-डॉ० डंडा लखनवी
पान लगाने की कला और उसे पेश करने के फ़न में ’बनारस’ अव्वल है। इसकी उत्तम प्रजाति उपजाने में ’महोबा’ का नाम है। हमारी सांस्कृतिक परंपरा में पान की प्रतिष्ठा सदियों पुरानी है। पूजन सामग्री में पान का विशेष महत्व है। प्राचीन काल के चिकित्सक अपनी कड़वी और बेस्वाद दवाओं को पान के बीच रखकर खाने की सलाह दिया करते थे। अतः कहा जा सकता है कि आधुनिक युग के कैपसूलों का उस युग में पान विकल्प था। इसे लगाना अपने आप में एक विशिष्ट कला है। अनेक प्रकार के सुगंधित, स्वादिष्ट, स्फूर्तिदायक मसालों में यह लपेटा जाता था। इसके ऊपर विशेष कौशल से चाँदी-सोने का वर्क लगाया जाता था। उसे 'बीड़ा ' कहा जाता था।
भारतीय समाज में बीड़ा उठाने की प्रथा सदियों पुरानी है। राज्य के चुनौती पूर्ण अभियानों को संपन्न करने के लिए जब कभी साहसी एवं पराक्रमी नायक की आवश्यकता पड़ती थी। तब उसकी सूचना व्यापक रूप से राज्य भर में प्रचारित कर दी जाती थी और पान का बीड़ा दरबार में निर्धारित स्थान पर रख दिया जाता था। चुनौतीपूर्ण अभियान को पूर्ण करने का संकल्प लेकर जो नागरिक आगे आता था वह दरबारियों के सम्मुख ’बीड़े’ को उठा कर खाता था। तत्पश्चात अभियान पूर्ण करने के लिए प्रयाण कर जाता था। अभियान को सफल करके लौटने पर उस व्यक्ति का राजकीय सम्मान किया जाता था। यह राज्य और व्यक्ति दोनों के लिए गौरव की बात होती थी। इस तरह बीड़ापायी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा में काफ़ी इजाफ़ा हो जाता था। भारत के ऐतिहासिक आख्यानों में बीड़ा उठाने का अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है। कालांतर में ’बीड़ा उठाना’ मुहावरे के रूप में प्रयुक्त होने लगा। इसका अर्थ है-’स्वेच्छा से किसी चुनौतीपूर्ण कार्य को पूरा करने की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति।’
प्रायः देखा गया है कि जिस उद्देश्यों को आधार मानकर कोई परंपरा जन्म लेती है धीरे-धीरे उसके उद्देश्यों में विचलन आ जाता है। समाज परंपरा के मूल उद्देश्यों से भटक जाता है। ऐसा इस प्रथा के साथ भी हुआ। लोग ’बीड़ा-उठाना’ भूल गए। बीड़ापायी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा को देखकर नकली बीड़ा-चबाने वालों की बाढ़ आ गई। क्योंकि नकली बीड़ापायी ओछेपन का दामन पकड़े थे। अत: वे अपनी फूहड़ता से सार्वजनिक स्थानों को गंदा करने लगे। बात बीड़ा चबाने तक सीमित रहती तो भी गनीमत थी। लकीर के फकीरों ने पान के पत्ते का विकल्प तेंदू का पत्ता खोज लिया। फिर तेंदू के पत्ते में तंबाकू को लपेट कर बीड़ा के साथ बीड़ी को भी मैदान में उतार दिया गया। अब बीड़ा, बीड़ी दोनों हैं परन्तु हर क्षेत्र में व्याप्त चुनौतियों से लोहा लेने वाले नदारद हैं।
बीड़ा बनाम बीड़ी.... बढ़िया आलेख ... आभार
जवाब देंहटाएंबीड़ा उठाना अर्थात जिम्मेदारी लेना, कहावत तो सुनी थी किन्तु कैसे इस कहावत की उत्त्पति हुई इसकी जानकारी नहीं थी , बीड़ा का बीडी तक का सफर परिवर्तन का सूचक है दुर्भाग्य से परिवर्तन पतन की ओर ले जा रहा है और यही परिवर्तन जीवन के हर क्षेत्र में देखा जा सकता है,
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति हेतु आपका आभार....................
बहुत उत्तम विचार ....बीड़ा उठाना ..जिम्मेवारी अपने उपर लेना ..लेकिन आज ऐसा कहाँ है ...
जवाब देंहटाएंसार्थक विचार ....जिम्मेदारी तो लेनी ही होगी....
जवाब देंहटाएंबड़ी सटीक बातें आपने एक साथ समझा दी हैं अब बाकी लोगों का कार्य है उसके उद्देश्य का पालन करना.आज सबसे पहले चरिते सुधार का बीड़ा उठाया जाना चाहिए.
जवाब देंहटाएंवैसे मुझे ब्यसन की आदत नहीं है ..इसीलिए ऐसी बातो पर ध्यान नहीं देता ..किन्तु उत्तरी भारत में ..इसकी गन्दगी चारो तरफ देखते बनती है..वह भी सार्वजनिक स्थल पर !सुन्दर चर्चा !
जवाब देंहटाएंबीड़ा से बीडी !डा ० साहेब आपने इस ह्रास को रेखांकित किया ! सुंदर से सुंदर चीज जब पतन कि ओर जाती है तो केवल बदसूरती ही रह जाती है !बहुत बहुत धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया जनाब!
जवाब देंहटाएंबीडा चबा तो लेते है पर उठाना ................... उसके लिए तो हिम्मत चाहिए
जवाब देंहटाएंकहाँ से कहाँ आ गए लोग.....
जवाब देंहटाएंइस भौतिकवादी युग में लोग बीड़ा-बीड़ी को भूलकर सुपाड़ी लेने और देने लगे हैं जो बहुत भयावह स्थिति है.
जवाब देंहटाएंज्ञानबर्धक लेख. आपने महत्वपूर्ण जानकारी दी.
जवाब देंहटाएंआपका ये लेख पसंद आया.
कहाँ गए वो लोग ?
जवाब देंहटाएंbahut khoob....
जवाब देंहटाएंबीडी बीड़े का किस्सा तो ठीक है ये डंडे का किस्सा भी बताइए न कभी ...
जवाब देंहटाएंआखिर इसके पीछे राज़ क्या है .....):
और हाँ इन खूबसूरत पंक्तियों के लिए शुक्रिया .....
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ऐ! जमूरे तू भी अब लड़ के एलेक्शन देख ले,
बन नहीं नेता सका तो माफिया हो जायगा।
बीडा और बीडी का सुन्दर तालमेल
जवाब देंहटाएंआदरणीय भाई साहब ,
जवाब देंहटाएंसप्रेम अभिवादन |
'बीड़ा और बीड़ी' के माध्यम से बहुत अर्थपूर्ण बातें बताई हैं आपने |
इतने अच्छे लघु लेख के लिए आभार |
बीड़ा उठा तो ले पैर शायद पूरा न कर सके बीडी उठाने कि ओ हिम्मत भी नहीं है :)...बहुत सुन्दर लेख
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