31 मार्च 2010

‘रेडियो पत्रकारिता’ का लोकार्पण


डॉ0 आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ की पुस्तक
‘रेडियो पत्रकारिता’
का लोकार्पण समपन्न

               
         भिवानी। विगत सत्ताइस वर्षों से रेडियो लेखन, अभिनय, शिक्षण व पत्रकारिता से ‘आनन्द कला मंच एवं शोध संस्थान’ के अध्यक्ष आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘रेडियो पत्रकारिता’ का लोकार्पण 26 फरवरी 2010 को नीचम (म0प्र0) में एक राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकार डॉ0 वेदप्रकाश वैदिक के करकमलों से सम्पन्न हुआ। यह जानकारी देते हुए ‘आनन्द कला मंच एवं शोध संस्थान’ भिवानी के सचिव राजकुमार पवांर ने बताया कि विगत 26 एवं 27 फरवरी को नीमच (म0प्र0) के स्वामी विवेकानन्द शासकीय महाविद्यालय में ’हिंदी पत्रकारिता कल आज और कल’ विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस संगोष्ठी में डॉ वेद प्रकाश वैदिक मुख्य अतिथि थे। उनके साथ हरिद्वार से डॉ कमलकांत बुधकर और उनकी धर्मपत्नी संगीता बुधकर, दिल्ली से डॉ0 कुमुद शर्मा और उनके पति पत्रकार अरुणवर्धन और भिवानी से आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ और उनके कला एवं शोध संस्थान के सदस्य राजकुमार पवांर और आकाशवाणी रोहतक के उद्धोषक संपर्ण सिंह नीमच पहुँचे थे। रेलवे स्टेशन पर राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी की संयोजिका डॉ0 मीना चौधरी, डॉ0 आर0के0 गुरेटिया और महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ0 आर0एस0 वर्मा ने अतिथियों का फूल मालाओं से स्वागत किया।
         इस शोध संगोष्ठी के उद्धाटन सत्र में डॉ0 वेद प्रकाश वैदिक ने आनन्द प्रकाश ‘आटिस्ट’ की पुस्तक ‘रेडियो पत्रकारिता’ का लोकार्पण किया। इस अवसर पर स्वामी विवेकानन्द शासकीय महाविद्यालय नीमच (म0प्र0) के स्टाफ और शोधार्थियों के अलावा देश के कोने-कोने से आए पत्रकार और विद्वान मौजूद थे। महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ0 आर0एस0 वर्मा और हिंदी विभाग की सहायक प्राध्यापिका एवं संगोष्ठी की संयोजिका डॉ0 बीना चैधरी ने आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ को बधाई दी। पुस्तक के लोकार्पण के उपरान्त विद्वानों की उपस्थिति में आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ ने ‘रेडियो पत्रकारिता: चुनौतियाँ एवं संभावनाएं’ विषय पर अपना शोध-पत्र प्रस्तुत किया। रात्रि-सत्र में आयोजित काव्य-गोष्ठी में कन्या भूर्ण-हत्या के विरुद्ध जन-चेतना विषयक गीतों के अलावा आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ ने अपनी एक प्रसिद्ध गजल ‘‘लिखी है ग़ज़ल मैंने दिल का लहू निचोड़ कर-पर कौन मानेगा इस बात को सिर्फ तुमको छोड कर’’ भी प्रस्तुत की। उक्त दोनों सत्रों में डॉ0 हरिमोहन बुधौलिया (उज्जैन), डॉ0 प्रेम भारती (भोपाल), पत्रकार अनिल लोढ़ा (जयपुर), डॉ0 संजीव कुमार भावनावत (जयपुर), डॉ0 कमलकांत बुधकर और उनकी पत्नी संगीता बुधकर (हरिद्वार), डॉ0 कुमुद शर्मा ओर उनके पति पत्रकार अरुणवर्धन (दिल्ली), डॉ0 किशोर काबरा (अहमदाबाद), डॉ0 कृष्ण कुमार अस्थाना (इंदौर), डॉ0 गुणमाला खिमेसरा (मंदसौर), श्रीमती प्रेरणा ठाकरे ‘परिहार’ (नीमच), डॉ0 प्रमोद रामावत ‘प्रमोद’ (नीमच), आकाशवाणी रोहतक के उद्धोषक संपर्ण सिंह बागड़ी, कार्यक्रम की संयोजिका डॉ0 बीना चौधरी और महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ0 आर0एस0 वर्मा विशेष रूप से उपस्थित थे।
         समारोह के समापन में डॉ0 बीना चौधरी ने सभी के हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित किया और आशा व्यक्त की कि यू0जी0सी0 द्वारा प्रयोजित ऐसी शोध संगोष्ठियों से न केवल शिक्षा में गुणात्मक सुधार आएगा बल्कि संचित अनुभवों एवं ज्ञान के आदान-प्रदान से शिक्षण एवं शोध को नई दिशाएं मिलेंगी।

28 मार्च 2010

सुरेश उजाला के चार मुक्तक

(1)  
सागर  के  सीप  हो   गए।
लक्ष्य के समीप  हो गए।।
शिक्षा जब मिल गई हमें-
अपने  ही  दीप   हो गए।।

 

(2)
खडे़ कुछ सवाल हो गए।
जान को बवाल हो गए।।
समझा था जिनको कर्णधार-
देश के दलाल हो गए।।
 

(3)
तिल से जो  ताड़  हो  गए।
राई  से   पहाड़  हो  गए।।
निधियाँ उनको फली मगर-
गाँव-घर उजाड़  हो  गए।।

(4)
अंधकार      को  दूर   भगाओ।
शिक्षित बन गुथ्थी सुलझाओ।
सभी   रास्ते   खुल       जाएंगे-
अपने दीप स्वयं बन जाओ।।
 

सचलभाष- 9451144480

18 मार्च 2010

विज्ञान और ज्योतिषशास्त्र

                            -डॉ० डंडा लखनवी


आजकल अनेक टी०वी० चैनल पर ज्योतिषशास्त्र से जुडे़ कार्यक्रम प्रमुखता से प्रसारित हो रहे हैं। प्राय: ऐसा  टी०आर०पी० बढ़ाने के लिए होता है। इस कार्यक्रम में ज्योतिषियों के अपने तर्क होते हैं और वैज्ञानिकों के अपने। दोनों में से कोई भी हार मानने के लिए तैयार नहीं होता। अंतत: ज्योतिषी महोदय को क्रोध आ जाता है और वे अपनी विद्या-बल के प्रभाव से विज्ञानवादी वक्ता को सबक सिखाने पर तुल जाते हैं। यह सबक येनकेनप्रकारेण उसे भयभीत करने का होता है। इस काम के लिए वह मनोविज्ञान का भरपूर उपयोग करता है। ज्योतिषी महोदय के तेवर धीरे-धीरे आक्रामक होते जाते है और विज्ञानवादी के स्थिति रक्षात्मक । कुल मिला कर यह एक ऐसा स्वांग होता है जो दिन भर चलता है। दर्शकगण हक्का-बक्का हो कर दोनों के तर्क-वितर्क में डूबते-उतराते रहते हैं।इस संबंध में मेरा मानना है कि.......


ज्योति शब्द प्रकाश अर्थात आलोक का द्योतक है। प्रकाश के सम्मुख आने पर वे सभी चीजें दिखने लगती हैं जो अंधेरे के कारण हमें नहीं दिखाई पड़ती हैं।......जिस प्रकार सजग शिक्षक अपने विद्यार्थियों के आचरण और व्यवहार में निहित गुण-दोषों को देखकर उसके जीवन का खाका खीच देता है। वैसे ही ज्योतिषी भी जातक के जीवन में घटित होने वाली टनाओं का अनुमान लगाता है, खाका खीचता है। इस कार्य में वह धर्म, दर्शन, गणित, अभिनय-कला, नीतिशात्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, पदार्थ-विज्ञान, शरीर-विज्ञान, खगोल-विज्ञान, समाजशात्र तथा लोक रुचि के नाना विषयों का सहारा लेता है। वस्तुत: ज्योतिषशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है। इस विज्ञान की प्रयोगशाला समाज है। सामाजिक विज्ञानों के लिए अकाट्य सिद्धांतों का निरूपण करना कठिन होता है। सामाजिक परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है। इसके प्रभाव भी तत्काल दिखाई नहीं देते हैं। यह बात ज्योतिषशास्त्र पर भी लागू होती है। अत: अन्य सामाजिक विज्ञानों की भांति इस विज्ञान के निष्कर्ष शतप्रतिशत खरे होने की कल्पना आप कैसे कर सकते हैं? इस  निष्कर्ष विविधता का एक यह भी कारण  है कि कु़दरती तौर पर संसार का हर व्यक्ति अपने आप में मौलिक होता है। उसके जैसा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं होता है। इस आधार  पर हर व्यक्ति का भविष्य भी दूसरे से भिन्न ठहरेगा। अत: शुद्ध विज्ञान की भांति इससे तत्काल और सटीक परिणामों की आशा करना व्यर्थ है।............ हाँ किसी धंधे को चमकाने के लिए मीडिया एक अच्छा माध्यम है । ‘ज्योतिषियों’ और मीडिया की आपसी साठगांठ से दोनों का धंधा फलफूल रहा है।.वर्तमान को सुधारने से भविष्य सुधरता है। इस तथ्य जो मनीषी परिचित हैं उन्हें मालूम हो जाता है कि उनका भविष्य कैसा होगा।

14 मार्च 2010

‍भड़ौवाकार बेनीभट्ट ‘बंदीजन’



भड़ौवाकार  बेनीभट्ट ‘बंदीजन’
       (सन् 1788-सन् 1836)
                                                                  
                                           - डॉ० गिरीश कुमार वर्मा
हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन युग में अवध के शासकों के संरक्षण में उनकी कला-विलासिता तथा सौन्दर्य-प्रियता की भावना को तुष्ट करने के लिए अनेक विशेषज्ञ कलाकार लखनऊ में आ जुटे थे। उनकी कलाओं में आलंकारिता, सूक्ष्मता, दक्षता तथा उत्कृष्टता थी। समकालीन राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियों का स्पष्ट प्रभाव तत्कालीन साहित्य में भी दृष्टिगत होता है। उर्दू साहित्य का तो लखनऊ केन्द्र ही बन गया था। दिल्ली के उजड़ने के पश्चात् वहाँ के अनेक श्रेष्ठ कवि यहाँ आ बसे और अवध के नवाबों का आश्रय पा कर अदब के स्तर पर लखनऊ की संमृद्धि में सहायक बने। यहाँ की तत्कालीन स्थितियों पर डा0 ब्रजकिशोर मिश्र का अभिमत है-“तत्कालीन समाज की प्रमुख वृत्ति आलंकारिक कही जा सकती है। प्रत्येक क्षेत्र में प्रसाधन का प्रयत्न बहुत स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। वास्तुकला में विशेष सूक्ष्मतायुक्त कला के दर्शन होते हैं। साहित्य भी इसी प्रवृत्ति से प्रभावित है। सर्वप्रथम मुक्तक शैली ही इस बात को लक्षित करती है कि कवियों में चमत्कारपूर्ण कलात्मक रचना करने की विशेष रुचि उत्पन्न हो गयी थी। चित्रण तथा अभिनय की वृत्ति को भी इसी मुक्तक रचना में चरितार्थ करने का प्रयत्न किया गया है।” कविवर बेनी भट्ट उसी परंपरा का पोषक माना जा सकता है। 


उनके काव्य का एक पक्ष हास्य का भी है। इस पक्ष पर डा0 ब्रज किशोर मिश्र की सम्मति है-“हास्य-वृत्ति का मुक्त वर्णन इन कवियों में कम मिलता है, किन्तु सरस्वती की गुप्तधारा के समान उसकी ख्याति प्रायः सभी स्थलों पर विद्यमान है। शृंगार का तो वह प्रधान सहायक बनकर आया है। अन्य स्थलों पर कहीं वाक्चातुरी के रूप में कहीं व्यंग्य, उपालम्भ के रूप में, कहीं केवल भाषागत चमत्कार प्रदर्शन में उसकी अभिव्यक्ति हुई है। सामाजिक व्यंग्य के रूप में प्रस्तुत हास्य रचना सबसे अधिक प्रत्यक्ष हुई है-‘भड़ौआ’ के रूप में अनेक कवियों ने इस प्रकार की रचना की।” हास्य-वृत्ति के आधार पर कविवर बेनी भट्ट द्वारा की गई साहित्य-सर्जना का अपना अलग महत्त्व है, यद्यपि उनके दो और ग्रन्थ “रस-विलास” एवं “टिकयतराय प्रकाश” भी हैं किन्तु तीसरे ग्रन्थ ‘‘भड़ौवा-संग्रह’’ को विशेष ख्याति मिली। मिश्र बन्धुओं के अनुसार-‘‘बेनी की सबसे उत्कृष्ट रचनाएं ‘‘भड़ौवा-संग्रह’’ में ही पायी जाती हैं। ऐसे भड़कीले भड़ौवे किसी ने नहीं बनाये।’’ कविवर बेनी के जीवनवृत्त पर प्रकाश डालते हुए डा0 सूर्यप्रसाद दीक्षित ने लिखा है-“लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला के अर्थमंत्री राजा टिकयतराय के दरबारी कवि बेनी इस नगर के गौरव रहे हैं। इनका जन्म तो बेंती (रायबरेली) में हुआ था, लेकिन निवास तो बहुत अर्से तक लखनऊ में रहा है।’’ उनके जीवनवृत पर “हिन्दी विश्वकोश” में उल्लेख मिलता है-“इनका जन्म सं0 1844 में हुआ था। ये लखनऊ के नवाब के दीवान टिकयतराय के यहाँ रहते थे। सं0 1892 में ये परलोक सिधारे।’’ 


इनके संबंध में एक तथ्य उल्लेखनीय है कि लखनऊ में बेनीदीन बाजपेयी नाम के एक अन्य रचनाकार उनके समकालीन थे। उन्होंने भी ‘बेनी’ नाम से काव्य रचना करना आरम्भ किया था परन्तु बेनीभट्ट के परामर्श पर बेनीदीन बाजपेयी ने ‘बेनी प्रवीन’ उपनाम से काव्य-रचनाएं कीं और साहित्य जगत् में विख्यात् हुए। कविवर बेनीभट्ट की पर्यवेक्षण-शक्ति बहुत व्यापक है। आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग उन्होंने अपनी रचनाओं में किया है। सड़कों पर फैले कीचड़ के कारण राहगीरों की कठिनाइयों पर प्रकाश डालते हुए बडे़ सजीव शब्दचित्र गढ़े हैं। वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए एक छंद में उन्होंने लखनऊ की गलियों का व्यंग्योक्तिपूर्ण उल्लेख किया है-“मीच तो कबूल पै न कीच लखनऊ की।” एक अन्य छंद में नागरिक सुविधाओं का चित्रण कर कवि ने प्रबंधनकारों की प्रच्छन्न निंदा बड़ी चतुराई से की है। उनकी वाक्चातुरी का परिचय निम्नलिखित छंद में प्राप्त होता है- 


                           "एकै बिछलत,  पिछलत तिन्हैं  लसे एकै, 
 एकै   परे कीच  में विधाता  को बकत है।
  ठौर - ठौर   नदी उमड़ी  है  नापदानन की,
हाथीवान हूलैं, हाथी  जाय न सकत है।।
बरसत  मेह  ऐसी   दशा  लखनऊ बीच,
बरनत  शेष   हूँ    के   आनन  थकत है।
देवता  मनाये पुन्य पिछिली सहाय डेरे,
  पहुँचत  जाख ताके  पूर  न  बखत  है।।” 

झूठी शान-शौकत का दिखावा करने वाले कुछ लोग चादर के बाहर अपने पाँव पसार लेते हैं। ऐसे लोगों की जब पोल-पट्टी खुलती है तो वे सामाजिक रूप से उपहास के पात्र बन जाते हैं। अपनी सूक्ष्मदर्शी दृष्टि से बेनी ने एक छन्द में एक ऐसे ही व्यक्ति का उपहास किया है। तत्कालीन परम्परा के अनुसार पगड़ी, जूता, चूड़ीदार पायजामा इत्यादि परिधान धारण करना तथा मशालची रखना संपन्नता की निशानी थी। रात्रि के समय मशाल लेकर आगे-आगे पैदल चलते हुए अपने मालिक का पथ-प्रदर्शन करना मशालची का काम होता था। सामान्य जनों के लिए माँग कर वस्त्र जुटा लेना तो आसान था परन्तु मशालची की व्यवस्था करना अत्यन्त कठिन था। कुछ लोग फिर भी छद्म-वैभव प्रदर्शन करने में अपनी शान समझते थे। बेनी कवि ने झूठा दिखावा करने वालों की बड़ी कुशलता से बखिया उधेड़ी है-

"तुर्रा  पगरी  पर  केराया  के करी पर सू,
आजु या घरी पर चले हैं सजि मेले को।

हंसि  मुख  फेरत   हैं, इत   उत हेरत हैं,

बार - बार  टेरत  हैं आदमी अकेले को।।

चूड़ीदार जामा घिरा एक हू न सामा और,

फेरि कुम्हिलाय गये जैहो पात केले को,

याही हेत भागे आगे-आगे सब लोगन के,

रात समै साथ ना मसालची उजेले को।।”

डा0 बरसानेलाल चतुर्वेदी ने उक्त भड़ौओं की प्रशंसा में लिखा है-“बेनी के भड़ौवे (सटायर) हिन्दी में अपने ढंग की एक मात्र वस्तु हैं। ‘भड़ौवे’ में उपहास पूर्ण निन्दा रहती है।‘’ अति कृपण व्यक्ति समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखे जाते हैं। उनके ऊपर संसार की उपेक्षा का कोई प्रभाव भी नहीं पड़ता है। ऐसे व्यक्तियों की बेनी ने अपने भड़ौवा छंदों में खूब ख़बर ली है। एक कृपण व्यक्ति ने अपने पिता के श्राद्ध के अवसर पर बेनी को कुछ दुर्गंधित पेड़े दिये थे। नीरस पेड़े उन्हें पसन्द नहीं आये। अतः उन्होंने पेड़ों के दानकर्ता को संलक्षित कर उसका उपहास प्रस्तुत छन्द में किया है। उनके उक्ति चमत्कार एवं वाग्वैद्ग्ध्यता का परिचय प्रस्तुत पंक्तियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है-

“चींटी न  चाटत, मूसे न सूंघत,
माछी  न  बास ते  आवत  नेरे।
आनि    धरे   जब    ते  घर  में,
तब ते रहै  हैजा परोसिन  घेरे।।
मटिहुँ में कछु स्वाद,मिलै इन्हें,
खात   सो    ढ़ूंढ़त  हर्रे -  बहेरे।
चैंकि  पर्यो  पितु लोक में बाप,
सुपूत के  देखि सराध के पेरे।।”

हास्य-उपहास के उद्वेग में आलम्बन की असंगतियों की प्रधानता रहती है। आलम्बन की उक्त असंगतियाँ शारीरिक, मानसिक, घटना, कार्यकलाप, रहन-सहन, शब्दावली आदि किसी भी स्तर पर हो सकती हैं। अंगुली कटा कर शहीदों में नाम लिखाने की उक्ति को चरितार्थ करते हुए थोड़ा सा दान देकर महादानी कहलाने की आकांक्षा रखने वालों की उस युग में भी कमी न थी। कहा जाता है कि ‘राय जी’ नाम के एक दानदाता बेनी भट्ट को एक हल्की-फुल्की रजाई दे कर के सस्ते में ख्याति प्राप्त करना चाहते थे, परन्तु चारणराय कवि को इतने सस्ते में मना पाना आसान न था। दानकर्ता की चाल को समाज के सम्मुख खोल कर उन्होंने उसे उपहास के कटघरे में खड़ा कर दिया-



"कारीगर कोऊ  करामात करि लायो लीन्ही,
मोलन  की  थोरी  जानि बनी  सुधरई है।

राय जी को राय जी राजाई दई राजी ह्वै कै,

सब    ठौर   सहर   मैं   सोहरत   भई  है।।

‘बेनी’  कवि  पाय के  अघाय रहे   घरी  द्वैक,

कहत   बनै  न   कछु  ऐसी  गति  भई  है।

सांस लेत उड़िगो उपल्ला औ भितल्ला सबै,

दिन   द्वैक   बातिन  को  रुई रह  गई है।।”

बेनी के जीवन प्रसंग से जुड़ी इसी प्रकार की एक और घटना है। ऐसा कहा जाता है कि दयाराम नाम के किसी व्यक्ति ने बेनी को कुछ आम भेंट किए जो उन्हें रास नहीं आए। अतः उन्होंने वक्रोक्ति के माध्यम से दानदाता की ख़बर ले कर हास्य की सृष्टि की है-


"चीटीं की चलावे को,मसा के मुँह आए जाए,
स्वास   की   पवन लगै  कोसन भगत है।

ऐनक  लगाय  मरु - मरु  के निहार जात,

अनु - परमानु  की  समानता  स्वगत है।।

बेनी कवि  कहैं, और कहाँ लौ बखान करौं,

मेरे जान   ब्रह्म  को  विचारबो  सुगत है।

ऐसे आम दीन्हें ‘दयाराम’ मन  मोद करि,

जाके  आगे  सरसों  सुमेर  सी लगत है।।"

उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि ‘बेनी’ ने लखनऊ में भड़ौवों के माध्यम से हास्य की ज्योति जगाने में विशेष कार्य किया। वाग्वैदग्ध्य एवं उक्ति चमत्कार के साथ इनकी रचनाओं में मुहावरों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। भाषा के व्यावहारिक स्वरूप की व्याप्ति उनकी रचनाओं की विशेषता है। आलंकारिकता और मादकता का सन्निवेश रीतिकाल की देन रही है, जो दरबारी संस्कृति और उसमें छिपे फ़ारसी प्रभाव का प्रतिफल है। बिम्बों और प्रतीकों की नवीनता कवि की रचनाओं की विशेषता है जो युगबोध का दिग्दर्शन कराने में सहायक सिद्ध होते हैं। छंदानुशासन में निबद्ध लयात्मकता और अलंकारों की स्वाभाविक उपस्थिति काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि एवं हास्य प्रवणता में सहायक है। कविवर बेनी का हिन्दी हास्य-व्यंग्य परंपरा के विकास में किया गया योगदान काव्य-शास्त्रीय एवं समाज-शास्त्रीय दोनों ही दृष्टियों से मूल्यवान है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता।

01 मार्च 2010

चिंगारी

-डा0 सुरेश उजाला




चिंगारी का प्रतीक है-क्रांति
क्रांति का प्रतीक है चिंगारी,
चिंगारी का काम-
आग लागाना
आग का काम-
राख बनाना


मेरा धंधा-
मेरा काम-जाग्रति
आग के बझानें से पहले-
बन जाता हूं-
चिंगारी


जहाँ भी हो-
आग बन चुकी है-
बुझने से पहले-चिंगारी


दृष्टान्त-
लगती-सुलगती-
दहकती-धधकती-
आग है-चिंगारी




बेलछी, नारायणपुर-
पिपरा, मुजफ्फर नगर-
मुजफ्फर पुर-साढ़ु पुर-
देहुली-जमशेदपुर,
मेहराना,
और
उसके बाद आजतक
न नजीर न लड़ाई


चिंगारी-
आग है, हक़ और सम्मान की
इसे जरूरत है-
सिर्फ हवा की
तब होगी-
तब्दील चिंगारी
आग में-आग राख में


फिर करेगी न्याय-
राख में दबी-चिंगारी,

नेचर का देखो फैशन शो-

                                                                     -डॉ० डंडा लखनवी

क्या       फागुन     की   फगुनाई    है।
हर     तरफ      प्रकृति      बौराई है।।
संपूर्ण        में      सृष्टि         मादकता -
हो      रही      फिरी    सप्लाई    है।।1

धरती       पर     नूतन       वर्दी    है।
ख़ामोश      हो      गई       सर्दी    है।।
भौरों      की      देखो     खाट      खड़ी-
कलियों       में   गुण्डागर्दी       है।।2

एनीमल      करते      ताक   -  झांक।
चल      रहा     वनों    में   कैटवाक।।
नेचर      का      देखो     फैशन     शो-
माडलिंग   कर   रहे   हैं  पिकाक।।3

मनहूसी           मटियामेट          लगे।
खच्चर      भी       अपटूडेट       लगे।।
फागुन      में      काला    कौआ     भी-
सीनियर        एडवोकेट        लगे  ।।4

उस      सज्जन    से  अब आप मिलो।
एक   ही      टाँग    पर     जाता  सो ।।
पहने     रहता     है      धवल      कोट-
वह बगुला  अथवा सी0  एम0  ओ0।।5

इस   ऋतु     में     नित   चौराहों पर।
पैंनाता       सीघों     को       आकर।।
उसको   मत     कहिए   साँड     आप-
फागुन  में  वही  पुलिस  अफसर।।6

गालों      में         भरे     गिलौरे    हैं।
पड़ते    इन      पर    लव’  दौरे  हैं।।
देखो      तो       इनका     उभय   रूप-
छिन  में   कवि, छिन   में  भौंरे हैं।।7

जय    हो   कविता    कालिंदी   की।
जय    रंग -  रंगीली   बिंदी      की।।
मेकॅप   में    वाह   तितलियाँ     भी-
लगतीं    कवयित्री    हिंदी      की।8

ये      मौसम     की    अंगड़ाई    है।
मक्खी    तक    बटरफ्लाई     है ।।
घोषणा   कर    रहे   गधे        सुनो-
इंसान       हमारा      भाई       है।।9
                                      सचलभाष-09336089753