22 जून 2011

लोकपाल होगा नहीं, होगा ऐप्रिल-फूल

                                                 - डॉ० डंडा लखनवी


जब   चरित्र   निर्माण   की,  बात   गए  सब  भूल।
लोकपाल   होगा    नहीं,  होगा   ऐप्रिल  -   फूल॥1

औषधि    भ्रष्टाचार    की,  बस   चरित्र - निर्माण।
ये   ही   रक्षा - कवच  है, यही   राम   का   वाण॥2


मैंने     पूछा   प्रश्न    तो,  साध   गए    वे    मौन।        
लोकपाल  कल   दूध  का,  धुला   बनेगा   कौन?3 

जहाँ      राज्य - संसाधनों,   का  हो  बंदर  -  बांट।
वहाँ     कष्ट   बौने   सहें, मारे   मौज़    विराट॥4




डेमोक्रेसी   बन   गई, दे - माँ - कुर्सी  - जाप।
जटिल रोग  उपचार  में, साधू झोला  छाप॥5

चोट कहाँ  है  कहाँ   पर, चुपड़  रहे वो   बाम।
यूँ  वोटर की शक्ति 
वे,  कर   देंगे  नीलाम॥6

 




निर्णय   करें    विवेक    से,  मुद्दा   बड़ा     ज्वलंत।
जनता के प्रतिनिधि  प्रमुख, याकि स्वयंभू  संत॥7


रहा     अंधविश्वास    का,   विज्ञानों      से     बैर।
 कदम  बढ़ाता  ज्ञान जब , छलिया   खीचें   पैर  ॥8

                                     


09 जून 2011

भ्रष्टाचार के संस्कार घर से पड़ते हैं

                                         -डॉ० डंडा लखनवी

 
प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु का कथन है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या मनुष्य जन्मजात सामाजिक प्राणी है? सच बात तो यह है कि मनुष्य जन्मजात सामाजिक प्राणी नहीं है। वह शिक्षा से संस्कारिक होकर के सामाजिक बनता है। उसे सामाजिक बनाने के लिए हमारे यहाँ स्कूल, कालेज, प्राथमिक पाठशालाएं हैं। पूजागृह /  देवालयों की देश भर में कमी नहीं है। टी०वी० चैनलों पर धार्मिक उपदेश देने वाले लोग आदमी को चरित्रवान बनाने की कवायद में चौबीस घंटे व्यस्त रहते हैं। मीडिया भी समाज को जगाने के लिए खूब बेचैन रहता है। कुछ एजेंसियाँ तो इस कार्य को सदियों से कर रही हैं। अरबों-खरबों रूपए का बजट मनुष्य के चरित्र को सवांरने में व्यय हो जाता है। कुत्ते की दुम फिर भी टेढ़ी की टेढ़ी बनी हुई है। भ्रष्टाचार का ग्राफ दिनों-दिन क्यों चढ़ता चला जा रहा है। यह विचारणीय विषय है।

आजकल हमलोग भोग को कसकर पकड़े हुए हैं उसे और मजबूती से पकड़ने के लिए योग का सहारा ले रहे हैं न्याय के बिना भोग और योग दोनों निरंकुश हो जाते  हैं, पतित  हो जाते  हैं जहाँ न्याय है, वहां चरित्र है भ्रष्टाचार के संस्कार सबसे पहले घर से पड़ते हैं। हमने अपनी आराधना पद्धति से चरित्र सुधारने की बात को हासिए पर पहुँचा दिया है। ईश्वर सबके घर-घर जाकर चरित्र नहीं सुधरेगा। इस काम के लिए वह अनुबंधित नहीं है हम ईश्वर से अपने चरित्र को सुधारने की याचना नहीं करते हैं, उसे हम भूला बैठे हैं मनचाही मुरादें खूब माँगते रहते हैं। चढावा चढाते हैं और काम बनवाते हैं। वह हमारा प्री-पेड सेवक नहीं है। उसकी गरिमा का ध्यान रखिए। बचपन में उत्तीर्ण होने की कामना से विद्यार्थी चढ़ावा चढ़ाता है। भगवान भरोसे सफलता मिल जाती है तो हौसला बढ़ जाता है। और काम के लिए और चढ़ावा चढ़ाता है। इस तरह उसके श्रम-हीन जीवन की ओर कदम निकल पड़ते हैं। बड़े होकर आदत पड़ जाती है। प्रोफेशनल बन जाता है तो बड़े काम बनवाने के लिए वह बड़ी रिश्वत देता है। यह सब करते हुए उसे शर्म भी नहीं आती है। ऐसा विकृत हमारे सामाजिक जीवन का ढर्रा बन चुका है

संसार भर में व्यवस्था परिवर्तन की आंधी चल रही है। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है वहां भी उसकी माँगें उठ रही हैंईश्वर का एक नाम प्रभु  हैलोकतांत्रिक-व्यवस्था में प्रभुता सदैव किसी एक व्यक्ति की नहीं रहा करती है प्रायः जिन लोगों को प्रभुता सहज में मिल जाती है वे उसे साध नहीं पाते हैं। ख़ुद को ही ख़ुदा मान बैठते हैं। चढ़ावे को सेवा-शुल्क समझने लगते हैं। यह सामाजिक अशांति का एक प्रमुख कारण है। जिसका निराकरण योजनाबद्ध ढंग से तत्काल किये जाने की आवश्यकता है

04 जून 2011

आस्था को अग्नि-परीक्षा देने से मत रोकिए

                                               -डॉ० डंडा लखनवी

आजकल आस्था का ढ़ोल बड़ी जोरों से पीटा जा रहा है। आम जनता मीडिया के प्रवाह में बह जाती है। जब होश आता है तब बड़ी देर हो चुकी होती है। आस्था यह एक संवेदनशील मुद्दा है। इस पर गंभीरता-पूर्वक विचार किए जाने की आवश्यकता है। व्यक्ति की आस्था उसका नितांत निजी विषय है। किसी की आस्था से  छेड़छाड़ करने का किसी को हक़ नहीं होता है। यह दिल का और घर की सीमा का विषय है। जब आस्था घर की चाहारदिवारी से बाहर आ जाती है तो वह समुदायिक विषय-वस्तु बन जाती है। उसके घरके बाहर आने से अनेक लोग प्रभावित होते हैं। ऐसी दशा में उसे सत्य की कसौटी पर कसे जाने की आवश्यकता होती है। अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो कुछ व्यकित्यों की आस्था जाने-अनजाने पूरे समुदाय टोपा बन जाती है। वह टोपा सबके सिर पर फिट आए यह कैसे संभव है? देश आस्थाओं से नहीं कानून-व्यवस्था से अनुशासित होता हैआस्था और पाखंड दोनों अलग- अलग चीजें हैं। इन दोनों में आसानी से रिस्ता बनाया जाता रहा है। आस्था अगर शहद है तो पाखंड विष है। आप दोनों को एक साथ नहीं मिला सकते हैं।

पिछले कई महिनों में अखबारों में ऐसे समाचारों को आपने पढ़ा है। जिनमें साधु-वेश में आस्था के नाम पर पाखंड़ियों ने महिलाओं को फंसाया और बलात्कार किया। पकड़े जाने पर उन्होंने अपनी हवस का शिकार बनाए जाने बातें स्वीकार कीं। आस्था के नाम पर पशुबलि और नरबलि चढ़ाए जाने के समाचार यदा-कदा आज भी सुर्खियों में आते रहते  हैं। आस्था के नाम पर वाजिब कीमत चुकाए बिना भू माफिया सार्वजनिक जमीन को लूट रहे हैं। जन-सहयोग से वे पहले जमीन घेरते है और बाद में उसे निजी संपत्ति बना लेते हैं। यह काम सुनियोजित तरीके से अविकसित क्षेत्रों के चौराहों के निकट खूब होता है। जब क्षेत्र विकसित हो जाता है तो उस स्थान को व्यावसायिक बना दिया जाता है। ऐसी आस्था से कुछ लोग लाभ की स्थिति में आ जाते है किन्तु को कुछ के हिस्से में हानि ही हानि आती है। आस्था के नाम पर यह सामुदायिक हितों पर कुठाराघात  है। यह कैसी आस्था है? आस्था निजी स्वार्थों की कठपुतली नहीं है। इसकी ओट में जो लोग अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं वे उनका यह प्रयास रहता है कि समाज में विवेक-शून्यता बनी रहेआस्था कभी किसी से अपनी आँख, मुंह, नाक, कान बंद करने के लिए नहीं कहती है। वह सत्य की आँच से घबराती भी नहीं है और न वह अग्नि-परीक्षा देने से कतराती है। आस्था अग्नि-परीक्षा से और चमकती है। आस्था को अग्नि-परीक्षा देने से मत रोकिए। उसे संसार के सामने असली कांति के साथ आने दीजिए। 

इस संबंध में मुझे एक कथा घटना याद आ गई- "बेसिक कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे को एक दिन अध्यापक ने पढ़ाया कि गंगा नदी हिमालय पर्वत से निकलती है। अगले दिन वह बच्चा अपनी माँ के साथ धार्मिक प्रवचन सुनने जाता है। वहाँ बताया जाता है कि गंगा भगवान शंकर की जटाओं से निकलती है।" अब आप बताएं- "बच्चा अध्यापक की बात माने अथवा उपदेशक की? यह प्रश्न उससे प्रतियोगी परीक्षाओं आगे पूछा जाएगा तो वह क्या जवाब देगा?"