-डा0 डंडा लखनवी
आज जिस समाज में हम रह रहे हैं वह वास्तव में राजशाही के ईट-गारे से बना है। उसी से उपजे बहुत सारे नियम-कानून हम आज भी ओढ़-बिछा रहे हैं। जाने-अनजाने हम उस राजतांत्रिक व्यवस्था के संस्कारों को पोषित करते हैं जो आधुनिक युग में अपनी प्रसांगिकता खो चुके हैं। हमारे अनेक तीज-त्योहार भी उसी ढ़र्रे पर बने हैं और उन्हें हर साल परंपराओं के नाम पर मनाते हैं। इन अवसरों पर जनसाधरण को बड़ी चतुराई से निदेशित किया जाता है। लोग बिना कुछ समझे-बूझे आरोपित संस्कारों को अपने आचरण में उतार लेते है। कुछ टीवी चैनल भी अवैज्ञानिकता और अंधविशवास को हवा देने में परहेज़ नहीं करते हैं। ऐसी स्थिति में सुधारवादियों के द्वारा किए सामाजिक सुधार के अनेक प्रयास धरे के धरे रह जाते हैं। उनके द्वारा किए गए प्रयासों का असर होता भी है तो बहुत सीमित मात्रा में और बहुत सीमित क्षेत्र में होता है। सदियों से चली आ रही जातिवाद और धर्मवाद की रूढ़ियाँ अपना पुराना आकार पुनः धारण कर लेती हैं। यह तो वही बात हुई-एक तरफ नशाबंदी के विरुद्ध अभियान चलाया जाए और दूसरी ओर शराब की दूकानें खुलवायी जाती रहें।
भारत में छुआछूत की बीमारी सदियों पुरानी है। जैसे-जैसे इसके प्रयास किए जाते हैं। यह बीमारी और जोर पकड़ लेती है। जुलाई 2010 में उत्तर प्रदेश के कन्नौज, कानपुर, इटावा तथा शाहजहाँपुर जनपद में ऊंची जातियों के छात्रों ने दलित रसोइयों द्वारा तैयार भोजन का बहिस्कार कर दिया था। उन छात्रों को आखिर छुआछूत का पाठ किसने पढ़ाया। धर्म और जाति के नाम पर यह व्यवहार कहाँ तक जायज़ ठहराया जा सकता है? सभी जानते हैं कि हर वर्ष पूरे देश में दशहरे के अवसर पर रामलीला का मंचन पर किया जाता है। उस अवसर पर ’सती सिलोचना’ का कथा-प्रसंग भी मंचित होता है। उक्त कथा-मंचन से क्या यह संदेश प्रचारित नहीं होता है कि सती होना गौरव की बात है? सती-प्रथा को किसी भी तरह से बढ़ावा देना भारत में कानूनन अपराध है। इसे प्रचारित और प्रसारित करना आज किसी भी सभ्य समाज के लिए गौरव की बात नहीं है। इसे क्यों प्रचारित किया जाता है? इस मामले में क्या युगानुकूल सामाजिक बदलाव की आवश्यकता नहीं है? इस तरह के विषयों पर बदलाव के लिए कौन जिम्मेदार है?
भारत में छुआछूत की बीमारी सदियों पुरानी है। जैसे-जैसे इसके प्रयास किए जाते हैं। यह बीमारी और जोर पकड़ लेती है। जुलाई 2010 में उत्तर प्रदेश के कन्नौज, कानपुर, इटावा तथा शाहजहाँपुर जनपद में ऊंची जातियों के छात्रों ने दलित रसोइयों द्वारा तैयार भोजन का बहिस्कार कर दिया था। उन छात्रों को आखिर छुआछूत का पाठ किसने पढ़ाया। धर्म और जाति के नाम पर यह व्यवहार कहाँ तक जायज़ ठहराया जा सकता है? सभी जानते हैं कि हर वर्ष पूरे देश में दशहरे के अवसर पर रामलीला का मंचन पर किया जाता है। उस अवसर पर ’सती सिलोचना’ का कथा-प्रसंग भी मंचित होता है। उक्त कथा-मंचन से क्या यह संदेश प्रचारित नहीं होता है कि सती होना गौरव की बात है? सती-प्रथा को किसी भी तरह से बढ़ावा देना भारत में कानूनन अपराध है। इसे प्रचारित और प्रसारित करना आज किसी भी सभ्य समाज के लिए गौरव की बात नहीं है। इसे क्यों प्रचारित किया जाता है? इस मामले में क्या युगानुकूल सामाजिक बदलाव की आवश्यकता नहीं है? इस तरह के विषयों पर बदलाव के लिए कौन जिम्मेदार है?
अभी कुछ दिन पूर्व की बात है। सूचना के अधिकार संबंधी एक आयोजन था। उसमें सम्मिलित होने का अवसर मुझे मिला। आयोजन के अध्यक्ष पद से बोलते हुए एक वक्ता ने भारत को प्रजातांत्रिक राज्य बताया। इतने महत्वपूर्ण पद से उनके वक्तव्य को सुन कर मैं दंग रह गया। बडे-बडे लोग लोकतंत्र को आज भी प्रजातंत्र कहते हैं। हमारे देश में अब प्रजातंत्र नहीं है। यहाँ की शासन व्यवस्था संविधान के अंगीकार किए जाने के साथ ही लोकतांत्रिक बन चुकी है। यह बात उन्हें कौन बताए? हद तो तब हो गई जब एक पार्टी ने तो यह नारा तक दे डाला ‘............राजतिलक की करो तैयारी‘। राजतिलक तो राजाओं का होता था। संसद हो अथवा विधान सभा उनमें चुन कर जाने वाला व्यक्ति हमारा प्रतिनिधि होता है। उसकी स्थिति जनता के सेवक की होती है। जनता का सेवक राजा कैसे हो सकता है? हम अपने प्रतिनिधि को जनसेवा के लिए भेजते हैं, राजसुख भोग के लिए नहीं। स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष करने वाले सेनानियों ने क्या इसी आजादी का सपना देखा था?
संवैधानिक रूप से हम सब भारतीय हैं। भारतीय होने पर हमें गर्व होना चाहिए। फिर भी कुछ लोग इन परिवर्तनों को स्वीकार नहीं कर पाए हैं। वे खुद को भारतीय नहीं कहते हैं। उनकी जुबान पर भारत और भारतीय के स्थान पर हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी ही चढ़ा हैं। यह कैसी विडंबना है? भारत में अभी लोकतांत्रिक व्यवस्था के पैर जम भी न पाए थे कि हम पुन: सामंती व्यवस्था के जबडों में जकड़ते जा रहे हैं। बाजारीकरण का खेल जोरों पर है। हर वस्तु को बिकाऊ बनाया जा रहा है। कल्याणकारी राज्य और उसमें निवास करने वाले हर नागरिक के सर्वांगीर्ण विकास की अवधारण का सवाल अब पीछे छुट गया है। शोषण के विरुद्ध पूर्वजों द्वारा किए गए प्रयासों पर पानी फिरता जा रहा है। करोड़ों लोग अभी भी स्लम-बस्तियों जीवन जीने के लिए विवश हैं।
हिदीं साहित्य के महाकाव्यों में वर्णित चरित्र श्रीराम के युग में ’सबरी’ और श्रीकृष्ण के युग में ’एकलव्य’ नामक आदिवासी पात्रों का उल्लेख मिलता है। आदिवासियों की दशा उस समय भी दयनीय थी और आज भी उनके वंशजों की दशा दयनीय है। हजारों वर्षों के बाद भी हम उन्हें मुख्य-धारा के समकक्ष नहीं ला सके। आदिवासी बहुल क्षेत्र की खनिज-संपदा का दोहन निरंतर किया जा रहा है। वन्य-क्षेत्र का दायरा धीरे-धीरे घट रहा है। वहाँ से अर्जित राजस्व का कितना अंश उस क्षेत्र के विकास पर व्यय किया गया है। इसकी पोल वहाँ रहने वाले लोगों के रहन-सहन के स्तर को देख कर स्वतः खुल जाती है। यह विसमतावादी सामाजिक व्यवस्था का एक ख़ौफनाक आइना है। ऐसी ही स्थिति दलित और पिछड़े वर्ग की भी हैं। भारत में राजसत्ता का एक मोहरा धर्म-सत्ता का है। धर्म-सत्ता के बुनियादी स्वरूप में बदलाव की आवश्यकता है। रूढ़ियों से मुक्ति के प्रयास वहीं से किए जाने चाहिए। आज देश को समतावादी मूलक विचारों के साथ सदाचार और साहिष्णुता की आवश्यकता है। यह परिवर्तन जितनी जल्दी होगा देश और समाज के लिए उतना ही हितकर होगा। असंतुलि विकास से मुठ्ठी भर लोगों का भला होता है। आम जनता के कष्ट बढ़ जाते हैं और वह आत्महत्या के लिए विवश हो जाती है। कल्याणकारी राज्य की यह नीति कदापि नहीं होती है। राज्य के सभी नागरिकों को ‘शिक्षा-स्वास्थ और उसके जीवन की सुरक्षा’ सुलभ कराना राज्य की नैतिक जिम्मेदारी है। शासन-व्यवस्था कोई भी हो राज्य इस जिम्मेदारी से मुख नहीं मोड़ सकता है।
इंसानियत की आज बहुत जरूरत है ,क्योकि उसके अभाव में हमसब के वजूद पर प्रश्न चिन्ह लग गया है | इंसानियत की पाठशाला हर गांवों व शहरों में खोलने की जरूरत है ...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।