28 मई 2010

राजनैतिक टोटका

                                  -डंडा लखनवी
स्वामी दयानंद सरस्वती महापुरुष थे। उनके हृदय में भारतीय समाज में व्याप्त असमानता और अज्ञानतावादी कैंसर को दूर करने की अतीव उत्कंठा थी। उन्होंने उसका प्रयास किया। उनके तप से समाजिक व्यवस्था में कुछ सुधार भी हुआ परन्तु वे सुधार चिर स्थायी न रह सके। कुछ लोग धर्म और समाज में व्याप्त विद्रूपताओं को संधर्ष करके दूर करने  की अपेक्षा सत्ता की मलाई चाटने में आगे रहते हैं। वे जानते हैं कि धर्म को सत्ता-शीर्ष पर पहुँचने की सीढ़ी बड़े आसानी से बनाया जा सकता है। भारत की भोली-भाली जनता उनके झाँसे मे आ जाती है। आजादी के पहले और आजादी के बाद यह टोटका बराबर अपनाया जाता रहा है। आगे भी इस टोटके को अपनाए जाने की प्रबल संभावनाएं हैं। ऐसे लोग किसी भी सप्रदाय के हों उनसे सावाधान रहने की आवश्यकता है।


25 मई 2010

बबुआ ! कन्या हो या वोट...............

भारतीय संस्कृति में दान को बड़े विराट अर्थॊं में स्वीकारा गया है। कन्यादान और मतदान दोनों में अनेक समानताएं  हैं। कन्यादान का दायरा सीमित होता है वहीं मतदान के दायरे में सारा देश आ जाता है । कन्यादान एक मांगलिक उत्सव है.......मतदान उससे भी बड़ा मांगलिक उत्सव है। कन्यादान करना एक उत्तरदायित्व है.....मतदान करना और बड़ा उत्तरदायित्व है। कन्यादान का उत्तरदायित्व पूर्ण हो जाने पर मन को अपार शान्ति मिलती है। मतदान के बाद आप भी अमन-शान्ति चाहते हैं। कन्यादान के लिए लोग दर-दर भटक कर योग्य वर की तलाश करते हैं परन्तु मतदान के लिए क्या शीलवान (ईमानदार) पात्र  की तलाश करते हैं.......?  यह एक बड़ा प्रश्न है इसका उत्तर आप अपने  दिल  में टटोलिए अथवा इस लोकगीत में खोजिए!

           बबुआ ! कन्या हो या वोट...............

                                         -डॉ0 डंडा लखनवी


बबुआ ! कन्या हो या वोट ।
दोनों  की   गति  एक है बबुआ ! दोनों  गिरे कचोट ।।
                                 õ
कन्या   वरै  सो  पति  कहलावै, वोट  वरै   सो   नेता,
ये   अपने  ससुरे   को  दुहते, वो  जनता   को  चोट ।।
                                õ
ये   ढूंढें    सुन्दर    घर - बेटी,  वे   ताकें    मत -  पेटी,
ये  भी   अपनी गोट   फसावैं, वो  भी   अपनी   गोट ।।
                                õ
ये   भी  सेज  बिछावैं  अपनी,  वो  भी   सेज   बिछावैं,
इतै   बिछै  नित कथरी-गुदड़ी  उतै  बिछैं  नित नोट ।। 
                                õ
कन्यादानी    हर    दिन    रोवैं,  मतदानी    भी    रोवैं,
वर   में   हों  जो   भरे कुलक्षण,  नेता  में   हों   खोट ।।
                                õ
कन्या    हेतु     भला  वर  ढूंढो,   वोट  हेतु  भल  नेता,
करना    पड़े   मगज   में  चाहे   जितना   घोटमघोट ।।
                            õ  õ õ  õ

11 मई 2010

हमार लल्ला कैसे पढ़ी ........

रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ और शिक्षा हमारी मूलभूत आवश्यकताएं हैं। शिक्षा के सहारे अन्य आवश्यकताओं की पूर्ती हो सकती है परन्तु उस पर भी माफियाओं का कब्ज़ा होता जा रहा है। शिक्षा से वंचित रख कर किसी नागरिक को आजाद होने का सपना दिखाना बेइमानी है। इस सत्य को अनपढ़ औरत भी समझती .....उसका दर्द प्रस्तुत लोकगीत में फूटा है।


                          लोक गीत
                                      -डॉ0 डंडा लखनवी

बहिनी!  हमतौ  बड़ी  हैं  मजबूर,  हमार  लल्ला  कैसे पढ़ी ?
मोरा   बलमा  देहड़िया  मंजूर,  हमार  लल्ला   कैसे पढ़ी ??

शिक्षा  से    जन   देव   बनत  है,   बिन   शिक्षा    चौपाया,
शिक्षा   से   सब  चकाचौंध  है,   शिक्षा   की   सब    माया,
शिक्षा  होइगै   है   बिरवा खजूर, हमार लल्ला कैसे पढ़ी ??

विद्यालन   मा   बने    प्रबंधक    विद्या    के      व्यापारी,
अविभावक    का   खूब   निचोड़ै,    जेब   काट  लें   सारी,
बहिनी  मर्ज़  ये  बना है  नासूर, हमार लल्ला कैसे पढ़ी ??

विद्यालय    जब   बना   तो   बलमू   ढ़ोइन  ईटा  - गारा,
अब  वहिके    भीतर   कौंधत   है  होटलन   केर नजारा,
बैठे  पहिरे  पे  मोटके  लंगूर, हमार  लल्ला   कैसे  पढ़ी ??

बस्ता    और   किताबै   लाएन  बेचि    कै   चूड़ी  -  लच्छा,
बरतन - भांडा   बेचि  के लायेन,  दुइ  कमीज़   दुइ  कच्छा,
फिरहूं शिक्षा  का छींका  बड़ी दूर, हमार  लल्ला  कैसे पढ़ी ??

सरकारी    दफ्तर    के    समहे    खड़े   -    खड़े    गोहराई,
हमरे   बच्चन    के    बचपन      का    काटै    परे   कसाई,
कोऊ   उनका   सिखाय  दे शुऊर,  हमार  लल्ला  कैसे पढ़ी ??



08 मई 2010

न्याय और शान्ति विषयक गोष्ठी सम्पन्न


लखनऊ, 7, मई ‘अन्तर्राष्ट्रीय काव्य प्रशिक्षण महाविद्यालय समिति’ एवं ‘योग दर्शन आध्यात्मिक आश्रम’ के संयुक्त तत्वावधान मे ‘न्याय और शान्ति’ विषयक एक विचार-गोष्ठी एवं कवि-गोष्ठी   ई-1/2-अलीगंज हाऊसिंग स्कीम सेक्टर-बी, लखनऊ में प्रख्यात कवि नन्दकुमार मनोचा की अघ्यक्षता एवं डॉ० डंडा लखनवी के संचालन में सम्पन्न हुई। कवि-गोष्ठी का प्रारंभ श्री कुबेर सिंह यादव ने मातृवन्दना से हुआ। चर्चित गजलकार अरविन्द ’असर’ ने एकता और न्याय पर आधारित ग़ज़ल प्रस्तुत करते हुए कहा-‘आदमी इक बात ही आसमां से सीख ले, लाखों तारे हैं वहाँ पर कोई टकराता नहीं।’ न्याय और शान्ति की बात को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ ग़ज़लकार कुवंर कुसमेश ने कहा-’रात-दिन और सुबह-शाम ये उलझन क्यों है? आज सहमा हुआ प्यारा -सा ये गुलशन कयों है??’ कुडलीकार रामऔतार ‘पंकज’ ने कहा-‘पंकज करें उपाय ज्योतिमय बने अनागत। सबमें हो सद्भाव व्यक्ति में भेद करो मत।’ उत्तर प्रदेश मासिक के संपादक डॉ0 सुरेश उजाला ने वर्तमान की समस्याओं के समाधान हेतु कहा-’सभी रास्ते खुल जाएंगे अपने दीप स्वयं बन जाओ।’ विचारक श्री होरीलाल ने ज़िंदगी की उलझनों को तिरोहित करने के लिए दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए कहा-बहुत कोलाहल भरी है टेन जिंदगी की, जो पहुँचा मंजिले मक़सूद वही जीता।’ आचार्य आर0 एस वर्मा ने शान्ति और न्याय से अनुपूरित विचारों को रख कर कार्यक्रम को सार्थकता प्रदान की।
अगले विचारक के रूप में न्याय और शान्ति के पक्षधरों को सचेत करते हुए डॉ0 तुकाराम वर्मा ने कहा-’यह स्वयंसिद्ध है कि उपदेशक को उपदेश देने के पहले उपदेशों को अपने जीवन में पालन करना होता है और यदि उपदेशक ऐसा नहीं करता है तो उसके उपदेशों का कुछ अर्थ नहीं रह जाता है।’कार्यक्रम के सचालक डॉ0 डंडा लखनवी ने प्रासांगिक विषय पर युवा वर्ग का आवाहन किया-‘मुक्त पडे़ हैं पथ बहुतेरे चलने वाले आएं तो । निविड़ निशा में दीपक बन कर जलने वाले आएं तो।’ अंत में न्याय और शान्ति की प्रासांगिकता पर व्यापक रूप से प्रकाश डालते हुए गोष्ठी के अध्यक्ष नन्द कुमार मनोचा ने अध्यक्षीय काव्य पाठ कर कार्यक्रम का समापन किया।
अंत में कार्यक्रम की मेजबान शीला वर्मा ने सभी अतिथियों के प्रति आभार ज्ञापित किया।

मौज-मस्ती में जुटे थे जो वतन को लूट के......

                            -डॉ० डंडा लखनवी 
        
मौज-मस्ती   में  जुटे  थे जो  वतन को  लूट के।
रख  दिया  कुछ नौजवानों ने उन्हें कल कूट के।।

सिर छिपाने की जगह सच्चाई  को मिलती नहीं,
सैकडों    शार्गिद   पीछे   चल   रहे  हैं  झूट  के।।

तोंद  का  आकार उनका  और  भी   बढता  गया,
एक   दल  से   दूसरे   में  जब गए  वे  टूट  के।।

मंत्रिमंडल  से उन्हें   किक  जब पड़ी  ऐसा  लगा-
गगन से  भू  पर गिरे ज्यों  बिना   पैरासूट  के।।

शाम    से   चैनल    उसे   हीरो   बनाने   पे  तुले,
कल सुबह आया  जमानत पे जो वापस छूट के।।

फूट   के   कारण   गुलामी    देश   ये   ढ़ोता  रहा-
तुम भी लेलो कुछ मजा अब कालेजों से फूट के।।

अपनी  बीवी  से  झगड़ते  अब नहीं  वो  भूल के-
फाइटिंग में  गिर गए कुछ दाँत जबसे  टूट  के।।

फोन  पे  निपटाई  शादी  फोन  पे  ही   हनीमून,
इस  क़दर  रहते  बिज़ी  नेटवर्क  दोनों  रूट  के॥

यूँ   हुआ  बरबाद  पानी   एक दिन  वो  आएगा-
सैकड़ों    रुपए   चुकाने    पड़ेंगे   दो    घूट के।।




07 मई 2010

अवधी हास्य के अनूठे हस्ताक्षर : बौड़म लखनवी

                                               -डॉ० गिरीश कुमार वर्मा
साहित्य में उपनाम रखने की परंपरा सदियों पुरानी है। अनेक साहित्यकार अपने वास्तविक नाम की अपेक्षा उपनाम से अधिक लोकप्रिय रहे हैं। इस परंपरा में हिन्दी हास्य-कवि अटपटे उपनाम रखने में अधिक सक्रिय देखे गये हैं क्योंकि मंचीय दृष्टि से उनका अटपटा उपनाम काव्यपाठ करने के पूर्व उनके लिए आधार भूमि निर्मित करने में सहायक होता हैं। इस परंपरा की कड़ी में श्री इन्दरचन्द्र तिवारी का उपनाम ‘बौड़म लखनवी’ हास्य-लेखन से संबद्ध होने का बोध कराने वाला है। इन्होंने प्रचुर मात्रा में हास्य साहित्य की सर्जना की है। श्री तिवारी बाराबंकी जनपद में 30 मई, 1933 को स्वर्गीय कृष्णबिहारी तिवारी के परिवार में जन्मे। इनका बचपन बडे़ संघर्षों में बीता। इनके पैत्रिक गाँव में शिक्षा-दीक्षा की उचित व्यवस्था न होने के कारण होश संभालने पर  इन्हें लखनऊ शहर की ओर प्रयाण करना पड़ा। यहाँ आकर इन्होंने सतत स्वाघ्याय के बल पर हिन्दी-साहित्य में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की। जीवकोपार्जन हेतु श्री तिवारी ने भारतीय थलसेना, पुनर्वास विभाग तथा भारतीय रेलडाक सेवा से संबद्ध रहे और अंत में भारतीय रेलडाक सेवा से सन् 1991 में अवकाश ग्रहण करने के उपरान्त साहित्य-साधना में पूर्णरूपेण रम गए।

लेखन के अतिरिक्त इन्होंने कुछ डाकूमेंट्री फिल्मों तथा नाटकों में अभिनय किया है। लखनऊ दूरदर्शन के कुछ कार्यक्रमों में श्री तिवारी सफल संचालक भी रहे हैं। इनकी उल्लेखनीय काव्यकृति ’बौड़म बसंत‘ में हास्य-व्यंग्यपरक रचनाएं संकलित है। ‘बड़े बाबू’, ‘उल्लुओं ने नहीं पंचों ने’, ‘टेलीफोन’, ‘पड़ोसियों की दोनों फूट जायें’, ‘मँगरे मामा’, ‘भूखा भेड़िया’, ‘स्वाँग’ आदि इनके बहुचर्चित हास्य नाटक हैं। इन नाटकों में कुछ का लखनऊ दूरदर्शन से प्रसारण हो चुका है। हास्य-व्यंग्य साहित्य से इतर कृतित्त्व में ‘हीरककण’ (लघुकथा), ‘जय बँगला’ (उपन्यास), ‘जब बे मौत से मिलने चले (कहानियाँ), ‘विचित्र मानव’, विचित्र जीव-जन्तु (रिपोतार्ज), ‘है प्रेम जगत में सार’ (चंदु) आदि नामक कृतियाँ इनकी बहुआयामी कारयित्री प्रतिभा की परिचायक हैं। बौडम जी ने हास्य-प्रधान बाल रचनाएं भी की हैं। इनकी रचनाएं बाल मन को स्पर्श करके मनोरंजन करने में सहायक हैं। एक बाल रचना से उद्धृत कतिपय पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-


पत्रकार   बन   कर   एक चूहा,

बिल्ली मौसी के ढ़िग  आया।

बोला-‘मौसी! कितने चूहों को

अब    तक      है          खाया?’

मौसी     बोली-    ‘वारे भैया!

मैं      तो      हूँ    सन्यासिन।

तुमको      खा       कर        मैं

हो     जाऊँगी    बनवासिन।।”’

बाल-साहित्य में कुतूहल परक हास्य की सृष्टि करने में बौड़म जी अति कुशल हैं। एक अन्य रचना में वे हँसने के तौर-तरीकों की चर्चा कर बच्चों का स्वस्थ मनोरंजन करते हैं। बाल मनोविज्ञान पर इनकी पकड़ प्रस्तुत उद्धणर में प्रभावशाली रूप में अभिव्यंजित हुई है-

“बच्चो! हो जाओ अब   सावधान,

बौड़म     चाचा    अब   आते   हैं।

चुपके   से    चुपकी   साध   हँसी,

हँसने    की    किस्म   बताते हैं।।

कुछ    लोग    हँसा    करते   ऐसे,

जैसे    बंदर    चिचिहाते        हैं।

कुछ    हँसते   तो    लगता   ऐसे,

जैसे    गीदड़       हुकुवाते       हैं।

तुम    अपना     थूथुन  मोड़ हँसो,

बेधड़क    हँसो,     बेजोड़     हँसो।

पर    इतना     तुमको  ध्यान रहे,

मत अपना   थूथुन तोड़   हँसो।।’’


साधारणतः लोग प्योर दूध से क्रीम निकालने का उपक्रम करते हैं परन्तु बौड़म जी इससे दो कदम आगे बढ़कर सपरेटा से क्रीम निकालने हेतु अपनी हास्यवृत्ति के कारण उद्यत दिखते हैं। इसके लिए ये वीणापाणि माँ सरस्वती जी से यह प्रार्थना करते हैं कि वह इनकी मनोकामनाएं पूर्ण कर दे। तदनुसार निम्नलिखित सवैया छंद में इनकी मनोकामनाओं की असंगति से उपजे हास्य का आस्वादन सहज रूप में किया जा सकता है-

“मन    मानस   हंस    विवेकी   बने,

सपरेटा से     क्रीम   निकाल   सकै।

इमीटेशन   की   छलना   न    छलै,

मुख मां  चुनि मोतिउ  डारि सकै।।

जी दिमाग माँ   गोबर गैस भरी,

उई दिमाग ते छंद  निकारि सकै।

माँ  दया   करि  बौड़म का वर दे,

दस-पाँच ऊ बौड़मी पालि सकै।।”


एक अन्य रचना में बौड़म जी परेशान हाल व्यक्तियों को अपने कष्ट- निवारण के लिए पत्नी की शरण में जाने की सलाह देते हैं, यहाँ कतिपय कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

“जब कोऊ न  पीर  सुनै    तुम्हरी,

तो घरैतिन का तुम ध्यावा करौ ।

महतारी - पिता तुमहीं   सब  हौ।

कहि कै मसका यूँ लगावा   करौ।

उन प्यारी व   सारी   दुलारी कहौ,

इस सारिन   सारी लै आवा करौ।

मनोकामना   पूरी   करै   के  बदे,

कनिया मा लिहे दुलरावा करौ।।”’


बौड़म जी की रचनाओं में विदेशी फैशन, ग्रामीण जीवन की विविध समस्याएं, रूढ़ियों एवं कुरीतियों, राजनीतिज्ञों की पेतरेबाजी, नौकरशाहों के गोरखधंधों आदि पर मृदुहास्य के माघ्यम से खिल्ली उड़ाई गई है। ‘हजरतगंज की चुडैल’, ‘टिलीलिली’, ‘गाँधी जी के तीन बंदर’, ’झंड़ा आरोहण’ प्रभृति इनकी ऐसी रचनाएं हैं, जो कविसम्मेलन के मंचों से खूब सुनी जाती रही हैं। इनकी मनोरंजक शब्दावली सुनते ही आज भी श्रोतागण लोटपोट होने लगते हैं। काव्य के कलात्मक सौन्दर्य के प्रति इनका विशेष आग्रह नहीं है। शब्दों के ठेठ व अनगढ़ स्वरूप को ज्यों का त्यों प्रयोग कर अपने कथ्य को प्रभावशाली बनाने में ये अति पटु हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित कहावतों और मुहावरों के प्रयोग से इनकी व्यंजना-शक्ति सबल हुई है। संप्रति अवधी हास्य आज जिस ओर मुड़ रहा है, कविवर इंदरचन्द तिवारी ‘बौडम लखनवी’ की रचनाओं को उस दिशा का ‘रपट-संकेतक’ माना जा सकता है।

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04 मई 2010

राजनैतिक हारमोन

              

                                    -डॉ० डंडा लखनवी  



देखते     ही    देखते    वो,
एक    फ्लावर   हो   गए।

सिर्फ़ हम ही   क्या  सभी
उनपे  निछावर  हो गए।।

राजनैतिक       हारमोनों
का   असर  तो     देखिए-

आदमी   पहले   थे   अब-
मोबाइल  टावर हो  गए।।

03 मई 2010

कुछ अफसर

               -डॉ० डंडा लखनवी  


उन्हें        सोना       समझते    हैं,
हमें         कांसा     समझते      हैं।


कुछ     अफसर      आफिसों    को
एक   ’जनवासा’   समझते   हैं ।।

उन्हें    फ़रियाद     निबलों       की
समझ    में      ही     नहीं     आती-

सबल    के       ‘शू‘         समझते,
घूस   की    भाषा      समझते हैं।।