहज़ीब वह रंगीन पटाखा है जिसमें एक ही वक्त में इबादत की आवाज़ भी गूंजती है और इधर गली के नुक्कड़ पर भांग की तरंग में डूबे पंडित जी 'रघुपति राघव' गुनगुनाते मिलते हैं।


इस तहज़ीब के बाजूबंद की बात करें तो यह कोई जेवर नहीं, बल्कि परस्पर मोहब्बत, अपनापन और अदबी ठसक से सना वो भावनात्मक धागा है, जिसे हर कोई बड़े गर्व से अपनी आस्तीन पर चिपकाए फिरता है — और कभी-कभी गर्मियों में पसीने से वो चिपक भी जाता है!


अब देखिए, हमारे मोहल्ले के सलीम चचा और मिश्रा जी, इस तहज़ीब के दो अलग-अलग किनारे हैं, लेकिन जब मोहल्ले में कोई मटन-कलेजी की दावत होती है, तो सलीम चचा मिश्रा जी से पूछते हैं —

“पंडित जी, खा लेंगे न थोड़ा... दवा समझ के।”

मिश्रा जी मुँह बनाते हुए जवाब देते हैं —

“अगर नींबू-नमक साथ हो तो धर्म भ्रष्ट नहीं होता!”

बस, यह है तहज़ीब — धर्म, पाचन और स्वाद का मिलाजुला बाजूबंद!


अब लखनऊ के नवाबों को लीजिए — एक बार नवाब साहब ने पंडित त्रिपाठी को चाय पर बुलाया। चाय में इत्र मिला था, और साथ में बर्फी भी — गुलाब जल से भिगोई हुई। पंडित जी चाय पीते ही बोले —

“नवाब साहब! ये चाय है या हवन-कुंड का तर्पण जल?”

नवाब मुस्कुरा कर बोले —

“जनाब, इसमें मुहब्बत है। थोड़ा अदब से पियो।”

पंडित जी बोले —

“अदब के साथ पीता हूँ, पर पहले नमक लेकर जीभ ज़िंदा करनी पड़ेगी!”


गंगा-जमुनी तहज़ीब का असली कमाल शादी-ब्याह में दिखता है। निकाह हो या फेरे — दोनों जगह बारात में DJ ज़रूर होता है, और DJ वाले अंकल को हमेशा “फुल वॉल्यूम में ‘मेरे रश्के कमर’ लगाओ” जैसी सर्वधर्म स्वीकार्य फरमाइश मिलती है। भले ही लड़का संस्कारी हो और लड़की शायरा — बारात में नाच कर तहज़ीब की तालीम पूरी होती है।


एक बार हमारे मुहल्ले में ईद और होली एक साथ आ गए। अब सलीम चचा ने मिश्रा जी से कहा —

“इस बार सेवइयों में भांग मिलाई है, तहज़ीब के नाम पर।”

मिश्रा जी बोले —

“तो मैं भी रंग में अबीर की जगह इत्र डाल दूं, गंगा-जमुनी खुशबू फैलेगी!”


यह तहज़ीब रेशमी नहीं, बल्कि हल्के खिचखिच वाले तौलिये की तरह होती है — कभी गले लग जाती है, कभी उलझ जाती है, लेकिन काम हर हाल में आती है।


तो भई, इस ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब के बाजूबंद’ को कस के बांधे रखिए। इसमें भले ही कभी हास्य की गांठें लगें, पर मोहब्बत की सिलाई मजबूत रहती है।


क्योंकि अंत में, चाहे गंगा से स्नान करें या जमुना में डुबकी — ताज़गी तो 'संयुक्त संस्कृति' से ही आती 

है! 😄

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10/06/25




अंधविश्वास की चटनी

✍️ डॉ. डंडा लखनवी

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जब घर में कोई चीज़ गिर जाए, तो अम्मा कहती हैं – "अरे बर्तन गिरा है, कुछ बुरा होने वाला है!" और अगर बर्तन न गिरे तो "कुछ बुरा न होने की शांति" से डर लगने लगता है।


हमारे समाज में अंधविश्वास एक ऐसी चटनी है, जो हर व्यंजन के साथ परोस दी जाती है– शादी से लेकर शवयात्रा तक। इसमें स्वाद भले न हो, पर परंपराओं का तीखा झोल ज़रूर होता है।


गली के मोड़ पर बैठा पंडित ‘चूहा काट गया’, कौआ सिर पर बैठ गया, छिपकली पीठ पर कूदने से लेकर ‘नींबू मिर्च की माला’ तक हर बात का समाधान बताता है– और वो भी डिस्काउंट में। "गुरुवार को न काटो नाखून", "शनिवार को सिर न धोओ", "कुत्ता काटने पर कुकरैल नाला में डुबकी लगाओ", "काली बिल्ली रास्ता काटे तो उल्टा घूम जाओ", "अगर बिल्ली बार-बार रास्ता काटे, तो बिल्ली को समझाओ कि– "मैडम, अपना टाइम टेबल थोड़ा अलग बना लें।"


हमारे पड़ोसी शर्मा जी ने बताया कि उन्होंने अपने बेटे की नौकरी लगवाने के लिए ‘साढ़े तीन पंडितों’ से मुहूर्त निकलवाया था। जब मैंने पूछा आधा पंडित कौन था? तो बोले– "वो तो मोबाइल ऐप है!"


सच्ची बात है– आजकल अंधविश्वास भी डिजिटल हो गया है। यह ‘ऑनलाइन वास्तु दोष’, ‘ई-नज़र टोना’, और ‘रिल्स में टोटके’ का ज़माना है।


बड़ी बुआ ने घर के कोने-कोने में "लाल रिबन से बंधी मिर्च-नींबू की माला" टांग दी है, ताकि कोई नज़र न लगे। जबकि माला की हालत देख कर हमीं को नज़र लग गई- घर में मिर्च तो अब सब्ज़ी में भी नहीं बची।


और तो और, कुछ लोग तो अंधविश्वास को ऐसा व्यापार बना चुके हैं, जैसे टिन में बंद चटनी- "सर्टिफाइड डर"। अंधविश्वासी चटनी के व्यापारी " भूत भगाओ ताबीज़", और "ऑर्गेनिक ग्रह शांति सामग्री” भारी छूट पर बेचते हैं। टीवी पर बाबा लोग ऐसे ऐंकर बन गए हैं कि अबध ‘ब्रेकिन न्यूज़’ से ज़्यादा ‘टोटकों’ की टीआरपी है।


एक मित्र ने बताया कि उनके घर में पंखा उल्टा घूम रहा था, तो पंडित बुला लिया गया। पंडित बोले– “ब्रह्मांड में उल्टा असर हो रहा है!” मैंने चुपचाप पंखे का स्विच बदला, और ब्रह्मांड सीधा घूमने लगा।


क्या करें! हम उस देश के नागरिक हैं जहाँ विज्ञान की किताबें भी आंखें फाड़फाड़ कर देखती हैं कि बाहर निकलने का सही 'मुहूर्त’ आया है या नहीं।


अंधविश्वास की चटनी के मसालों में जायका है– डर का, धोखे का, और ढोंग का। परन्तु इस चटनी को खाते-खाते हम असली ज्ञान की रोटी के स्वाद को भूलते जा रहे हैं। अब समय आ गया है कि इस चटनी को सिर्फ चुटकुलों की प्लेट में सजाया जाए, ज़िंदगी के मेन-कोर्स में नहीं।

"सोचिए, समझिए, पर विश्वास की थाली में अंध न

मक न मिलाइए!"

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स्वर्ग की जोड़ियां और धरती की जोड़ियां

(हास्य-प्रधान व्याख्यान)

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#डॉ_डंडा_लखनवी

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स्वर्ग में जोड़ियां बनती हैं, ऐसा बहुत पहले कहा गया था। लेकिन तब इंटरनेट नहीं था, कोर्ट मैरिज नहीं होती थी, और शादी के कार्ड पर “रिश्ता स्वर्ग से बना है” लिखवाने का रिवाज भी नया-नया था। अब तो लगता है कि स्वर्ग में बनी जोड़ियों ने धरती पर आकर ऐसा अभिनय किया है कि देवता भी माथा पीट रहे होंगे— “हे ब्रह्मा, ये हमने क्या रचा!”


*स्वर्ग की जोड़ियां*: 

दिव्य मेल-जोल

स्वर्ग की जोड़ियों में संवाद नहीं, टेलीपैथी होती है। वहाँ पति पत्नी को देखते ही समझ जाते हैं कि "स्वर्णपात्र में अमृत चाहिए या सोमरस।" वहाँ तर्क नहीं, तुरन्त सहमति मिलती है। “क्या तुम नारायण का ध्यान लगाना चाहोगी?” पूछने पर पत्नी मुस्कुरा कर कहती है, “हां, और तुम वंशी बजाओ, मैं नृत्य करूंगी!”


कोई गृहक्लेश नहीं, कोई रिमोट कंट्रोल की खींचतान नहीं। वहाँ के झगड़े भी ऐसे- “तुमने मेरी माला उठा ली!”

“क्षमा करें, वह माला स्वयं मेरी ओर उड़ आई!”


🌪 *धरती की जोड़ियां*: 

संवाद का युद्धक्षेत्र

धरती पर आते-आते वह दिव्यता विलोपित हो जाती है। यहाँ जोड़ियां पहले प्रेम में, फिर भ्रम में, और अंततः ईएमआई में बंधती हैं। विवाह के बाद पहली बातचीत अक्सर यूँ होती है:


पति: "आज क्या बना है?"

पत्नी: "जो मां ने सिखाया था!"

पति: "मगर मां तो कहती हैं कि तुमने कुछ सीखा ही नहीं!"

(और इस पर मां-बेटे की गुप्त यूट्यूब चर्चा प्रारंभ हो जाती है!)


यहाँ जोड़ियां “स्वर्ग से बनी” नहीं लगतीं, बल्कि ऐसा लगता है मानो रेलवे रिज़र्वेशन सिस्टम ने गलती से दो अजनबियों को एक ही कूपे में डाल दिया हो — और अब ज़िंदगी भर साथ जाना है, बिना एसी के।


🌈 *स्वर्गीय प्रेम बनाम घरेलू प्रेम*

स्वर्ग में रति और कामदेव जैसे युगल मिल-जुलकर प्रेम की मिसाल बनते हैं। धरती पर प्रेम ऐसा होता है —


“मैं तुमसे प्यार करता हूँ”

“ठीक है, मगर मम्मी से पूछना पड़ेगा।”

“शादी के बाद भी?”

“हर बात में!”


धरती की जोड़ियां बजट, बर्तन और बच्चों में उलझी होती हैं। प्यार का इज़हार “तुम्हारा मोबाइल चार्ज कर दिया है” या “आज गद्दा धूप में डाल दिया था” जैसे संवादों में छिपा होता है।


🛐 *विवाह-पश्चात स्वर्ग का भ्रम*

कुछ लोग सोचते हैं कि शादी के बाद स्वर्ग मिलेगा — लेकिन उन्हें पता चलता है कि “स्वर्ग का द्वार” कहे जाने वाले सजावट वाले मंडप से जैसे ही बाहर निकले, दरवाज़ा पीछे से बंद हो गया।  अब जीवन में हर उत्सव “मायके कब जाना है” और “ससुराल कब आना है”- के राउंड में बदल जाता है।


🎭 जोड़ियां वही... व्यवहार अलग। स्वर्ग की जोड़ियां सिद्धान्त में महान होती हैं — संतुलन, सामंजस्य, शांति।


धरती की जोड़ियां प्रयोगशाला होती हैं — गैस, टेंशन, और टाइम-टेबल। लेकिन फिर भी धरती की जोड़ियां ही सबसे मनोरंजक होती हैं। क्योंकि जहाँ हास्य, संघर्ष और चाय के कप में डूबा प्रेम होता है — वहीं असली जीवन होता है।


वरना स्वर्ग तो शांत है… और बहुत शांत चीज़ें, थोड़ी उबाऊ भी होती हैं।


अतः साथ जिओ, हँसते रहो — चाहे स्वर्ग की जोड़ी हो या धरती की जोड़ी — क्योंकि हँसी ही जीवन का असली ‘इत्रदान’ है!

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