17 जनवरी 2011

          









        

     कुर्सी तेरे चट्टे - बट्टे
          
                                           -डॉ० डंडा लखनवी

कुर्सी       तेरे       चट्टे - बट्टे।
कैसे       इतने      हट्टे - कट्टे?

जिनके    हाथों  श्रम   के ढ़ट्ठे-
वो  क्यों   निर्बल  और सुखट्टे॥

जो   खाते  सब   माल-मसाला-
वही    दिखाते  हमे   ठिंगट्टे॥

सुबह - सुबह  अख़बार  बताते-
नक़ब - रहज़नी, छीन - झपट्टे॥

ये    कैसी     आजादी   बापू-
दाँत  हुए     जनता    के खट्टे॥

अब  लंगोट   की   कद्र कहाँ है-
मूल्यहीन    हो   गए   दुपट्टे॥

शोषक   हित  में कहीं न बाधा-
जनहित   में    लाखों अरझट्टे॥

6 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय डॉ० डंडा लखनवी जी
    बहुत सार्थक पंक्तियाँ हैं ....यह आपकी कलम का कमाल है की कम शब्दों में आप बहुत गंभीर बातें कह जाते हैं ...
    शोषक हित में कहीं न बाधा-
    जनहित में लाखों अरझट्टे॥
    पूरी स्थिति को कितने कम शब्दों में अभिव्यक्त किया है ..निश्चित रूप से ...गागर में सागर ..बहुत शुक्रिया

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  2. हमेशा की तरह सबसे अलग और जबरदस्त रचना...दाद कबूल करें

    नीरज

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  3. आप वाकई मर्म छू लेने में समर्थ रहते हैं ! सरल भाषा में लिखी आपकी रचना मेरे द्वारा हाल में पढ़ी बेहतरीन रचनाओं में से एक है ! शुभकामनायें आपको !

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  4. बहुत पहले दूरदर्शन पे एक विज्ञापन आता था जिसमे कहा जाता था "simplicity में एक अद्भुत शक्ति होती है." कितना सही था, आपकी कविता पढ़कर समझ में आ जाता है....
    पहली बार आया मैं आपके यहाँ.....बहुत अच्छा लगा...

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  5. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें

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