-डॉ० डंडा लखनवी

जो शख़्श सरे राह मटकते ज़रूर हैं॥
सत्ता के संग हुज़ूम न हो, है ये असंभव,
चीनी के पास चींटे फटकते ज़रूर हैं॥
मंजिल का पता ही नहीं मालूम है जिन्हें,
वो शहरी सभ्यता में भकटते ज़रूर हैं॥
गीदड हैं समझदार शहर का न रुख़ करें,
हम उनके इलाकों को गटकते ज़रूर हैं॥
कलियों में और शीशों में येही तो सिफ़त है,
अपनी उमर पे आ के चकटते ज़रूर हैं॥
थूके अगर तो थूक ले जग इसका ग़म नहीं,
हम ट्रेन की छतों पे लटकते ज़रूर हैं॥
करते नहीं मदद की आप उनसे गर् गुहार,
उनकी नज़र में आप ख़कटते ज़रूर हैं॥
ऐसा नहीं बदरंग रहें कोशिशें मेरी,
शुरुआत में तो रोड़े अटकते ज़रूर हैं॥
माँ-बाप के चरण में शीश जिनका न झुका,
पत्थर पे अपना सिर वो पकटते ज़रूर हैं॥
बहुत ही सुन्दर चुटीला व्यंग्य!
जवाब देंहटाएंआपकी संवेदना शक्ति को प्रणाम !
जवाब देंहटाएंbahut sateek vyangye hai.
जवाब देंहटाएंआपकी रचना कल २/७/१० के चर्चा मंच के लिए ली गयी है.
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com/
आभार
आपको धन्यवाद.....एवं चर्चा मंच के प्रति आभार।
जवाब देंहटाएंसद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
बहुत बढ़िया कत्क्ष प्रस्तुत करती गज़ल...अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंअच्छा है।
जवाब देंहटाएंअभिषेक शर्मा
sir ,आप ने तो सब सामेट लिया अपनी रचना मे, बढ़िया कत्क्ष प्रस्तुत करती गज़ल............
जवाब देंहटाएंKYA BAAT HAI MAHODAY MAJA AA GAYA
जवाब देंहटाएं