30 जुलाई 2010

लोग जो चिकने घड़े हैं......

                                    -डॉ० डंडा लखनवी


            लोग  जो  चिकने  घड़े  हैं।
            लग  रहा  वो  ही  बड़े  हैं॥

            आप   हैं   यदि  सदाचारी-
            पंक्ति  में   पीछे   खड़े  हैं ?

            हैं  लड़ाकू   वही   सैनिक-
            जो  चुनावों   में   लड़े  हैं॥

            भूमि पर  कुछ  और ही है-
            कह रहे  कुछ  आँकड़े  हैं॥

            समस्याएं  हल  हों   कैसे-
            अक़्ल  पर  ताले पड़े  हैं॥

            भूख   से   बेहाल  जनता-
            अन्न  के   बोरे   सड़े  हैं॥
  
            गोलियाँ ऑनरकिलर  की-
            प्रेमियों    के   चीथड़े    हैं॥

            उनकी बातों  की हक़ीक़त-
            बस  सियासी  पैतड़े   हैं॥

            चाहती  बदलाव   दुनिया-
            हम  न बदलेंगे,  अड़े  हैं॥

27 जुलाई 2010

ओ गोमती .......................

      -डॉ० डण्डा लखनवी

ओ गोमती !
तू एक नदी ही नहीं,
उच्चतम सांस्कृतिक आगार है,
करुणा का विस्तार है,
धन्य है तेरी सुषमा, धन्य है तेरी गरिमा
और धन्य है तेरी महिमा,
धन्य है तेरा प्यार, दुलार और उपकार,
पीलीभीत के फ़लजर  ताल से
जौनपुर में गंगा-विलय तक
धन्य है कल-कल करता तेरा विस्तार,
तुझमें यति है, गति है,
कृत है, कृति है,
तेरे तट पर बहती है शीरी जुबान,
तेरे दिल में सम्मति है, सहमति है,
तेरी अनोखी है- शान।

ओ गोमती!
तू वास्तव में ‘गो-मति‘ है
तेरे आँचल में शान्ति करती है-सदैव विश्राम
तथागत के संदेश 
ज्यों-ज्यों गुंजायमान हुए
तेरे तटों पर आठो याम,
त्यो-तयों देश-देशंतर तक छट गया,
अज्ञान रूपी धना अंधकार,
करुणा का ऐसा था जगा था-उन्मेष,
बुद्धमय हो गया था,
तेरे आस-पास का सारा परिवेश,
रक्तपात

आर्यावृत से हो गया था निर्मूल,  
मनुष्य का जंगलीपन नष्ट हो गया था-समूल!
चारों ओर ‘पानातिपाता वेरमनी सिक्खापदं समादियामि’ का
होता था-तुमुल धोष!
जिसके आगे शर्मसार था-अस्त्र और शस्त्रों का मद
किसी का यहाँ नहीं किया जाता था-वध
इसलिए ही तो
तेरे आस-पास का क्षेत्र कहलाने लगा-अवध!

ओ गोमती!
तुझे अच्छी तरह ज्ञात है,
कोसल के कलाविदों की कुशलता,
तकनीकी ज्ञान में अग्रणी
दस्तकारों की सफलता,
जहाँ पर खुशहाल था हर-कास्तकार,
चरमोत्कर्ष पर था-उद्योग और व्यापार 

कोसल की राजधानी एक ऐसी विकसित थी- बस्ती,
‘श्री‘ सदैव जहाँ थी-विहंसती,
आज भी लोग उस स्थान को कहते हैं-'श्रावस्ती'
श्री और वैभव का जहाँ नहीं था-पारावार,
जानता है सारा संसार,
जहाँ पहुँचने के लिए
आज भी लाखों लोग लगाए  रहते हैं-आस
करते हुए देश-देशांतर में निवास,
तथागत ने जहाँ फैलाया था -ज्ञान का प्रकाश

महाकारुणिक की गूँजती है,
जहाँ आज भी निर्मल वाणी
अविभूत हो जाता है
जहाँ पहुँच कर हर प्राणी!

ओ गोमती!
तेरा अंदाज निराला है,
तूने ‘पाली’ को पाला है,
अवधी को ढ़ाला है,
दिल्ली के उजड़ने पर,
उर्दू को संभाला है,
सिद्धों की गाथाएं, नाथों की भावनाएं,
शायरों की शायरी,
यहीं गूंजते रहे हैं,
‘मीर’ व ‘जोश’ के कलाम,
बड़े-बड़े फनकार तुझे करते रहे हैं सलाम,
रचे जाते रहे हैं तेरे तट पर
उपन्यास पर उपन्यास,
यशपाल, भगवतीचरण और अमृतलाल
रहते थे तेरे कदमों के आस-पास।

ओ गोमती!
तेरी माटी से उपजा और दिग्दिगंत में गूंजा,
रमई काका का हास, भुशुण्ड़ि का परिहास,
श्रीनारायाण चतुर्वेदी, श्रीलाल शुक्ल तथा रामवचन वर्मा के व्यंग्य,
सुमित्राकुमारी सिन्हा, दिवाकर त्रिपाठी के गीत,
नौशाद का संगीत,
तू जानती है भली भाँति जानती है
मोतीराम शास्त्री के तर्क,
प्रेमचंद आर्य का वर्क,

ओ गोमती!
तू गवाह है
भंते प्रज्ञानंद के अभिदान की,
प्रो0 अंगने लाल के सामाजिक और सांस्कृतिक अभियान की,
डॉ० देवीसिंह अशोक के व्याख्यान दर व्याख्यान की,
जिन्होंने दिया आम आदमी को जीवन की नई धारा,
मानवतावाद का नारा,
सिखाया जीतना
जगत् को पुरुषार्थ के द्वारा,

ओ गोमती!  
तेरे बृहृत परिक्षेत्र में आज भी
परमार्थ माना जाता है पुण्य
और स्वार्थपरता सबसे बड़ा पाप,
तूने ही सिखाया अदब का पाठ,

अंधविशवास का परित्याग,
जीवन से अनुराग,
लोगों को अपना पेट भरने के पहले कहना,
कृपया पहले आप!
पहले आप!!
 

26 जुलाई 2010

कल्याणकारी राज्य और नागरिक जीवन


                                                 -डा0 डंडा लखनवी


आज जिस समाज में हम रह रहे हैं वह वास्तव में राजशाही के ईट-गारे से बना है। उसी से उपजे बहुत सारे नियम-कानून हम आज भी ओढ़-बिछा रहे हैं। जाने-अनजाने हम उस राजतांत्रिक व्यवस्था के संस्कारों को पोषित करते हैं जो आधुनिक युग में अपनी प्रसांगिकता  खो चुके हैं। हमारे अनेक तीज-त्योहार भी उसी ढ़र्रे पर बने हैं और उन्हें हर साल परंपराओं के नाम पर मनाते हैं। इन अवसरों पर जनसाधरण को बड़ी चतुराई से निदेशित किया जाता है। लोग बिना कुछ समझे-बूझे आरोपित संस्कारों को अपने आचरण में उतार लेते है। कुछ टीवी चैनल भी अवैज्ञानिकता और अंधविशवास को हवा देने में परहेज़ नहीं करते  हैं। ऐसी स्थिति में सुधारवादियों के द्वारा किए सामाजिक सुधार के अनेक प्रयास धरे के धरे रह जाते हैं। उनके द्वारा किए गए प्रयासों का असर होता भी है तो बहुत सीमित मात्रा में और बहुत सीमित क्षेत्र में होता है। सदियों से चली आ रही जातिवाद और धर्मवाद की रूढ़ियाँ अपना पुराना आकार पुनः धारण कर लेती हैं। यह तो वही बात हुई-एक तरफ नशाबंदी के विरुद्ध अभियान चलाया जाए और दूसरी ओर शराब की दूकानें खुलवायी जाती रहें।

भारत में छुआछूत की बीमारी सदियों पुरानी है। जैसे-जैसे इसके प्रयास किए जाते हैं। यह बीमारी और जोर पकड़ लेती है। जुलाई 2010 में उत्तर प्रदेश के कन्नौज, कानपुर, इटावा तथा शाहजहाँपुर जनपद में ऊंची जातियों के छात्रों ने दलित रसोइयों द्वारा तैयार भोजन का बहिस्कार कर दिया था। उन छात्रों को आखिर छुआछूत का पाठ किसने पढ़ाया। धर्म और जाति के नाम पर यह व्यवहार कहाँ तक जायज़ ठहराया जा सकता है?  सभी जानते हैं कि हर वर्ष पूरे देश में दशहरे के अवसर पर रामलीला  का मंचन पर किया जाता है। उस अवसर पर ’सती सिलोचना’ का कथा-प्रसंग भी मंचित होता है। उक्त कथा-मंचन  से क्या यह संदेश प्रचारित नहीं होता है कि सती होना गौरव की बात है? सती-प्रथा को किसी भी तरह से बढ़ावा देना भारत में कानूनन अपराध है। इसे प्रचारित और प्रसारित करना आज किसी भी सभ्य समाज के लिए गौरव की बात नहीं है। इसे क्यों प्रचारित किया जाता है? इस मामले में क्या युगानुकूल सामाजिक बदलाव की आवश्यकता नहीं है? इस तरह के विषयों पर बदलाव के लिए कौन जिम्मेदार है?   

अभी कुछ दिन पूर्व की बात है। सूचना के अधिकार संबंधी एक आयोजन था। उसमें सम्मिलित होने का अवसर मुझे मिला। आयोजन के अध्यक्ष पद से बोलते हुए एक वक्ता ने भारत को प्रजातांत्रिक राज्य बताया। इतने महत्वपूर्ण पद से उनके वक्तव्य को सुन कर मैं दंग रह गया। बडे-बडे लोग लोकतंत्र को आज भी प्रजातंत्र कहते हैं। हमारे देश में अब प्रजातंत्र नहीं है। यहाँ की शासन व्यवस्था संविधान के अंगीकार किए जाने के साथ ही लोकतांत्रिक बन चुकी है। यह बात उन्हें कौन बताए? हद तो तब हो गई जब एक पार्टी ने तो यह नारा तक दे डाला ‘............राजतिलक की करो तैयारी‘। राजतिलक तो राजाओं का होता था। संसद हो अथवा विधान सभा उनमें चुन कर जाने वाला व्यक्ति हमारा प्रतिनिधि होता है। उसकी स्थिति जनता के सेवक की होती है। जनता का सेवक राजा कैसे हो सकता है? हम अपने प्रतिनिधि को जनसेवा के लिए भेजते हैं, राजसुख भोग के लिए नहीं। स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष करने वाले सेनानियों ने क्या इसी आजादी का सपना देखा था?

संवैधानिक रूप से हम सब भारतीय हैं। भारतीय होने पर हमें गर्व होना चाहिए। फिर भी कुछ लोग इन परिवर्तनों को स्वीकार नहीं कर पाए हैं। वे खुद को भारतीय नहीं कहते हैं। उनकी जुबान पर भारत और भारतीय के स्थान पर हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी ही चढ़ा हैं। यह कैसी विडंबना है? भारत में अभी लोकतांत्रिक व्यवस्था के पैर जम भी न पाए थे कि हम पुन: सामंती व्यवस्था के जबडों में जकड़ते जा रहे हैं। बाजारीकरण का खेल जोरों पर है।  हर वस्तु को बिकाऊ बनाया जा रहा है। कल्याणकारी राज्य और उसमें निवास करने वाले हर नागरिक के सर्वांगीर्ण विकास की अवधारण का  सवाल अब पीछे छुट गया है। शोषण के विरुद्ध पूर्वजों द्वारा किए गए प्रयासों पर पानी फिरता जा रहा है। करोड़ों लोग अभी भी स्लम-बस्तियों जीवन जीने के लिए विवश हैं।

हिदीं साहित्य के महाकाव्यों में वर्णित चरित्र श्रीराम के युग में ’सबरी’ और श्रीकृष्ण के युग में ’एकलव्य’ नामक आदिवासी पात्रों का उल्लेख मिलता है। आदिवासियों की दशा उस समय  भी दयनीय थी और आज भी उनके वंशजों की दशा दयनीय है। हजारों वर्षों के बाद भी हम उन्हें मुख्य-धारा के समकक्ष नहीं ला सके। आदिवासी बहुल क्षेत्र की खनिज-संपदा का दोहन  निरंतर किया जा रहा 
है। वन्य-क्षेत्र  का दायरा धीरे-धीरे घट रहा है। वहाँ से अर्जित राजस्व का कितना अंश उस क्षेत्र के विकास पर व्यय किया गया है। इसकी पोल वहाँ रहने वाले लोगों के रहन-सहन के स्तर को देख कर स्वतः खुल जाती है। यह विसमतावादी सामाजिक व्यवस्था का एक ख़ौफनाक आइना है। ऐसी ही स्थिति दलित और पिछड़े वर्ग की भी हैं। भारत में राजसत्ता का एक मोहरा धर्म-सत्ता का है। धर्म-सत्ता के बुनियादी स्वरूप में बदलाव की आवश्यकता है। रूढ़ियों से मुक्ति के प्रयास वहीं से किए जाने चाहिए। आज देश को समतावादी मूलक विचारों के साथ सदाचार और साहिष्णुता की आवश्यकता है। यह परिवर्तन जितनी जल्दी होगा देश और समाज के लिए उतना ही हितकर होगा। असंतुलि विकास से मुठ्ठी भर लोगों का भला होता है आम जनता के कष्ट बढ़ जाते हैं और वह आत्महत्या के लिए विवश हो जाती है। कल्याणकारी राज्य की यह नीति कदापि नहीं होती है। राज्य के सभी नागरिकों को ‘शिक्षा-स्वास्थ और उसके जीवन की सुरक्षा’ सुलभ कराना राज्य की नैतिक जिम्मेदारी है। शासन-व्यवस्था कोई भी हो राज्य इस जिम्मेदारी से मुख नहीं मोड़ सकता है। 


25 जुलाई 2010

रामऔतार ‘पंकज’ की दो कुंडलिया

-रामऔतार ‘पंकज’
 
बाँटें  सब में  प्यार  नित, संतों  का  मत  मान।
प्यार  मिलेगा  मूल  में, ब्याज मान-सम्मान॥
ब्याज मान-सम्मान, कभी  परोक्ष भी मिलता।
माली   सीचे    मूल,  फूल   डाली  में  खिलता॥
कह ’पंकज’कर भेद, व्यक्ति में  व्यक्ति न छाँटें।
रख  समता   भाव, प्यार  जन-जन   में   बाँटें॥ 1


मत   बारूदी   खेल  से, करें  जगत  को   क्षार।
जग के  सब मानव  सगे, कुछ तो करें विचार॥
कुछ तो करें विचार, व्यक्ति  से  व्यक्ति  न बाँटें।
बैठे   हैं  जिस   डाल, भूल  कर  उसे  न  काटें॥
’पंकज’ करें  उपाय,  ज्योतिमय बने अनागत।
सब   में  हो  सदभाव, व्यक्ति  में भेद करें मत॥ 2


पता-539क/65-विमला सदन
शेखपुर कसैला, नारायण नगर,
लखनऊ-226016
सचलभाष-9532888894

हिज्र में मीठे वचन ..........


            
     
                     -डॉ० डंडा लखनवी


                 

   " जब  जमाने   को   भानु   खूब   भून  देते   हैं।  
     
    तभी   राहत   सभी  को   मानसून    देते   हैं॥

    लाखों  तौफ़ीक़  से  हासिल  न  हो  वैसी राहत­-

    हिज्र   में   मीठे - वचन  जो   सकून   देते   हैं॥"

17 जुलाई 2010

ज्ञान के अभाव में मनुष्य चौपाए से कम नहीं

                                                   
                                                                                     -होरीलाल

पोथी बाँचने वाले ने बहुत पढ़ा,
कहने वालों ने भी कुछ कम नहीं कहा,
किन्तु करने वाले वह लोग हैं कहाँ ?
सुनने वालों ने एक कान से सुना
दूसरे से तत्काल निकाला,
अपना बोझ दूसरों पर डाला,
अरे । वह तो अभी भी बेजुबां हैं,
जिसने कदम-दर-कदम जु़ल्म सहा,

आज फिर उन लोगों की शख़्त ज़रूरत है
जब भी चेत जाएं वही मुहूरत है
श्रम, संयम, साधना को दिल से लगाए हुए,
तप, त्याग, संवेदना को मन में बिठाए हुए,
वह लोग जल्दी आगे बढ़ कर आएं,
जिनकी सोंच-आचरण से कुछ अच्छा होगा,
उनका कार्य ही अगली पीढी़ को प्रेरणा देगा।

हम मान भी लेते हैं-
अतीत बहुत चमकदार था,
चारों ओर खुशहाली, सारा जीवन गमकदार था,
परन्तु इतना जान भर लेने मात्र से
काम नहीं चलेगा यारों,
नए सिरे से विवेचना करनी होगी,
नई योजनाएं, नए प्राकलन बनाने होंगे,
सघन पहल करनी होगी,
देने होंगे कान यारों।

समय कुछ भी रहा हो,
समाज कैसा भी रहा हो,
शिक्षा की चुनौती, बड़ी चुनौती सदा रही है,
किसको शिक्षा, कैसी शिक्षा ?
कितनी शिक्षा का प्रयोग सदा ही चलता रहा
किन्तु
एक बहुत बड़ी जमात को सदा ही,
बिनु आँख-कान, बेजुबान बनाने का
षडयंत्र सफलता पूर्वक चलता रहा।

इतना सब होने के बावजूद भी
एकान्त साधना में लीन,
महर्षि मुनि शम्बूक, वीरवर एकलव्य,
शिव को सदा समर्पित कर्ण,
महामुनि कपिल, शुक्राचार्य
और गुरुवर नारायण.... की सारी पीढ़ी।
हम कायल हैं,
तुम्हारी संवेदना, तुम्हारी हिम्मत के
जिन्होंने उपेक्षितों को दिशा दी, दशा सुधारी,
हम कृतज्ञ हैं-तथागत स्वयं तुम्हारे
तुमने जीवनसूत्र दिया-
’अत्ताहि अत्तनो नाथो’,
’अत्त दीपा भव’,
’अत्त सरना विहरथ’-कहा
जिसके आलोक में सारी दुनिया ने
अपना रास्ता चुनने की कोशिश की,
आज भी सुमधुर विकासोन्मुख
शान्ति-पथ के प्रयत्न जारी,
तुम्हारे ही उस आलोक की किरण
बाबा बोधिसत्व अम्बेडकर के दुस्तर प्रयास से
तमाम लोगों को जीवनपथ की झलक दिखा गई,
हम ऋणी हैं, कृतज्ञ हैं
कोटिश: नमन प्रणाम है उनको।

मैं जिस नतीजे पर पहुँचा --
जो समाज त्यागी रहा, वैरागी रहा,
जिसने जलाई ज्योति ज्ञान की,
’अत्त दीपो भव’-कहा
जिसने इस सूत्र को जाना, समझा, माना,
निज आचरण में उतारा,
स्वयं उसकी, अगली पीढ़ियों की पहचान इंसान की रही,
अन्यथा--
ज्ञान-विज्ञान के अभाव में
मनुष्य की वह कौ़म
किसी चौपाए से कम नहीं।

              

पता-
एशिया लाइट शिक्षा संस्थान,
86-शेखूपुरा कालोनी, अलीगंज,



लखनऊ-226022
सचलभाष-+91-9415335792 

14 जुलाई 2010

जिस्म लोहूलुहान भी तो है.........

                                                     - नवीन शुक्ल

एक    लम्बी    उड़ान  भी   तो  है।
इसलिए  कुछ  थकान  भी तो है।।

जंग     जीती     ज़रूर    है   हमने -
जिस्म   लोहूलुहान   भी   तो   है॥

हौसला     चाहिए     मुसीबत    में-   
जि़न्दगी   इम्तिहान   भी  तो   है॥

मुश्किलों    मे   भी  डालता   है  वो-
पर   ख़ुदा  मेहरबान   भी   तो   है॥  

आँख   के    सामने  तो  मंजिल  है -
फ़ासला    दरमियान    भी  तो 
है॥

हलचलों  मे  यहाँ   की  शामिल हूँ-
उस  तरफ  का रुझान  भी  तो है।।

कह  के  ये  काट  दी  हमारी   बात-
मुँह   में  अपने  जु़बान  भी  तो है॥

फड़फड़ाये    न   क्यों    परिंदा  ये-
ऐ 'नवीन'  इन   में जान भी तो है॥

               




227-विजय नगर कालोनी,
कानपुर रोड, लखनऊ-226019
सचलभाष-9415094950

13 जुलाई 2010

अश्क़ के ढेरों मोती.............

                                                                  -अरुण मिश्र

बेसबब  गुल   न  मेरे   सिम्त  उछाला  होता।
तो ये निस्बत का भरम हमने न पाला होता।।

ज़िन्दगी   बिन तेरे  तारीक़ियों  का जंगल है।
तू चला आता तो कुछ  मन मे उजाला होता।।

हम सँभल  सकते  थे कमज़र्फ़ नहीं  थे इतने।
काश  उस  शोख़ ने पल्लू तो  सँभाला होता।।

तुम भी पा जाते ‘अरुन‘ अश्क़ के  ढेरों मोती।
इश्क़  के  गहरे  समन्दर को  खँगाला होता।।



शाकुन्तलम, 4/113-विजयन्त खंड, 

गोमती नगर, लखनऊ-226010
सचलभाष-+91-9935232728

04 जुलाई 2010

मज़बूरी

                                       -डा० सुरेश उजाला



लाचार-मज़बूर-अशक्त
असहाय -विवश-कमजोर
दीन-हीन-बेबस आदि
नाम हैं-मज़बूरी के |

क्योंकि-
मज़बूरी-
करा देती है-
सब कुछ
दुनिया में |

पहना देती है-
उतरन
खिला देती है-
जूठन |

कर देती है- नंगा
उतारू-
बुरे से बुरे
काम करने को
बना देती है अधीन
दूसरों की
हाँ में हाँ मिलाने को |


जिसके कारण-
खो बैठता है-
स्वाभिमान
आदमी-शनै:-शनै: |

और
हो जाता है ग्रसित
हीन भावना से |

अतएव
मज़बूरी नाम है-
मज़बूर का-
दासता का-
धरती पर |
                     ////////////////////
108-तकरोही, पं० दीनदयाल पुरम मार्ग,
इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016,   सचलभाष-09451144480

01 जुलाई 2010

थूके अगर तो थूक ले जग इसका ग़म नहीं.............


                                 -डॉ० डंडा लखनवी



कुछ  अपनी  जान  उनपे  छिड़कते  ज़रूर हैं।
जो   शख़्श   सरे   राह     मटकते  ज़रूर  हैं॥

सत्ता  के  संग  हुज़ूम  न  हो,  है  ये  असंभव,
चीनी  के   पास   चींटे    फटकते  ज़रूर  हैं॥

मंजिल  का  पता  ही  नहीं मालूम  है जिन्हें, 
वो  शहरी   सभ्यता  में   भकटते  ज़रूर  हैं॥ 

गीदड 
हैं  समझदार  शहर   का  न  रुख़ करें,
हम  उनके  इलाकों   को  गटकते  ज़रूर  हैं॥ 

कलियों में और शीशों  में येही तो  सिफ़त है,
अपनी   उमर  पे  आ  के  चकटते  ज़रूर हैं॥

थूके अगर  तो  थूक ले जग इसका ग़म नहीं,
हम  ट्रेन   की   छतों   पे  लटकते  ज़रूर  हैं॥

करते  नहीं मदद  की आप उनसे गर्  गुहार,
उनकी   नज़र  में   आप  ख़कटते  ज़रूर हैं॥

ऐसा    नहीं   बदरंग   रहें    कोशिशें    मेरी,
शुरुआत   में    तो  रोड़े  अटकते  ज़रूर  हैं॥ 
 
माँ-बाप के  चरण में 
शीश जिनका न झुका,
पत्थर  पे  अपना  सिर वो पकटते ज़रूर हैं॥