घटना सन् उन्नीस सौ अठ्ठानबे की है। एक सुपरिचित कवि की दिल्ली के किसी टीवी चैनल के अधिकारी से वार्ता हुई। कवि महोदय ने मुझसे कहा - 'दिल्ली में एक कवि-सम्मेलन है जिसका प्रासारण बैसाखी के दिन टीवी पर होगा। आपको उक्त कार्यक्रम में अवश्य चलना है।' उन दिनों पंजाबी लोक धुन पर आधारित हिंदी टप्पे मैंने खूब लिखे थे। वे मंचो पर खूब सराहे भी जाते थे। पंजाबी के प्रति लगाव, बैसाखी का आकर्षण मैं उन कवि मित्र के आग्रह को टाल न सका। समय से कार्यक्रम स्थल पर बस द्वारा जैसे-तैसे दिल्ली पहुँचा। एक विशाल सभागार में अति भव्य मंचीय सेट पर देश के जानेमाने कविगणों की उपस्थिति में समारोह शाम सात बजे प्रारंभ होकर रात बारह बजे तक चला। कार्यक्रम की अध्यक्षता एक केन्द्रीय मंत्री ने की। सम्मेलन की गरिमानुकूल चार-चार कैमरे जगा कर वीडियो रिकार्डिंग की गई। कार्यक्रम के समापन पर स्थानीय कविगण पारिश्रमिक ले कर अपने-अपने घर चले गए परन्तु बाहर आए हुए कवियों को पारिश्रमिक दिए बगै़र ही संयोजक चंपत हो गया। रात्रि का समय अनजान शहर में इस प्रकार ठगे जाने पर बड़ी खीझ महसूस हुई। जैसे-जैसे लखनऊ वापस आया। बैसाखी पर उक्त कार्यक्रम के प्रसारित होने की ख़बर आस-पास के मेरे प्रसंशको में फैल चुकी थी। कई श्रोता अपने-अपने टीवी सेटों को चालू कर कवि सम्मेलन सुनने के लिए प्रतीक्षा करते रहे। उस कार्यक्रम का प्रसारण कब हुआ यह पता आज तक न चल सका। जब कभी बैसाखी का पर्व आता है, उक्त घटना की याद आ जाती है।
कैसे कैसे संयोजक और कैसे कैसे कार्यक्रम...ये संस्मरण भी खूब रहा.
जवाब देंहटाएंरचना पढने को तो मिली या वो भी नहीं। अच्छा रहा दिल्ली प्रवास।
जवाब देंहटाएंरोचक रहा आपका अनुभव और संस्मरण!
जवाब देंहटाएंये भी खूब रही... मेरा मतलब जो परेशानी हुई वो तो सिर्फ आप ही जानते हैं
जवाब देंहटाएंयाद बैसाखी की आती रहेगी और दिल्ली के दलालों की भी.