26 अगस्त 2010

बहुप्रचलित मुहावरा - एकता का सूत्र

                                         -डॉ० डंडा लखनवी

हिंदी में एक बहुप्रचलित मुहावरा है- "एकता के सूत्र में बंधना।"  पारिवारिक संबंधों में मधुरता के प्रतीक रूप में सूत्र अर्थात धागा के प्रयोग पर आधारित सबसे बडा़ त्योहार है-रक्षा-बंधन। इस अवसर पर खंड-खंड सूत (राखी) का व्यवसाय चरम पर होता है। नकली और मिलावटी मावे की मिठाइयाँ खूब चर्चा में रहती हैं। यही नहीं एकता का यह विस्तार परिवारों में भाई-बहन के रिस्ते के बीच मात्र उपहारों के आदान-प्रदान तक सिमिट कर रह जाता है। आज ’एकता का सूत्र’ की विराटता कहाँ है? उसे सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकार  से कैसे जोडा़ जा सकता है यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस विषय पर चर्चा करने के पूर्व मुहावरे की ऐतिहासिक पॄष्ठभूमि पर एक नज़र डालना आवश्यक होगा।

आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व बौध्द-संस्कॄत्ति का भारत में व्यापक प्रभाव था। भारतीय समाज ऊँच-नीच, छुआ-छूत से मुक्त हो, सबको बराबर का सम्मान और विकास का अवसर मिलें। इस हेतु उस युग में कुछ संस्कार-बीज लोक-मानस में रोपे गए थे। वे संस्कार-बीज आज भी बड़े प्रासांगिक हैं। उन्हीं संस्कार-बीजों से संबंधित एक परंपरा ’एकता के सूत्र’ की है। बौध्द-समुदाय के विशिष्ट अनुष्ठानों पर वह आज भी देखने को मिल जाती है। ’एकता के सूत्र’ के अंतर्गत किसी मांगलिक अनुष्ठान के अवसर पर आयोजन -स्थल के मध्य रखे कलश से गोले में लिपटे सूत का  एक सिरा बांध दिया जाता है। आगंतुक जैसे-जैसे वहाँ आते जाते हैं; उसी सूत को पकड़ कर कलश के चारों ओर घेरा बना कर बैठते हुए अपना स्थान ग्रहण करते जाते हैं। इस प्रकार वहाँ आए हुए हर व्यक्ति को बराबर का मान स्वत: मिलता जाता हैं। यह बराबरी पर आधारित एक चक्रीय व्यवस्था का नियोजन है। इसमें प्रथम आगत-प्रथम स्वागत की अवधारणा स्वत: आकार धारण करती जाती है। बौध्द-काल में ऊँच-नीच, छुआ-छूत, भेदभाव से मुक्त सामाज को ढ़ालने मे यह संस्कार -बीज उत्प्रेरक का कार्य करता था। और वह सूत्र एकता का परिचायक माना जाने लगा। इस प्रकार ’एकता का सूत्र’ नामक मुहावरा साहित्य एवं भाषा की निधि बना। 


हमारे देश का यह दुर्भाग्य रहा है कि विदेशी आक्रांता अपनी गहरी कूटनीति से बौध्द-धर्म को उसकी जन्मभूमि (भारत) से निष्कासित करने में सफल हो गए। और उस स्थान पर स्वयं काबिज़ हो कर असमानतावादी व्यवस्था कायम करने में कामियाब रहे। परिणाम यह हुआ कि ’एकता के सूत्र’ की अवधारण धीरे-धीरे विलुप्त हो गई। अब ’एकता का सूत्र’ का मुहावरा तो सुनने में आता है परन्तु मुहावरे में अंतर्निहित सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकार का भाव कहीं नहीं दिखाई पड़ता है। काश! वह भाव हमारे समाज में प्रभावी होता।


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