03 फ़रवरी 2010

लघु कथा

 मैचिंग कुंडली

- डॉ०  डंडा लखनवी                    

द्यपि कात्‍यायनी और शैलजा जुड़वाँ बहनें न थीं किन्‍तु दोनों में इतनी समानताएं थी कि जो भी उन्‍हें देखता जुड़वा बहनें ही समझता था। दोनों एक ही मोहल्‍ले की रहने वाली, एक ही कॉलेज में पढ़ी, वर्ण, भाषा, डीलडौल, नैननक्‍श आदि एक जैसा था। यहाँ तक कि दोनों की जन्‍म-ति‍थियाँ के माह और वर्ष भी एक ही थे। दोनों के पिता उनके लिए वर की तलाश में दर-दर की खाक छान चुके थे। कहीं दहेज की ऊँची माँग, कहीं कन्‍या की ऊँची आयु, कहीं विसवा-विसवंसी का फ़र्क़ सफलता की राह का रोड़ा बन जाता। कात्‍यायनी का रिश्‍ता तो जगन्‍नाथ उपाध्‍याय से पक्‍का होते-होते इसलिए टूट गया क्‍योंकि वर और वधू की कुंडलियाँ मेल नहीं खा रही थीं। 

सी व्‍यथा के कारण उदासी की चादर लपेटे वीरभद्र सुकुल बैठक में बैठे हुए ‍थे कि पड़ोसी गोवर्धन पाठक वहाँ पधारे। उन्‍होंने उदासी का कारण पूछा तो सुकुल ने वर पक्ष की रू‍‍‍ढिवादिता का काला चिठ्ठा खोलकर रख दिया। पाठक को अंधेरे में रोशनी की एक किरण दिखाई दी। वे अपनी पुत्री शैलजा की ज्‍योतिषी से ऐसी मैचिंग कुंडली बनवाई कि वर पक्ष वाले न नहीं कर सके और उसका विवाह जगन्‍नाथ उपाध्‍याय से हो गया।         

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