25 अप्रैल 2011

*****जनसेवा की शपथ

                                              - डॉ० डंडा लखनवी


अपने यहाँ मिल्क-बार नहीं हैं, तो न सहीबार तो हैं। उनके होने से कौन सा पहाड़ टूटा जा रहा है। रही सेहत की बात तो उसके लिए योजनाकारों ने जगह-जगह  विदेशी शराब के ठेके खुलवा ही दिए हैं। दारू का ज़ायका बढ़ाने के लिए मछली-मुर्गा की फार्मिंग चल ही रही हैं। रह गया सुअर, उसकी महानता के कहने ही क्या? जब देववाणी संस्कृत वाले उसे बा-राह कहते हैं तो जनवाणी हिंदी वालों की क्या बिसात कि वे उसे बे-राह कह सकें।
 
वैज्ञानिकों ने तो बारहों में अनेक खूबियाँ ढ़ूंढ निकाली हैं। उनका कथन है-‘बाराह गंदी जगहों पर रहते हैं।अपने पांडे का अपना बाराह-पुराण है। वे कहते पूछते हैं कि गंदगी कहाँ नहीं है? उदाहरण रूप में राजनीति को ही लेलें। वहाँ कौन स्वच्छता के झंडे फहर रहे हैं, रहने वाले वहाँ भी रह लेते हैं। बाराहों के व्यवहार-विज्ञान पर वैज्ञानिकों का विचार है-‘‘वे राह चलते-चलते पलटा मार जाते हैं। उनकी इस हरकत से असावधान लोग चोट खा जाते है।पांड़े कहते हैं-’’राजनीति के बाराह तो रोज़ ही पलटा मारते रहते हैं। कब किस बात को कह कर मुकर जाँय इसे कौन जानता है? वैज्ञानिकों के अनुसार- ‘‘बाराह के बाल सीधे और सख़्त होते हैं। उन्हें मनचाहे आकार में मोड़ना आसान नहीं होता।‘‘ पांड़े का दावा है कि-‘‘राजनीति के बाराहों के बाल कौन बड़े़ मुलायम होते है?’’ वैज्ञानिकों का मत है-‘‘बाराह की त्वचा में चर्बी की मोटी-मोटी पर्तें होती हैं। पांड़े प्रश्न करते हैं-‘‘राजनीति के बाराहों के गर्वीले और चर्बीलेपन पर क्या किसी को संदेह है?  

वैज्ञानिक कहते हैं-‘‘बाराह एक-दूसरे पर खूब कीचड़ उछालते हैं।’’ पांड़े का कथन है-‘राजनीति के बारहों का स्वभाव भी तो ऐसा होता है। उन्हें एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते और थूकते हुए किसने नहीं देखा ?’ पशु-विज्ञान में हुए नए शोधों से यह तथ्य प्रका में आया हैं कि बाराहों के रीर में दो प्रकार के वायरस पलते हैं। एक से मलेरिया और दूसरे से इंसेफेलाइटिस फैलता है। पांडे को इसमें भी अद्भुत समानता दिखी है। उनका कथन है कि राजनीति के बाराहों पर भी दो प्रकार के वायरस पलते हैं। एक धर्मवाद के वायरस फैलाते हैं और दूसरे जातिवाद के वायरस फैलाते हैं।
 
कई हरों में इंसेफेलाइटिस के वायरस आजकल डिस्को-डांस कर रहे हैं। उनकी घीगा-मस्ती और उधम-चैकड़ी से सैकड़ों नौनिहालों के प्राण-पखेरू उड़ चुके हैं। संसार भर में अपनी थू-थू कराने वाले उग्रवादी संगठन अलक़ायदा की भी एक नीति है। वह जब कोई वारदात करता है तो अलजजीरा नामक टी0वी0 चैनल के माध्यम से अपनी जि़म्मेदारी को कबूल कर लेता है। एक राजनीति के बाराह-गण ठहरे। सैकड़ों बच्चों के मौत के मुं में चले जाने के बाद जि़म्मेदारी लेने के लिए आगे नहीं आते हैं। पाडे़ कहते हैं -‘‘वे कोई उग्रवादी थोड़े हैं, न उन्हें पागल कुत्ते ने काटा हैआगे आएं जि़म्मेदारी लें और इत्तिफ़ा  दें।

.आजकल सार्वजनिक संस्थाएं विविध प्रकार के वायरसों की गेस्टहाऊस बन कर रह गई हैं। ढ़ीठ वायरस उनमें शरणार्थियों की तरह आते हैं और बाप की प्रापर्टी समझ कर क़ाबिज़ हो जाते हैं। वे डाक्टरों से नहीं डरते हैं अपितु डाक्टर लोग उनसे दूर भागते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के वायरस कुछ ज्यादा ही लग्गड़ हैं। इसलिए समझदार चिकित्सक वहाँ जाने से सदैव  बचते हैं। वे वहाँ जाएंगे और ही वहाँ के वायरसों से उनका आमना-सामना होगा। 
 
धवलता डाक्टरों के चऱित्र और वस्त्रों से टपकती है। उनकी उज्ज्वलता पर प्राइवेट-प्रैक्टिस का आरोप लगाना सरासर अन्याय है? जाँच होगी तो आरोपी अपना सिर पीटते रह जाएंगे देख लेना। चिकित्सकों की बेल होगी, जेल नहीं। ऐसे उज्ज्वल चिकित्सकों के रहते हुए कोई कैसे कह सकता है कि इंसेफेलाइटिस की मार से रामभरोसे अस्पताल में कराहता है। राजनैतिक बाराहों के वस्त्रों में तो वैसे भी बड़ा टिनोपाल रहता हैं। उन पर किसी प्रकार आरोप लगाना सूरज के मुख पर थूकना है। इसके लिए ये लोग हरगिज जिम्मेदार नहीं हैं। जनसेवा की सच्ची शपथ लेने का चलन राजनीति  में भी है और सच्ची ओथ चिकित्सक भी लेते हैं।  

 

20 अप्रैल 2011

*****ईमानदारी की सेल

                        -डॉ० डंडा लखनवी


चित्र : गूगल से साभार
आज हर तरफ अन्ना-अन्ना हो रहा है। मेरा इस शब्द से बड़ा लगाव रहा है। बचपन में अधन्ना से परिचय हुआ। पॉकेटमनी के रूप में पिता जी दिया करते थे। तबके बालक अधन्ना पा कर प्रसन्ना-प्रसन्ना रहते थे।

आगे चल कर प्रसन्ना नाम कानों में गूँजने लगा। इसमें भी अन्ना की अनुगूँज है। क्रिकेट मैच आज की तरह पहले भी होते थे किन्तु तब मैच  कानों से देखे जाते थे। जैसे ही कोई विकेट चटकता लोग ताली बजा कर झूमने लगते। उनके मुख से बरबस निकल पड़ता था- वाह प्रसन्ना! वाह प्रसन्ना! । प्रसन्ना और अन्ना में विचित्र समानता है। वे क्रिकेट के विकेट चिटकाते थे और ये भष्टाचारियों  के विकेट। 


जंतर-मंतर को कोप-स्थल बनाने वाले अन्ना पर आजकल मीडिया का बड़ा फोकश है। वे हजार अन्ना में एक हैं। उनका अन्ना हजारे नाम वैसे ही नहीं पड़ा है। धवलता मात्र इनके वस्त्रों में नहीं, चरित्र में झलकती है। इनके पास उपवास नामक शक्तिशाली हथियार है। इसके प्रयोग करते ही प्रशासनिक हलके में सुनामी आ जाती है। अपने हथियार का परिक्षण ये प्राय: करते रहते हैं। भ्रष्ट-कुर्सी हिलाना इनका पसंदीदा शौक़ है। हमारे यहाँ राज्यपाल, सींचपाल, लेखपाल पहले से हैं। सब के सब अपने-अपने तरह से भ्रष्टाचार को उखाड़ते हैं। अब लोकपाल बिल बनने जा रहा है। कुछ लोग इस बात से खुश हैं कि बिल बनवाने का ठेका अन्ना के पास है। माना लोकपाल बिल बन गया। चरित्र के बिना फिर समस्या आएगी। दूध का धुला लोकपाल कहाँ से लाओगे और उसे बहती गंगा में हाथ धोने से कौन रोकेगा?

मनुष्य नामक जीव की पशुता दूर करने
के लिए पाठशालाएं, कोतवाली, अदालतें तथा जेल हैं। पूजाघरों की देश भर में कमी नहीं है। टी०वी० चैनलों पर उपदेशकों की भरमार है। सभी बेचैन हैं आदमी को चरित्रवान बनाने में। फिर भी ढ़ाक के तीन पात। हर तरफ कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी है। भ्रष्टाचार का ग्राफ आसमान चढ़ा जा रहा है। पता लगाइए! कहीं जिन एजेंसियों के कंधों पर मानवीय चरित्र को सवाँरने  का दायित्व है वे  "ईमानदारी"  की सेल कम होने कारण  अपना धंधा तो नहीं बदल चुकीं हैं



17 अप्रैल 2011

भारतीय संस्कृति का अनूठा उत्पाद : कास्टोमीटर

   
                     -डॉ० डंडा लखनवी

जिस तरह से वाहनों गति नापने के लिए स्पीडोमीटर, शरीर का ताप नापने के लिए थर्मामीटर, दूध की शुद्धता नापने के लिए लैक्टोमीटर का प्रयोग होता है ठीक उसी तरह व्यक्ति की योग्यता नापने के लिए भारत में "कास्टोमीटर" प्रयोग में लाया जाता है। यह भारतीय संस्कृति का अनूठा उत्पाद है। इस यंत्र के पैरामीटर का सारा प्रोग्राम कुलीनता के सिद्धान्त पर कार्य करता है। व्यक्ति योग्य है अथवा अयोग्य, विद्वान है अथवा मूर्ख, मेहनती है अथवा आलसी, बहादुर है अथवा कायर इत्यादि  की  जानकारी हासिल करने करने के लिए यह यंत्र बड़ा कारगर है। इसमें व्यक्ति की शैक्षिक योग्यताओं का डाटा डालने वाला बटन नहीं होता है। इस  यंत्र  को  व्यक्ति के तत्कालीन पद एवं प्रतिष्ठा में रूचि नहीं होती है अपितु उसके पुरखों के धंधों को सूंघने में बड़ी रुचि होती है। प्रतिभा के मूल्यांकन में इसे चरित्र प्रमाण-पत्र की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। आदमी ईमानदार है अथवा बेईमान इसका इस यंत्र से कोई मतलब नहीं। यह यंत्र व्यकित की कास्ट देखता है और कुछ  नहीं। इसलिए इस यंत्र का नाम कास्टोमीटर पड़ा है   
 
कास्टोमीटर नामक यंत्र का प्रयोग बड़ा आसान है। बस! व्यक्ति की जाति पूछिए और कास्टोमीटर में फीड कर दीजिए। अब आपका काम ख़त्म हो गया।  यंत्र काम करना शुरू करेगा। इसकी सुई नीच अथवा ऊँच की डिग्री के अनुसार ऊपर-नीचे सरकने लगती है। यदि यंत्र की सुई ऊपर की ओर खिसके तो समझ जाइए व्यक्ति  के पुरखों के पास कुलीनता का ठेका था और वह योग्य एवं  ईमानदार है। यदि यंत्र की सुई नीचे की ओर खिसके तो समझिए कि व्यक्ति के पुरखे कुलीनता की धंधेंबाजी में नहीं फंसे थे इसलिए वह नीच, अयोग्य तथा बेईमान है। यदि यंत्र की सुई मीटर के मध्य में अथवा उसके आसपास ठहरे तो समझिए कि प्रतिभा में नीच और ऊँच दोनों का मेल  है।

कास्टोमीटर यह भी तय कर देता है कि अमुख व्यक्ति को कितना सम्मान देना है अथवा उसका कितना अपमान करना है। कास्टोमीटर बताता है कि व्यक्ति को बैठने के लिए कैसा आसन देना है-शोफा, कुर्सी, मोढ़ा, चटाई, फर्श इत्यादि इत्यादि। यंत्र यह भी बताता है कि किसी व्यक्ति के उपयोग के बाद आसन को धोना है अथवा उसे नहीं धोना है। 


उच्चकोटि के कास्टोमीटर में कई खूबियाँ होती हैं। वे व्यक्ति के बदन में बसी सुगंध अथवा दुर्गंध को भी ताड़ लेते हैं। कुलीनता की महक से प्रयोग-कर्ता  की बत्तीसी खिल सकती है। वहीं अकुलीनता की बदबू से उनके नाक-भौं सिकुड़ सकते हैं, वी.पी. हाई हो सकता है। यदि आप विदेश जा रहे हों और आपके पास अपना कास्टोमीटर हो तो उसे घर पर ही छोड़ जाइए।  भारत के अलावा यह यंत्र संसार भर में कहीं उपयोगी नहीं है। हाँ! आप भारत में हों और कोई आपका नाम पूछे तो उसे अपना नाम बता दें। आपके उत्तर से  संतुष्ट न  हो और पूछे कि आप नाम के आगे या पीछे क्या लगाते हैं? तब आप तुरंत समझ जाइए कि उसके पास ख़ुफ़िया कास्टोमीटर है वह उसका  जल्द से जल्द उपयोग करना चाहता है। जब तक आपका सरनेम उसे पता नहीं लग जाएगा उसका कास्टोमीटर उसे चैन से बैठने नहीं देगा



10 अप्रैल 2011

******भ्रष्टाचार : तेरे रूप बेशुमार

                                           -डॉ० डंडा लखनवी

भ्रष्टाचार की जड़ें सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त हैं। इस रोग से सारा देश पीड़ित है। श्री अन्ना हजारे ने उसके उपाचार का बीड़ा उठाकर सोए हुए भारतीय समाज में हलचल पैदा कर दी है। सदियों से व्यंग्यकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनमत बनाते रहे हैं। व्यंग्य का कार्य ही है समाज में पर्दे के पीछे हो रहे लोक विरोधी कार्यों को सामने लाना है। इससे समाज में जागरूकता उत्पन्न होती है। असमाजिक तत्वों का हौसला पस्त होता है। समाज में मानवीय मूल्य स्थापित होते हैं और प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार होता है। व्यंग्यकार इस काम को स्वत:स्फूर्त होकर करता है। व्यंग्यकार का काम जोखिम भरा है। साहित्य की अन्य विधाओं में इतना जोखिम नहीं है। कबीर ने उस जोखिम को उठाया था। कबीर का नाम हिंदी साहित्य में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। व्यंग्य की तेज छूरी से उन्होंने ने सामाजिक शल्य-चिकित्सा बड़े कौशल से की थी। आज व्यंग्य का फलक और उसका स्वरूप बहुत विस्तृत हो चुका है।

आधुनिक काल में व्यंग्य की एक स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान बन चुकी है। व्यंग्य भ्रष्टाचार से लड़ने का कारगर हथियार है। यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के लिए जमीन तैयार करता है। जिस तरह से खद्दर के वस्त्र पहन भर लेने से कोई व्यक्ति सच्चा-जनसेवी नहीं बन जाता है उसी तरह से साधुओं जैसा मेकअप कर लेने से व्यक्ति चरित्रवान नहीं बन जाता है। धर्म और राजनीति का रिस्ता चोली और दामन जैसा रहा है। धर्म और चरित्र दोनों की प्रकृति अलग-अलग है। यदि ध्रर्म व्यक्ति को चरित्रवान बनाता तो विभिन्न धर्मों में परस्पर संघर्ष न होते और न सांप्रदायिक इकाईयों के अलग-अलग धड़ों में परस्पर टकराव होते। धर्मभीरुता चरित्रवान होने की गारंटी नहीं है। कोई भी धर्म न ही अपने समस्त अनुयायियों के चारित्रिक शुद्धता का दावा कर सकता है।

चरित्र मानवीय-मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता से सवंरता है। चरित्रवान के लिए आत्म-निरीक्षण और अवगुणों से छुटकारा पहली शर्त है। संयम और त्याग की आँच पर ख़ुद को तपाना पड़ता है। हरामख़ोरी से बचना होता है। दूसरों के साथ वही व्यवहार करना पड़ता है जैसा हम अपने लिए दूसरों से चाहते हैं। चरित्र बाहरी दिखावा नहीं अभ्यांतरिक शुद्धता है। चरित्र व्यक्ति के आचरण और व्यवहार से झलकता है।

@ चरित्र-प्रमाण पत्र की सभी को आवश्यकता पड़ती है। आपको भी पड़ी होगी। क्या कभी आपने सोचा है कि जो व्यक्ति आपको चरित्र प्रमाण-पत्र जारी कर रहा है वह चरित्र के मामले में पूर्ण रूपेण खरा है? वह कदाचारी भी हो सकता है। कई बार आप उसके चरित्र के विषय में जानते भी होंगे। कदाचारी व्यक्ति सदाचार का प्रमाण-पत्र का प्रमाण-पत्र जारी करता है? यह कैसी विडंबना है?

@ रिश्वतख़ोर व्यक्ति को जब खरी-खोटी सुनाई जाती है तो वह कहता है-"आपको मौका नहीं मिला है इसलिए ऐसी बातें करते हो।" यह कह कर वह कहना चाहता है -"उसे मौका मिला है। वह अपनी मर्जी का मालिक है। वह जो चाहे सो करे उस पर कोई उंगली न उठाए।"

@ सभी लोग जानते हैं कि दहेज एक सामाजिक अभिशाप है। इसे रोकने के लिए कानून भी बना है। कानून किनारे धरा है। महंगी शादियों का मीडिया द्वारा भोड़ा प्रदर्शन खूब किया जाता है। सबको दिखाकर दहेज लेना और देना बदस्तूर जारी है। यह कैसी ईमानदारी है?

@ एक व्यंग्यकार से प्रश्न किया गया कि आजकल भ्रष्टाचार का ग्राफ ऊँचा क्यों है? उसका उत्तर था कि अधिकांश लोग चाह्ते हैं कि सरदार भगतसिंह यदि पुर्न जन्म लें तो पड़ोसी के घर में लें और माइकेल जैक्शन अथवा नटवर लाल उनके घर में। अत: अगर कोई आफ़त आवे तो पड़ोसी के घर में आवे और उसका घर सुरक्षित रहे।
                                                        अन्ना हजारे.....जिन्दाबाद!

08 अप्रैल 2011

***** अन्ना की आवाज : आम जनता की आवाज

                                         -डॉ० डंडा लखनवी



भ्रष्टाचार की जड़ें सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त हैं। इस रोग से सारा देश पीड़ित है। श्री अन्ना हजारे ने उपाचार का बीड़ा राजनैतिक क्षेत्र से उठा कर सोए हुए भारतीय समाज में हलचल पैदा कर दी है। उनकी चिंता जायज है। कुछ लोग जनसेवा को व्यवसाय समझने लगे हैं। आम जनता की आवाज को अनसुना करने की प्रवृत्ति राजनीति एवं नौकरशाही में घर कर गई है। अपनी उपेक्षा से भारत का आम नागरिक स्वयं को ठगा हुआ अनुभव करता है। उन्होंने ने आम आदमी के मनोभावों को स्वर दिया है। उनकी इस मुहिम में आज सारा देश उनके साथ है। उनकी आवाज भारत के आम-जन की आवाज है। बौद्ध-काल में प्रत्येक नागरिक को जीवन-मूल्य "पंचशील" को आत्मसात करने का संकल्प लेना रोज की दिनचर्या में सामिल था। जिसके प्रभाव से अधिकांश नागरिक शीलवान हुआ करते थे और वह युग भारतीय इतिहास में स्वर्ण-युग कहलाया। वह व्यवस्था कालान्तर में स्वार्थपरक कारणों से छिन्न-भिन्न हो गई। आज कदाचार को जीवन में उतारने की होड़ -सी लग गई है। सदाचारी एवं परोपकारी व्यक्ति को बुद्धिहीन समझा जाने लगा है।

सत्तासन हो अथवा धर्मासन दोनों में व्याप्त कदाचरण की खबरें अखबारों की सुर्खियाँ बनती रही है। कुट्टू के आटे में मिलावट से देश भर में हजारों लोगों का जीवन संकट में पड़ गया। यह व्यावसायिक भ्रष्टाचार का जिंदा उदाहरण है। कदाचार के सहारे कोई देश अधिक दिनों तक स्वतंत्र नहीं रह सकता है। व्यक्ति अथवा समाज का विकास सदाचार की ठोस भूमि पर होता है। सदाचार को जीवन में उतारने की परम आवश्यकता है। भ्रष्टाचार की नदी ऊपर से नीचे की ओर बहती है। यदि उद्गम स्थल पर भ्रष्टाचार का प्रवाह रोक दिया जाय तो वह निचले स्तर पर फैलने नहीं पाता। हमें राजनैतिक क्षेत्र के साथ धार्मिक, आर्थिक, शैक्षिक क्षेत्र को भी भ्रष्टाचार से मुक्त करना होगा। प्रबल इच्छा-शक्ति के बल पर "लोकपाल-विधेयक" समाज को स्वच्छ बनाने में कारगर सिद्ध होगा।