-डॉ० डंडा लखनवी
प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु का कथन है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या मनुष्य जन्मजात सामाजिक प्राणी है? सच बात तो यह है कि मनुष्य जन्मजात सामाजिक प्राणी नहीं है। वह शिक्षा से संस्कारिक होकर के सामाजिक बनता है। उसे सामाजिक बनाने के लिए हमारे यहाँ स्कूल, कालेज, प्राथमिक पाठशालाएं हैं। पूजागृह / देवालयों की देश भर में कमी नहीं है। टी०वी० चैनलों पर धार्मिक उपदेश देने वाले लोग आदमी को चरित्रवान बनाने की कवायद में चौबीस घंटे व्यस्त रहते हैं। मीडिया भी समाज को जगाने के लिए खूब बेचैन रहता है। कुछ एजेंसियाँ तो इस कार्य को सदियों से कर रही हैं। अरबों-खरबों रूपए का बजट मनुष्य के चरित्र को सवांरने में व्यय हो जाता है। कुत्ते की दुम फिर भी टेढ़ी की टेढ़ी बनी हुई है। भ्रष्टाचार का ग्राफ दिनों-दिन क्यों चढ़ता चला जा रहा है। यह विचारणीय विषय है।
आजकल हमलोग भोग को कसकर पकड़े हुए हैं। उसे और मजबूती से पकड़ने के लिए योग का सहारा ले रहे हैं। न्याय के बिना भोग और योग दोनों निरंकुश हो जाते हैं, पतित हो जाते हैं। जहाँ न्याय है, वहां चरित्र है। भ्रष्टाचार के संस्कार सबसे पहले घर से पड़ते हैं। हमने अपनी आराधना पद्धति से चरित्र सुधारने की बात को हासिए पर पहुँचा दिया है। ईश्वर सबके घर-घर जाकर चरित्र नहीं सुधरेगा। इस काम के लिए वह अनुबंधित नहीं है। हम ईश्वर से अपने चरित्र को सुधारने की याचना नहीं करते हैं, उसे हम भूला बैठे हैं। मनचाही मुरादें खूब माँगते रहते हैं। चढावा चढाते हैं और काम बनवाते हैं। वह हमारा प्री-पेड सेवक नहीं है। उसकी गरिमा का ध्यान रखिए। बचपन में उत्तीर्ण होने की कामना से विद्यार्थी चढ़ावा चढ़ाता है। भगवान भरोसे सफलता मिल जाती है तो हौसला बढ़ जाता है। और काम के लिए और चढ़ावा चढ़ाता है। इस तरह उसके श्रम-हीन जीवन की ओर कदम निकल पड़ते हैं। बड़े होकर आदत पड़ जाती है। प्रोफेशनल बन जाता है तो बड़े काम बनवाने के लिए वह बड़ी रिश्वत देता है। यह सब करते हुए उसे शर्म भी नहीं आती है। ऐसा विकृत हमारे सामाजिक जीवन का ढर्रा बन चुका है।
संसार भर में व्यवस्था परिवर्तन की आंधी चल रही है। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है वहां भी उसकी माँगें उठ रही हैं। ईश्वर का एक नाम प्रभु है। लोकतांत्रिक-व्यवस्था में प्रभुता सदैव किसी एक व्यक्ति की नहीं रहा करती है। प्रायः जिन लोगों को प्रभुता सहज में मिल जाती है वे उसे साध नहीं पाते हैं। ख़ुद को ही ख़ुदा मान बैठते हैं। चढ़ावे को सेवा-शुल्क समझने लगते हैं। यह सामाजिक अशांति का एक प्रमुख कारण है। जिसका निराकरण योजनाबद्ध ढंग से तत्काल किये जाने की आवश्यकता है।
वे चढ़ावे को सेवा-शुल्क समझने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि जिनके पास भ्रष्टाचार की राह में चढ़ाए गए चढ़ावे से अधिक उससे वसूलने का जरिया होता है उन्हें यह नहीं खलता है। भ्रष्टाचार की असल मार उन पर पड़ती है जिनके पास भ्रष्टाचार का मुंह बंद करने के लिए न धन होता और न जरिया।
जवाब देंहटाएंbahut badiyaa baat kahi aapne.badhaai.
please visit my blog.thanks
आज ऐसे ही विचारणीय लेखों की आवश्यकता है !
जवाब देंहटाएंआभार !
इंसान सामाजिक प्राणी है लेकिन वो अन्य सामाजिक जानवरों से निम्न श्रेणी का है...बन्दर, भैंसे, शेर, हिरन, हाथी कुत्ते, (डिस्कवरी चेनल देखें)आदि भी तो सामाजिक प्राणी हैं और एक व्यवस्था के तहत रहते हैं, ये चाहे एक दूसरे से लड़े भिड़ें लेकिन भ्रष्टाचार झूट फरेब आदि से दूर रहते हैं...जो करते हैं सबके सामने डंके की चोट पर करते हैं...हम उन जैसे बन जाएँ चाहे असभ्य कहलायें तब भी चलेगा.
जवाब देंहटाएंनीरज
बहुत ही बढ़िया , उपयोगी और विचारणीय लेख ....बड़े भाई !
जवाब देंहटाएंसंकल्पबद्ध होकर , योजनाबद्ध तरीके से प्रयास करने पर ही भ्रष्टाचार का खात्मा मुमकिन है |
आदरणीय डा. साहब,
जवाब देंहटाएंअरस्तु के गुरु प्लूटो ने कहा था मनुष्य जन्म से ही राजनीतिक प्राणी है.अतः पहले राजनीति का प्रवेश भी घर से ही हुआ उसके बाद सामजिक संस्कार आते हैं,आपने ठीक ही कहा है.धर्म धारण करने को कहते हैं परन्तु प्रचलंन में ढोंग चल रहा है-मस्जिद,मंदिर,चर्च आदि सभी जगह वही भ्रष्टाचार का मूलाधार है.इस पर प्रहार भी घर से ही शुरू करना होगा तभी वह दूर होगा;दिखावे के थोथे प्रदर्शनों से नहीं.
सारगर्भित लेख
जवाब देंहटाएंसहमत !!
जवाब देंहटाएंउपयोगी और विचारणीय लेख
जवाब देंहटाएंविचारणीय, सारगर्भित पोस्ट , आभार
जवाब देंहटाएं"प्रायः जिन लोगों को प्रभुता सहज में मिल जाती है वे उसे साध नहीं पाते हैं। खुद को ही खुदा मान बैठते हैं। चढ़ावे को सेवा-शुल्क समझने लगते हैं। यह सामाजिक अशांति का एक प्रमुख कारण है।" आपकी बात सोलह आने सच है,सर और यह कहीं न कहीं नैसर्गिक भी लगता है ,नहीं तो सेवक मालिक और मालिक सेवक कैसे हो जाता है.यह तो ठीक वैसे ही है जैसे "ऊँट और मालिक" (Camel And The Master) में हुआ था.
जवाब देंहटाएंइसे संयम और अच्छे संस्कारों के माध्यम से ही दूर किया जा सकता है.इतना सारगर्भित लेख पढ़वाने के लिए ह्रदय से आभार.
बहुत ही बढ़िया व विचारणीय लेख,
जवाब देंहटाएंसाभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
प्रभुता पाइ काहि मद नाही
जवाब देंहटाएंजी हॉं। अंग्रेजी में भी इसी प्रकार की एक कहावत है Power corrupts and absolute power corrupts absolutely.
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने। इस चिंतनपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएं---------
हॉट मॉडल केली ब्रुक...
लूट कर ले जाएगी मेरे पसीने का मज़ा।
बहुत ही बढ़िया, महत्वपूर्ण और विचारणीय लेख!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार-गर्भीत .. विचारणीय लेख .....
जवाब देंहटाएंआदरणीय डंडा साहब
जवाब देंहटाएंहम तो पहली बार आपके ब्लॉग पर आये....... बहुत प्रभावशाली ब्लॉग है आपका. यह लेख आँखे खोलता है.इस चिंतनपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
bhut hi vicharniya lekh :)
जवाब देंहटाएं______________________________________
राजनेता - एक परिभाषा अंतस से (^_^)
बात तो बिल्कुल सही है... लेकिन मजबूरी में..
जवाब देंहटाएंअच्छा सौद्देश्य परक विमर्श .शुक्रिया .
जवाब देंहटाएंthanks 4 sharing..
जवाब देंहटाएंAche bichar aur acha swabhaw bhahut kam logo me hoti hai waise aapme dono hai.
जवाब देंहटाएंDubai Holiday Packages
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