-होरीलाल
मानव सभ्यता-विकास के क्रम में
समय-समय पर
आदमी ने रास्तों के किनारे
पत्थर खड़े किए,
निशान बनाए,
उसने जरूर सोंचा होगा---
लोग उधर से गुजरेंगे,
यथा जरूरत संदर्भ लेंगे,
अपनी गति-मति-नियति संवारेंगे,
स्वर्णिम भविष्य गढ़ेंगे।
रास्ते से गुज़रने वाले
राहगीरों ने उन्हें
कट्टर-कठोर-पुराना समझा
उलट दिया,
तोड़ दिया,
मिटाने का प्रयास किया।
उलटे-उखड़े-टूटे
घायल पड़े
मील के उन पत्थरों में से
किसी ने थोड़ी हिम्मत बाँधी,
साहस जुटाया,
दया भाववश
मन में पसरी ममता को
समेटते-संजोते हुए
विनम्रता पूर्वक
गुजरते राही से पूछा-
‘बेटा! आप कौन,
कहाँ से आना हुआ,
अभी जाना कितनी दूर,
और कहाँ?’
राही अवाक् था-
उसका जवाब था-
‘मैं ........
उसने अपने आगे-पीछे
ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं
निगाहें दौड़ाईं
हर तरफ देखा ..........
सब सुनसान-वीरान था,
वह सन्न था
न कोई, कुछ उसके आगे-पीछे
न ऊपर न नीचे,
कोई तो नहीं था-
जिसे वह संदर्भ करता,
बिलकुल मौन था.......
उसके अंतस में गूंजती
उसकी आवाज़- मैं .........
पता-
एशिया लाइट शिक्षा संस्थान,
86-शेखूपुरा कालोनी, अलीगंज,
लखनऊ-226022
29 अप्रैल 2010
22 अप्रैल 2010
माँ......
-राजेन्द्र वर्मा
कभी लोरी, कभी सोहर, कभी गीता सुनाती है|
कभी जब मौज में होती है माँ, तो गुनगुनाती है।
भले ही खूबसूरत हो नहीं बेटा, पर उसकी माँ-
बुरी नज़रों से बचने को उसे टीका लगाती है।
कोई सीखे तो सीखे माँ से बच्चा पालने का गुर,
कभी नखरे उठाती है, कभी चांटा लगाती है।
भले ही माँ के हिस्से में बचे बस एक ही रोटी,
मगर वो घर में सबको पेट भर रोटी खिलाती है।
सफलता पर मेरी माँ घी का दीपक बाल देती है,
कभी असफल हुआ तो वह मुझे ढांढस बंधाती है।
न आता है कभी बेटा, न आती है कभी चिठ्ठी,
फ़कत राजी खुशी की बात सुन माँ जी जुड़ाती है।
रहे जबसे नहीं पापा, हुई माँ नौकरानी-सी,
सभी की आँख से बचके वो चुप आँसू बहाती है।
3/29-विकास नगर,
लखनऊ-226022
कभी लोरी, कभी सोहर, कभी गीता सुनाती है|
कभी जब मौज में होती है माँ, तो गुनगुनाती है।
भले ही खूबसूरत हो नहीं बेटा, पर उसकी माँ-
बुरी नज़रों से बचने को उसे टीका लगाती है।
कोई सीखे तो सीखे माँ से बच्चा पालने का गुर,
कभी नखरे उठाती है, कभी चांटा लगाती है।
भले ही माँ के हिस्से में बचे बस एक ही रोटी,
मगर वो घर में सबको पेट भर रोटी खिलाती है।
सफलता पर मेरी माँ घी का दीपक बाल देती है,
कभी असफल हुआ तो वह मुझे ढांढस बंधाती है।
न आता है कभी बेटा, न आती है कभी चिठ्ठी,
फ़कत राजी खुशी की बात सुन माँ जी जुड़ाती है।
रहे जबसे नहीं पापा, हुई माँ नौकरानी-सी,
सभी की आँख से बचके वो चुप आँसू बहाती है।
3/29-विकास नगर,
लखनऊ-226022
14 अप्रैल 2010
स्वदेशी परिंदे के...............
-डॉ० डंडा लखनवी
परिंदों के खैराती पाए हैं, पर हैं।
सफ़र में हैं अंजाम से बेख़बर हैं ॥
कल "ईस्ट इंडिया कंपनी" ने चरा था,
अब उससे भी शातिर बहुत जानवर हैं॥
उधर उसने कल - कारखाने हैं खाए,
इधर कामगारों की टूटी कमर हैं॥
सियासत के गहरे समन्दर में देखो-
गरीबों को चारा बनाते मगर हैं॥
ठगी, चोरी, मक्कारी, वादाख़िलाफ़ी,
रहे रहबरों में यही अब हुनर हैं?
लगी करने सरकारें भी अब डकैती,
कि इंसाफ़ो - आईन सभी ताक़ पर हैं॥
शहीदों के आँसू उन्हें खोजते हैं,
नए युग के आशफ़ाको-बिस्मिल किधर हैं॥
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjiXlvF79bo9cl5tcALb6quG8F4huRrzelRTVtmUXaI1haRtDGvcEKFmVn9JZm4y-NnrFe8xuqIMXpyc27Ct95qGzjnTWgFMIftZE98UWwAjRdpecMGNNoycCTdgPFpVxM9ysBbgJyEIks/s320/images1.jpg)
परिंदों के खैराती पाए हैं, पर हैं।
सफ़र में हैं अंजाम से बेख़बर हैं ॥
कल "ईस्ट इंडिया कंपनी" ने चरा था,
अब उससे भी शातिर बहुत जानवर हैं॥
उधर उसने कल - कारखाने हैं खाए,
इधर कामगारों की टूटी कमर हैं॥
सियासत के गहरे समन्दर में देखो-
गरीबों को चारा बनाते मगर हैं॥
ठगी, चोरी, मक्कारी, वादाख़िलाफ़ी,
रहे रहबरों में यही अब हुनर हैं?
लगी करने सरकारें भी अब डकैती,
कि इंसाफ़ो - आईन सभी ताक़ पर हैं॥
शहीदों के आँसू उन्हें खोजते हैं,
नए युग के आशफ़ाको-बिस्मिल किधर हैं॥
10 अप्रैल 2010
सबकी नाक
मानव
शरीर का एक
बेहतरीन अंग है-नाक ।
किसी की नाक फुलौरी जैसी,
किसी की नाक फुलौरी जैसी,
किसी की गुलगुले जैसी, किसी की नीबू
जैसी तथा किसी की चीकू जैसी । छोटे-बड़े
कद के भाँति - भाँति के लोग और भाँति - भाँति
प्रकार की नाक । इसकी सुरक्षा कितना बढ़िया कुदरती
इंतिजाम है| .........................................................................
इंतिजाम है| .........................................................................
सबकी नाक
नाक की महिमा निराली,
नाक है तो धाक है।
नाक नीची हो गई
नाक है तो धाक है।
नाक नीची हो गई
समझो प्रतिष्ठा खाक है।।
कोई चीकू समझ कर
इसको न ले जाए उड़ा-
इसलिए आँखों तले
मौजूद सबकी नाक है।।
कोई चीकू समझ कर
इसको न ले जाए उड़ा-
इसलिए आँखों तले
मौजूद सबकी नाक है।।
07 अप्रैल 2010
इनकी नम्बरदारी.......
aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa
-डॉ० डंडा लखनवी
aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa
भाँति-भाँति के माउस जगमें सबकी जयजयकारी।
धरती के कोने - कोने मे इनकी नम्बरदारी।।
साधो इनकी नम्बरदारी।।
माउस मेलों - ठेलों में हैं,
गुरुओं में हैं, चेलों में हैं,
मिलते माउस रेलों में हैं,
कुछ बाहर, कुछ जेलों में हैं,
कुछ माउस घोषित आवारा, कुछ माउस सरकारी।
धरती के कोने - कोने में इनकी नम्बरदारी।।
कम्प्यूटर का माउस - नाटा,
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSG521aWLgTVbxzqaUSn9nL10eMy_lFY7V7-vWxznD5wkO2a4tcvKVO2Uv6QXCdxPKaBpHEyFD4MpiCTdf_1l5kNK1W4wL4hS-6Alf3A-pOOMOgJSJevAu2_hwtVNNutOH-S6KJBrfOyc/s320/mouse3.jpg)
फ्री कराता सैर - सपाटा,
नए समय का बिरला टाटा,
नाचे इनके आगे दुनिया ये हैं महा - मदारी।
धरती के कोने - कोने मे इसकी नम्बरदारी।।
माउस सभी मकानों में हैं,
खेतों में खलिहानों में हैं,
गोदामों - दूकानों में हैं,
कोर्ट - कचहरी थानों में हैं,
सदनों के भीतर बैठे कुछ माउस खद्दरधारी।
दुनिया के कोने - कोने मे इनकी नम्बरदारी।।
जनता को ये डाट रहे है,
मालपुआ खुद काट रहे है,
माउस जो खुर्राट रहे हैं,
भ्रष्ट प्रशासन बाट रहे हैं,
कुछ डंडा अधिकारी माउस कुछ माउस पटवारी।
धरती के कोने - कोने मे इनकी नम्बरदारी।।
माउस थल में, माउस जल में,
माउस बसते हैं दल - दल में,
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjT9N7EdX_szMmzPFJ4jw6JQXNfOmPPQ51D18-nADjTtx3U0W5VmUKf7-u91zc0efI3b7suYqCI2hmpK8AQB1gPrM-QP7Q1K72_wBZki7NA4KimodJfgwJ_LcDU2ZirA-YI3ZNW2byHYLQ/s320/mouse5.jpg)
माउस युग की हर हलचल में,
वैसे नहीं चुना गण-पति ने अपनी इन्हें सवारी।
धरती के कोने - कोने मे इनकी नम्बरदारी।।
राजेन्द्र रंचक के पाँच मुक्तक
(1)
चमन वीरान हम होने न देंगे।
सुकूं दिल का कभी खोने न देंगे।।
लगा लेंगे कलेजे से लपक कर-
किसी मजबूर को रोने न देंगे।।
(2)
हसद को छोड़ दे नादान है तू।
सगी बहने हैं हिंदी और उर्दू।।
जो कागज के बने होते हैं यारों-
कहाँ आती है उन फूलों से खुशबू।।
(3)
दीप उल्फ़त के हर स़मत जलाना होगा।
भाईचारे को मोहब्बत से निभाना होना।।
हिन्दू मुसलिम हो इसाई हो या कोई ‘रंचक’
एक मरकज पे इन्हें आप को लाना होगां।।
(4)
वतन पे आँच आये ये गवारा हो नहीं सकता।
जो दुशमन देश का है वो हमारा हो नहीं सकता।।
जला करते हैं ‘रंचक’ जिनके दिल में दीप नफरत के-
ग़मों से ऐसे लोगों का कनारा हो नहीं सकता।।
(5)
हमें बलिदानियों की जब कहानी याद आती है।
भगत, अशफ़ाक, शेखर की जवानी याद आती है।।
वतन पे कर गए कुर्बान जो हैं जिंदगी अपनी-
उन्हीं वीरों की ‘रंचक’ जिंदगानी याद आती है।।
सचलभाष-09454695431, 09369831446
चमन वीरान हम होने न देंगे।
सुकूं दिल का कभी खोने न देंगे।।
लगा लेंगे कलेजे से लपक कर-
किसी मजबूर को रोने न देंगे।।
(2)
हसद को छोड़ दे नादान है तू।
सगी बहने हैं हिंदी और उर्दू।।
जो कागज के बने होते हैं यारों-
कहाँ आती है उन फूलों से खुशबू।।
(3)
दीप उल्फ़त के हर स़मत जलाना होगा।
भाईचारे को मोहब्बत से निभाना होना।।
हिन्दू मुसलिम हो इसाई हो या कोई ‘रंचक’
एक मरकज पे इन्हें आप को लाना होगां।।
(4)
वतन पे आँच आये ये गवारा हो नहीं सकता।
जो दुशमन देश का है वो हमारा हो नहीं सकता।।
जला करते हैं ‘रंचक’ जिनके दिल में दीप नफरत के-
ग़मों से ऐसे लोगों का कनारा हो नहीं सकता।।
(5)
हमें बलिदानियों की जब कहानी याद आती है।
भगत, अशफ़ाक, शेखर की जवानी याद आती है।।
वतन पे कर गए कुर्बान जो हैं जिंदगी अपनी-
उन्हीं वीरों की ‘रंचक’ जिंदगानी याद आती है।।
सचलभाष-09454695431, 09369831446
04 अप्रैल 2010
दारू छुड़ा दीजिए
-डॉ० डंडा लखनवी
कल शाम इक शराबी गया डाक्टर के पास।
थोड़ा वो परेशान था, थोड़ा था बदहवास।।
बोला वो डाक्टर से- "नमन है जनाब को।
सुनता हूँ आप जल्दी छुड़ाते शराब को।।"
तब डाक्टर ने कहा कि लक्षण बताइए।।
"मैं नुस्खा लिख के दूंगा उसे आप खाइए।।"
बोला शराबी-"प्लीज आप यह न कीजिए।
थाने में बंद दारू मेरी छुड़ा दीजिए।।"
रामऔतार ‘पंकज’ के तीन मुक्तक
रामऔतार ‘पंकज’ के
तीन मुक्तक
(1)
कुछ अभागों के करों में भाग्य की रेखा नहीं है।
खट रहे दिन-रात उनके खटन का लेखा नहीं है।।
परवरिस का हाल बच्चों का भला कैसे बताये-
दिन में जिसने कभी अपना घर तलक देखा नहीं है।।
(2)
प्रिय वस्तु में आशक्ति का भी दायरा है।
श्रद्धेय में अनुरक्ति का भी दायरा है।।
दिल जोड़ने का वक्त है मत जहर घोलो-
प्रिय बन्धुओ! अभिव्यक्ति का भी दयारा है।।
(3)
ज़माने की नज़ाकत को सदा पहचानते रहिए।
कौन अपना-पराया है इसे भी जानते रहिए।।
राह निष्कंट मत समझें छिपे बम हों बहुत मुममिन-
तलाशी नज़र से सदैव दूध भी छानते रहिए।।
पता-५३९क/६५-विमला सदन
शेख पुर कसैला, नारायण नगर,
लखनऊ-२२६०१६
03 अप्रैल 2010
सुरेश उजाला के पाँच मुक्तक
(1)
कर्ज़ अपना चुकाते चलो।
फ़र्ज अपना निभाते चलो।।
यूँ समय की शिलालेख पर-
नाम अपना लिखाते चलो।।
(2)
शत्रु को पछाड़ता रहा।
सिंह सा दहाड़ता रहा।
नूतन बदलाव के लिए-
क्रांति-बीज गाड़ता रहा।।
(3)
कुछ खड़े सवाल आज भी।
जान को बवाल आज भी ।।
कर रहे स्वदेश खोखला-
मुल्क के दलाल आज भी ।।
(4)
फ़न को भी बेचते हैं वे।
मन को भी बेचते हैं वे।।
पेट की हैं मजबूरियाँ-
तन को भी बेचते हैं वे।।
(5)
जिंदगी अनाम हो गई।
हिकमत नाकाम हो गई।।
जनसत्ता नए दौर में-
ठलुओं के नाम हो गई।।
कर्ज़ अपना चुकाते चलो।
फ़र्ज अपना निभाते चलो।।
यूँ समय की शिलालेख पर-
नाम अपना लिखाते चलो।।
(2)
शत्रु को पछाड़ता रहा।
सिंह सा दहाड़ता रहा।
नूतन बदलाव के लिए-
क्रांति-बीज गाड़ता रहा।।
(3)
कुछ खड़े सवाल आज भी।
जान को बवाल आज भी ।।
कर रहे स्वदेश खोखला-
मुल्क के दलाल आज भी ।।
(4)
फ़न को भी बेचते हैं वे।
मन को भी बेचते हैं वे।।
पेट की हैं मजबूरियाँ-
तन को भी बेचते हैं वे।।
(5)
जिंदगी अनाम हो गई।
हिकमत नाकाम हो गई।।
जनसत्ता नए दौर में-
ठलुओं के नाम हो गई।।
01 अप्रैल 2010
हास्य - पर्याय है : कविवर सनकी जी की सनक
(बाएं कविवर श्रीनारायण अग्निहोत्री ‘सनकी’
मध्य डॉ० नरेश कत्यायन तथा दाएं लेखक डॉ० गिरीश कुमार वर्मा)
साहित्यकार का जीवन प्रायः बहुत संश्लिष्ट होता है। जब वह लेखनी उठाता है तो उसके हृ़दय में समाज की पीड़ा होती है। व्यक्तिगत और घरेलू जीवन से ऊपर उठकर अपनी आंतरिक बौद्धिकता से वह संचालित होता है। अपनी चेतना को जब वह सामजिक दायित्त्वों के निर्वहन में समाहित कर देता है, तभी वह सफल कृतियों की सर्जना कर पाता है और उसका नाम सर्जक रूप में उभर कर संसार के समक्ष आता है। हास्य के घनत्व को नाना रूपों से सहेजने में सक्षम श्री श्रीनारायण ‘सनकी’ अवध अंचल के ऐसे ही चितेरे हस्ताक्षर हैं। इनका जन्म कानपुर जनपद के नरवल नामक ग्राम में स्वर्गीय श्री गौरीशंकर अग्निहोत्री अध्यापक के संस्कारवान परिवार में 8 मार्च, सन् 1933 में हुआ था।
इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी में परास्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। लखनऊ में ही स्थित कालीचरण इंटर कालेज में श्री सनकी अध्यापक पद कार्यरत रहे तथा सन् 1991 में अवकाश प्राप्त करने के उपरान्त साहित्य-साधना में इनकी सक्रियता पहले की अपेक्षा अधिक हो गई। हास्यसिद्ध कविवर सनकी में यह विशेषता है कि जब वह कविसम्मेलन के मंच से काव्यपाठ करते हैं तो हँसी के फव्वारे फूट पड़ते और श्रोतागण लोटपोट हो जाते हैं। कविवर सनकी की ‘सनक’ उनके निराली मनःस्थिति की पर्याय है। मूडी स्वभाव के कारण ही वह अपनी कृतियों को प्रकाशित कराने के उत्सुक न थे। जब किसी ने उन्हें प्रकाशित करने का आग्रह भी किया तो वे उसे हँसकर टालते रहे। इस संबंध में उनका वक्तव्य है-‘‘मैंने पुस्तक प्रकाशित कराने के विषय में किसी की बात नहीं सुनी क्योंकि पुस्तकों के प्रकाशन से हानि के अलावा लाभ नहीं है और मैं हानि का कोई कार्य करता नहीं। लेकिन एक दिन श्री अशोक जी ने मुझे बाध्य कर दिया। बोले-‘आप मुझे गुरु मानते हैं। मुझे गुरुदक्षिणा दीजिए।’ मैंने कहा-‘कहिए क्या दूँ?’ बोले-‘अपनी एक कृति।’ मैं मजबूर हो गया।’’ अतः सनकी जी की क्रमशः तीन काव्यकृतियाँ ‘ठिठोली’, ‘सनक’ तथा ‘आओ बच्चो’ सन् 2001 में प्रकाशित हो कर साहित्यप्रेमियों के मध्य पहुँचीं। इनकी अन्य पुस्तकों में ‘इधर की उधर’ (काव्य- संग्रह) तथा ‘अपनी-अपनी दृष्टि’ (लेख-संग्रह प्रकाशनाधीन हैं।
सनकी जी की रचनाओं की विषयवस्तु सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक क्षेत्रों से संबद्ध रहती है। अपने आसपास के परिवेश में लुकीछिपी विसंगतियों का साक्षात्कार कर ये बड़ी अभिनव चारुता के साथ स्वरानुसंधान प्रस्तुत करते हैं। इनकी रचनाएं क्लिष्टता से बोझिल न होकर सरसता और सुबोधता से युक्त होती हैं। इनका हास्य कहीं श्रगार रस के साथ और कहीं वीररस के साथ मंजुल समन्वय स्थापित कर आगे बढ़ता हैं। ‘तुलसीदास’ नामक रचना में ये अपना उत्थान चाहने वाले पतियों को बड़ी नेक सलाह देते हैं। इनकी वचनचातुरी से यह सलाह कितनी हास्यमय हो जाती है, इसे निम्नलिखित सवैया छंद में अनुभव किया जा सकता है-
‘‘घरवाली की सेवा से मेवा मिली,
दुःख आई न पास सदा सुख पइहौ।
जस नीर बिना मछरी तड़पै,
इनके बिन एक घड़ी नहि रइहौ।।
पतिनी के वियोग मा व्याकुल होई,
पछिताय पियार अपार दिखइहौ।
फटकार परी ससुरार मा तौ,
सनकी’ तुमहूँ तुलसी बनि जइहौ ।।’’
इसी क्रम में वियोगी नायक के हाव-भाव को आलम्ब मानकर कविवर सनकी का एक अन्य सवैया छंद प्रस्तुत है, जिसमें आत्मस्थ हास्य की रूपाकात्मक दृश्यानुभूति का कितना विनोदपूर्ण परिचय उद्घाटित हुआ है-
‘‘जब से तुम भैया के संग गईउ,
तुम्हरी नित याद सतावति है।
तकिया सिर मा नाहि सीने मा है,
हमै रातनि नींद न आवति है।।
घनघोर घटा बिजुरी चमकै,
या पड़ोसिन सावन गावति है।
हम तो विरहाग्नि मा वैसे जरी,
या जरे पर लोन लगावति है।।‘’
महाकवि तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ की एक चैपाई में कहा गया है कि ‘मोह न नारि, नारि के रूपा’। सौतिया डाह के प्रसंग में गोस्वामी जी के उक्त उक्ति के प्रमाण में उपर्युक्त छंद में कवि की सम्मति कुछ वैसी ही है। दाम्पत्य जीवन में अन्य स्त्री के अनधिकृत प्रवेश से पत्नी का पति से रुष्ट होना स्वाभाविक है। पति का देर रात घर वापस आना पत्नी के संशय को बढ़ाता है। यदि उसके संशय को पुष्ट करने वाले कुछ और लक्षण मिल जाएं तो ‘कोढ़ में खाज’ की स्थिति बन जाती है। ऐसी विषम परिस्थिति सनकी जी के साथ भी उपस्थित होती है। अतः पत्नी की परिहास करती वृत्ति को ये अधोलिखित शब्दों में व्यक्त करते हैं-
‘कवि गोष्ठी मा जात नहीं तुम हौ,
हमै चार सौ बीस पढ़ावति हौ।
तुम राति मा जाति हौ जाने कहाँ,
अधिरात बिताय कै आवति हौ।।
हमै रोजु बड़े - बडे़ बार मिलैं,
चिपकाय कै कोट मा लावति हौ।
इतने बड़े बार कहाँ तुम्हरे,
जिन्हें आपन बार बतावति हौ।’
पति-पत्नी के बीच यह परिहास एकतरफा नहीं है। कवि भी अवसर मिलते ही पत्नी से ठिठोली करता है। उसके वचनचातुर्य में परिहास की झाँकी द्रष्टव्य है-
‘‘पलका पै चढ़ी तुम बैठि रहेव,
उठतै तुमका हम चाय पियैबे।
सहिबे फटकार तुम्हारि प्रिये,
अब आँख नहीं हम दाँत दिखैबे ।।’’
प्राचीन कहावत है कि ‘हाथी पालना आसान है परन्तु उसे जेवांना अत्यन्त कठिन’। उसी प्रकार ‘विवाह’ कर लेना सरल है किन्तु वैवाहिक दायित्त्वों का निर्वहन नितान्त दुष्कर है, क्योंकि अनियोजित परिवार के मुखिया के लिए गृहस्थी चलाना दुरूह हो जाता है। सनकी जी ने इस समस्या की ओर जन-सामान्य का ध्यान आकृष्ट किया है। प्रसंगानुसार एक रचना के अधोलिखित चरण में उपहास अवलोकनीय है-
‘‘छोटकवा नाक बहावत है,
मझिलकवा बईठे खावत है,
ननकउना नाही स्वावत है,
हमका दिन-रात जगावत है,
उई सोठ छुहारा खाय रहीं,
हम सबका लिए खेलाय रहे।
हम शादी करि पछिताय रहे।।’’
शिक्षा एवं संस्कार से विहीन युवक परिवार एवं समाज दोनों के लिए बोझ बन जाते हैं। ऐसे युवकों में अनेक प्रकार के दुव्र्यसन घर कर जाते हैं और वे श्रम से विरत हो कर निठल्लेपन के आदी हो जाते हैं। मानवीय दायित्त्वों से विमुख ऐसे युवकों की सनकी जी ने अच्छी खिल्ली उड़ाई है। कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं-
‘दिन भर पान-मसाला फाँकौ,
प्लेटफार्म मा जेबै झाँकौ,
पास न कौड़ी कानी।
बबुआ किये रहौ मनमानी।’’
कविवर सनकी की दृष्टि व्यापक है। वे सामाजिक विसंगतियों के गूढ़ अध्येता हैं। इनकी बुढ़ापा नामक रचना में वृद्धों पर बड़ी मार्मिक टिप्पणी है और युवावस्था के भटकाव और दुष्कर्मों की ओर संकेत भी है -
‘‘जवानी में अंधा था।
मजबूत टाँगें थीं मजबूत कंधा था।
बुढ़ापे में दिखाई देता है -
जवानी में अंधा था।’’
इस मुक्तक में आयु के दोनों पनों की तुलनात्मक स्थिति को मुहावरों के माध्यम से प्रस्तुत कर सहज विनोद की सर्जना की गई है। कविवर सनकी जी की साहित्य-सर्जना का मुख्य प्रयोजन अनुरंजन रहा है। अपने प्रयोजन की सफलता हेतु वे संप्रेषणीयता की रक्षा में सदैव तत्पर रहे हैं। इस मंतव्य के प्रतिपादन में उन्होंने लिखा है-‘‘हास्य रस कै कविता लिखै मा यो ध्यान रक्खै का परत है कि श्रोता आसानी से समझि लेय। अगर कविता श्रोता के समझ मा न आयी तो वो खिलखिलाय कै हँसी कइसे। हँसावे के ख़ातिर बहुत सीधी बात कहै का परत है। कविता मुहँ से निकरै श्रोता खिलखिलाय परै।’’ एक अन्य स्थल पर अपने आत्म- कथ्य में इन्होंने स्वीकार किया है-‘‘आपनि कमी अपने का नहीं देखाई परति। हमारि कमी तो दूसरै बताय सकत हैं। वइसे तो हम सनकी मनई। सनक मा जो आवा लिखि गयेन। हम तो यो सब सबका हँसावै ख़ातिर लिखा है।’’ इनके वक्तव्यों की पुष्टि निम्नलिखित कथन से होती हैं-
‘‘ हमरी कविता कलुवा समझै,
हम रोवत श्रोता हँसाय रहे हैं।
नहि बाँटित दूध, दही, रबड़ी,
पर यौवन खूब बढ़ाय रहे हैं।’’
कृषकों और श्रमिकों के बीच का व्यक्ति ‘कलुआ’ प्रस्तुत रचना में समाज के आम नागरिक का प्रतिनिधित्व करता है। कवि की उसके प्रति पूरी सहानुभूति है इसलिए अपनी रचनाओं के माध्यम से वह उसका स्वास्थ्यवर्धन करता है। देश के करोड़ों नौजवानों के पास काम नहीं है। बेरोजगारी से अभिशप्त युवा आक्रोशित होकर धरना, प्रदर्शन, अनशन, हड़ताल इत्यादि करते हैं। इससे जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाता है और शासन-प्रशासन की कुंभकर्णी नींद में व्यवधान पड़ता हैं। अतः दमनात्मक कार्यवाहियाँ तेज हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में सनकी जी कुशासन के विरुद्ध संघर्षरत युवाओं के साथ खड़े दिखाई पड़ते हैं जिसकी पुष्टि इनकी गज़ल के शेरों में संन्निहित व्यंग्य से होती है, यथा-
‘‘हम तो भूखे हैं, हमें नींद नहीं आती है।
आप कहते हैं उनकी नींद न हराम करें।
हमारा पेट जो भर जाय तो हम भी सोयें,
हम भी आराम करें वो भी आराम करें।।’’
भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देने वाले सेनानियों ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि उनके बलिदानों के बाद देश की ऐसी स्थिति होगी। सत्ता की बागडोर जिन लोगों के हाथों में आयी वे भी उसी राह पर चल पडे़ जिस राह पर परदेशी हुकूमत चला करती थी। सजग व्यंग्यकार देश की वर्तमान दशा को देखकर अत्यन्त क्षुब्ध होता है। अतः व्यवस्था परिवर्तन के लिए वह युवकों का आह्वाहन करता है। इनके एक मुक्तक में व्यंग्य का निहितार्थ स्पृहणीय है-
‘‘मेरे प्यारे शहीदों के ओ साथियो!
जो किया आज तक अब वही कीजिए।
गोरे लोगों को तुमने सही कर दिया,
काले लोगों को भी अब सही कीजिए।।’’
आम आदमी के लिए न्याय आज आकाश के तारे तोड़ने जैसा हो गया है। अदालती कार्यवाही में धन की पैठ बढ़ जाने से निर्धनों के लिए न्याय और भी दुरूह और दुष्प्राप्य हो गया है। सनकी जी ने न्यायालय के परिवेश का सूक्ष्म निरीक्षण बहुत निकट से किया है। एक क्षणिका में उन्होंने ‘अदालत’ शब्द को परिभाषित कर व्यवस्था का कटु उपहास उड़ाया है, यथा-
‘मुंशी - वकील।
गिद्ध - चील।।
झूठे गवाह ।
दोनों तबाह।।
पेशकार उन्नीस।
न्यायधीश बीस।।
झूठ शत प्रतिशत्।
आर्डर, बोलिए मत।
अदालत ।’’
लोकतंत्र में समाचारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्विवादित है, परन्तु कुछ समाचार पत्र निहित स्वार्थों के कारण अपने दायित्त्वों के प्रति उदासीन रह कर ऐसी ख़बरों को प्रमुखता देते हैं, जिनका सार्वजनिक हित से विशेष या रंचमात्र सरोकार नहीं रहता। अतः सनकी जी ने दैनिक समाचार पत्रों की उक्त प्रवृत्ति की खि़ल्ली उड़ाते हुए लिखा है -
‘‘चाकू , डाकू,
मार-काट, अपहरण,
बलात्कार,
दैनिक समाचार।।’’
त्योहार व्यक्ति के जीवन में सुविचारों का संचार करके दुर्व्यसनों से विरत रहने हेतु प्रेरित करते हैं, परन्तु अज्ञानतावश मनुष्य कुरीतियों, अंधविश्वासों एवं दुर्व्यसनों के चंगुल में फँस जाता है तथा जो नहीं करना चाहिए वह करता रहता हैं। सर्वविदित है कि ‘दीपावली’ हमें अंधकार से प्रकाश की ओर चलने हेतु प्रेरित करती है। इसके विपरीत कुछ लोग जुवाँ जैसे दुव्र्यसनों में लिप्त रहते हैं जो कि नितान्त निन्दनीय है। कवि ने व्यंग्य के माध्यम से जुवाँड़ियों के मर्म पर करारी चोट कर सहित्यिककार-धर्म का निर्वहन किया है। उदाहरणार्थ कवि की चिन्ता निम्नलिखित अवतरण में द्रष्टव्य है-
‘‘दिवाली में दिवाला निकल जाता है।
तिजोरी का मसाला निकल जाता है।।
औरतों के हार निकल जाते हैं ।
कान का बाला निकल जाता है।।’’
इसी क्रम में होली का उल्लेख करना यहाँ प्रासंगिक है। इस अवसर पर प्रचलित फूहड़ता की ओर कवि जनसामान्य का ध्यानाकर्षण करता है। इस प्रसंग में कवि की वक्रोक्तिमयी हास्यसर्जना कितनी प्रभावपूर्ण है-
‘‘होली का त्योहार होता निराला है।
बड़ों-बड़ों को फटीचर बना डाला है।।
मैंने भी सूट-बूट रख दिये बक्से में।
एक फटा कुर्ता-पजामा निकाला है।।’‘
कविवर सनकी की अनेक ऐसी रचनाएं है जिनमें उन्होंने सामाजिक विसंगतियों को उकेर कर हास्य-व्यंग्य की प्रभावकारी सृष्टि हुई है। सरल अवधी भाषा में कवि सम्मेलन के मंचों पर इनका नाटकीय प्रस्तुतीकरण अवधी अंचल में रहने वाले श्रोताओं को अत्यधिक प्रभावित करता है। सनकी जी की शब्द सम्पदा विशाल है। उदाहरण के तौर पर इन्हांेने रिसियाय, लहकौर, मसवाई, सिसियात, महतारी, बियाहन, सेजा, रिसानी, द्याहैं, सोहर, इहौ, फटफटाती, बिगारौ, बेटिया, अन्ट औ सन्ट, बउराय, अडँधाय, कुकुवात, लउटाय, अउटेन, धरनी, मेहरिया, पछितइहौ, तखन, खिचरी, दच्छिना, टटरी, ब्वालौ, परिहै, निकचँय, सफाचट्ट, छीछालेदर, भोरहर,जरावत आदि शब्दों के प्रयोग द्वारा अपने विचारों को सफल अभिव्यक्ति प्रदान की है। अवधी लोकोक्तियाँ एवं मुहावरों का प्रयोग भी इन्होंने बड़ी सफलता और सहजता के साथ किया है। इनके कुशल प्रयोग से भाषा में प्रवाह और सौन्दर्य में वृद्धि हुई है। शब्दों की लक्षणा-व्यंजना, शक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, विभाव व लोकोक्तियों, मुहावरों के सुगढ़ प्रयोग से भावाभिव्यक्ति प्रभावकारी बन गई हैं। अलंकारों की सहज उपस्थिति भाषा-सौष्ठव में सहायक सिद्ध हुयी है। निष्कर्षतः लखनऊ के वर्तमान मंचीय हास्यकवियों में श्रीनारायण अग्निहोत्री ‘सनकी’ अग्रणी हैं। अपनी अप्रतिम मेधाशक्ति से ये हास्यव्यंग्य साहित्य-संवर्धन में सतत सक्रिय है। इनकी अनुरंजनपरक रचनाएं सहृ्दय श्रोताओं को भावविभोर कर देती हैं। कितने ही निरक्षर लोगों ने इनकी रचनाओं का रसास्वादन करने के लिए अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। इस तरह वे आम श्रोता में साक्षरता के प्रति लगाव उत्पन्न करने में सफल होते हुवे हैं। इस प्रकार इनकी शिक्षा एवं साहित्य के प्रति सामाजिकों में उत्पन्न की गई प्रेरणा लोककल्याण की दृष्टि से मूल्यवान है। लखनऊवासियों को इन पर गर्व हैं।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)