30 मई 2011

+++++ पर्दे-शी और मर्दे-शी


                                       -डॉ० डंडा लखनवी


परदों पर लिखते हुए मुझे अपने परदादे याद आने लगे। जब मैं सात साल का था- "बताया गया माँ स्वर्गवासी हो गई।" निकटस्थ संबंधियों से स्वर्गवासी होने का मतलब जानना चाहा। बताया गया- "वह परदेसी हो गई है।"  मैंने अर्थ लगाया -"वो पर्दे में चली गई।" सात साल का बच्चा इससे अधिक अर्थ लगा भी क्या सकता था?पने पिता जी को मैंने देखा, दादा को देखा किन्तु परदादा को नहीं देखा। मेरे पैदा होने के पहले वे परदेसी हो चुके थे। पर+दादा के पिता जी उसके पहले परदेसी हो चुके थे। कहते हैं कि ईश्वर सबका पिता है। 'स्वर्ग' उसका  स्थायी पता है अथवा अस्थायी, यह तो वही बता सकता है। मुझे तो वह पर+देसी लगता है। ईश्वर और इंसान के बीच हमेशा पर्दा -सा रहा है। यह पर्दा -सा ही उसे पर+देसी बनाता है। पर्दे के प्रति ईश्वर का लगाव अधिक है। पर्दा उसके लिए बहुत उपयोगी है। वह इंसान के सामने बेपर्दा कभी नहीं हुआ। वह पर्दे में बना रहे तो ही अच्छा है। यदि वह पर्दे के बाहर आ गया तो उनके लिए मुसकिलें खड़ी हो सकती हैं जो खु़द को ईश्वर घोषित किए हुए हैं।

यूँ तो परदे शब्द के गूढ़ार्थ कई हैं। एक परदे का मतलब उड़ने वाले पंख दे दे, 'पर' दे, 'पर' दे एक परदे का अर्थ उस वस्तु से है जिसकी ओट में छिपने की क्रिया हो और ’शी’ का संबंध 'नारी' से है। इस तरह से हिंगलिश में परदे+शी का अर्थ- 'पर्दे की ओट में रहने वाली नारी कहा जाएगा।'  पचास साल पहले भारत में अधिकांश नारियाँ पर्दे-she हुआ करती थीं। तब ’चादर’ फुल पर्दा होता था और ’घूंघट’ मिनी पर्दा। मिनी परदा भी देढ़ हाथ से कम का न होता था। परदे भी कई चीजों से बनते थे। टाट के पर्दे, चिक के पर्दे, कपड़े के पर्दे आदि-आदि। औरतों के इक्के-ताँगों पर बैठने के पहले उसे पर्दों से ढ़क दिया जाता था। पर्दे का महत्व उस समय इतना अधिक था कि घर की छत की मरम्मत के लिए मज़दूर भेजने के पूर्व गोहार लगवानी पड़ती थी-’पर्देवालियो! पर्देवालियो! पर्दे में हो जाओ! छत पर मजदूर चढ़ने जा रहे हैं।’ मजदूरों की नज़र उन पर पड़ने न पाए इसलिए वे घर में पर्दे+she हो जाती थीं। अब ये गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। बाजारवाद और उदारीकरण ने औरत को उदरीकरण का हुनर भी सिखा दिया है। तभी तो क्रिकेट की दीवानगी में पूनम पाँडे ने वस्त्रों से सन्यास लेने की घोषणा कर दी और इस लीक पर चलने वाली अन्य हीरोइनों का बाजा बजा दिया।

अबकी औरतें पर्दे-she नहीं हैं, वे मर्दे-she हैं। क्या कहा ? आप मर्दे-शी का मतलब नहीं समझ पाए! अजी! मर्दे-शी का मतलब- "मर्दों को सबक सिखाने वाली नारियाँ।" क्या करूणानिधि-सरकार का तख्ता पलट देने वाली जयललिता को आप मर्दे-शी नहीं मानते? क्या बुद्धदेव भट्टाचार्या -सरकार के गुब्बारे की हवा निकालने वाली ममता बनर्जी को आप मर्दे-शी  नहीं मानते? क्या मायावती को भी आप मर्दे-शी नहीं माँनते हैं? भारत में मर्दे-शी की फेहरिस्त बड़ी तेजी से बढ़ रही है। कुछ लोग खुद को काँग्रेशी कहते  हैं । उनकी पार्टी में -शी पहले से जुड़ा है। वह पुरानी she-पार्टी है उसकी कमान मर्दे-she के हाथों में पहले भी थी और आज भी है। क्या इन्दिरा गाँधी मर्दे-शी नहीं थीं। क्या रीता बहुगुणा मर्दे-शी की दावेदार नहीं हैं? क्या सोनिया गाँधी को आप मर्दे-शी नहीं मानते हैं? अजी! मेरी बातों पर आप हा-हा, ही-ही (He-He) कर रहे हैं। आगे का समय ही-ही का नहीं शी-शी (she-she)  का होगा ।


26 मई 2011

असली सालिग्राम हैं या नकली सालिग्राम हैं

                                                     -डॉ० डंडा लखनवी

आज भवन-निर्माण कराते हुए कुछ समय राजगीर और मजदूरों के बीच बिताना पड़ा। उनसे वार्तालाप करने के दौरान एक मज़दूर ने एक संस्मरण सुनाया। जिसे मैं यहाँ साझा कर रहा हूँ।

"गाँव में मेरे पड़ोसी के घर पर सत्यनारायण की कथा होनी थी। कथा को कराने के लिए सुदूर गाँव से पुरोहित बुलाने का काम मुझे सौंपा गया था। पुरोहित को बुलाने के लिए मैं उनके गाँव पहुँचा और कथा कराने का निमंत्रण दे कर साथ चलने का अनुरोध किया। पुरोहित जी निमंत्रण स्वीकार कर साथ चल पड़े। काफी दूर चले आने पर एक बाग के निकट उन्हें याद आया कि सालिग्राम की बटिया वो घर पर ही भूल आए हैं। वापस लौट कर बटिया लाने का समय न था। कथा का मुहूर्त निकला जा रहा था। पु्रोहित जी के सामने विकट समस्या थी। अचानक उन्होंने मुझसे कहा - "बच्चा! इस जामुन के पेड़ पर चढ़ जा।" मैं जामुन के पेड़ पर चढ़ गया। फिर उन्होंने कहा- "एक बढ़िया सा जामुन तोड़ कर मुझे दे।" उनके एक कहने के अनुसार मैंने एक बड़ा सा जामुन उन्हें तोड़ कर दे दिया। कथा कराते समय मैंने देखा  क़ि  पुरोहित जी ने जामुन को सालिग्राम की जगह पर रख दिया और पूरी कथा संपन्न करा दी। सालिग्राम की जगह पर बैठे जामुन को कोई जान नहीं पाया कि असली सालिग्राम हैं या नकली सालिग्राम हैं।"

20 मई 2011

+++++आरक्षण : सत्ता का गुलगुला

     -डॉ० डंडा लखनवी
आरक्षण के मुद्दे पर अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में कुछ अर्से पूर्व मुझे कुछ लेख पढ़ने को मिले। वादों- प्रतिवादों के बीच से गुजर कर एक धारणा बनी क़ि भारत में आरक्षण की व्यवस्था प्राचीन काल से विद्यमान है। पहले आरक्षण का लाभ किसी और के हिस्से में था। आज वह किसी और के हिस्से में है। पहले का भी आरक्षण वर्णवाद के आधार पर था। आज का आरक्षण भी उसी की देन हैं। आज आरक्षण का आरोप दलित एवं पिछड़े वर्गों का पर लगता है। क्या आज सरकारी और गैर-सरकारी  दो तरह की आरक्षण-व्यवस्था समाज में प्रभावी नहीं है? क्या हजारों वर्षों से आरक्षण का लाभ यही वर्ग उठाता रहा है? व्यवस्थाकारों की नीति और नियत से जुड़ा हुआ  यह प्रश्न  है जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए ।

वस्तुत: भारत की जनगणना चातुर्वर्णीय व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और सूद्र के अनुसार होती तो अच्छा था। उसके  आधार यह पता चल  सकता था  कि भारत के समस्त संसाधनों  पर किस वर्ग का कितना कब्जा है? आरक्षण पर विचार करते समय इस बात के आँकड़ों को देखा जाना चाहिए कि आरक्षित और गैर-आरक्षित वर्ग में किसका अधिक कालाधन देशी / विदेशी बैंकों जमा है? यह भी देखा जाना चाहिए कि आरक्षित और गैर-आरक्षित वर्ग में खेतिहर जमीन,  बड़े उद्योगों पर अधिक कब्जा किसका है? इस मुद्दे पर चर्चा में  यह भी देखा जाना आवश्यक है कि धर्म के शीर्ष पदों पर किसकी  कितनी भागीदारी है और सत्ता के प्रमुख पदों पर किस वर्ग का कितना कब्जा है? 


इन सबके बाद यह निर्णय किया जाना जाना उचित होगा क़ि आजादी के समुद्र-मंथन का लाभ किस वर्ग को ज्यादा मिला है जिस वर्ग को ज्यादा मिला हो उस पर अतिरिक्त कराधान लगाया जाय और जिस वर्ग को कम मिला है उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आरक्षण सही अर्थ में तभी कहलायगा। अन्यथा आरक्षण प्राचीन काल का हो अथवा आधुनिक काल का वह सत्ता का गुलगुला ही बना रहेगा। इसे जो खाएगा वह और मुख फैलाएगा  और जो इसे खाने को न पाएगा वह  हाय....हाय.... हाय...चिल्लाएगा


17 मई 2011

लमहों ने ख़ता की थी, सदियों ने सजा पायी


                                                                   -डॉ० डंडा लखनवी

दार्शनिक अरस्तु का कथन है मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मैं कहता हूँ मनुष्य मूल रूप से प्राणी (Man is animal) है। शिक्षा से वह संस्कारित होता है। फलत: वह सामाजिक प्राणी कहलाने योग्य बनता है। उसे प्राणी से सामाजिक प्राणी बनाने में यूँ तो अनेक संस्थाएं कार्य कर रही हैं। क्या शहर क्या देहात सभी जगहों पर......प्राथमिक पाठशालाएं  हैं पूजागृहों की देश भर में कमी नहीं है। टी०वी० चैनलों पर धार्मिक उपदेश देने वाले लोग आदमी को चरित्रवान बनाने की कवायद चौबीस घंटे व्यस्त रहते हैं। पुलिस, प्रशासन, कोर्ट-कचहरी, थाना, जेल आदि सभी तो मनुष्य के चरित्र को सुधारने में हलकान हैं। अरबों-खरबों रूपए का बजट सबके चरित्र को सवांरने में व्यय हो रहा है। फिर भी "कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी" वाली कहावत चरितार्थ होती है। वांछित परिणाम हासिल क्यों नहीं हो रहे हैं? आखिर आदमी को आदमी बनाने वाले हमारे प्रयासों में कहाँ कमी है? जिन एजेंसियों के कंधों पर मानवीय चरित्र को सुधारने का दायित्व है वे हाथी के दिखाने वाले दाँत तो नहीं बन गए हैं? उनकी करनी और कथनी में भेद तो नहीं है? क्या इसे तटस्थ भाव से जाँचने-परखने की जरूरत नहीं है?

चरित्र मानवीय-मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता से सवंरता है। सदाचार की राह पर चलने के लिए व्यक्ति को स्वयं पहल करनी होती है। चरित्रवान बनने के लिए आत्म-निरीक्षण और अवगुणों से छुटकारा पहली शर्त है। कोई किसी को जबरन चरित्रवान नहीं बना सकता  है। संयम और त्याग की आँच पर  ख़ुद को तपाना पड़ता है। हरामख़ोरी से बचना होता है। चरित्र बाहरी दिखावा नहीं अभ्यांतरिक शुद्धता है। चरित्र व्यक्ति के आचरण और व्यवहार से झलकता है। नेता जी सुभाषचंद बोस, सरदार भगतसिंह, रामप्रसादबिस्मिलआदि ने कभी सोचा न होगा कि जिस आजादी को प्राप्त करने के लिए वे जीवन की कुर्बानी दे रहे हैं वह भ्रष्टाचार के कारण  इतनी पतित हो जायगी। आजादी को खिलौना समझने वालों को कविवर बृजकिशोर चतुर्वेदीब्रजेशव्यंग्य के कटघरे में खड़ा कर कहते हैं-’कुर्ते सिलवा खादी के। मज़े लूट आजादी के॥चरित्र का यह संकट देश और समाज के लिए बड़ा घातक है। हमारे क्षुद्र स्वार्थ भावी पीढ़ी के लिए अभिशाप हैं।

मेरे एक कवि मित्र "तरंग" ने बैकुंठ की परिभाषा दी है। वे  'वय' का निषेधात्मक अर्थनहीं’ और कुंठ का अर्थ कुंठा मानते  हैं।अत: वह स्थान जहाँ कुंठा न हो। यदि परिवार के सदस्यों के बीच कुंठा नहीं है तो वहाँ बैकुंठ है। यदि पड़ोसियों के बीच कुंठा नहीं है तो वहाँ बैकुठ है। सुचरित्र से कुंठाओं  की गाँठ खुल जाती है चरित्र-संकट जहाँ  है, वहाँ नरक है। हमें सुखद भविष्य के लिए चरित्र-संकट से उबरना ही होगा। जियो और जीने दो की भावना का विकास करना होगा। आइए हम अपने-अपने गिरहबानों में झाँकें, अपना-अपना जमीर टटोलें। सोचें कि हमने देश और समाज को क्या दिया? सब कुछ एक दिन में ठीक हो जाएगा ऐसा संभव नहीं है। ऐसा सोचना भी गलत हैसुधारने का संकल्प लेने से सुधार होगा। सुधार एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। हमें मिलजुल  कर इसे प्रकिया को गतिशील बनाना है। 
"रंग लाएगी किसानी। यह धरा होगी सुहानी॥
आने वाली कोपलों को- देके देखो खाद-पानी॥"


05 मई 2011

***** सच+इन डाट काम


                                                   -डॉ. डंडा लखनवी

क्रिकेट-फीवर जबसे भारत पर चढ़ने लगा है आदमी ’इन’ और ’आउट’ के चक्कर में घनचक्कर बन गया है। किसी के लिए काला धन ’आउट’ करना लोकहित है तो किसी के लिए काला धन ’इन’ करना लोकहित है। सत्ता के अन्दर और बाहर इन और आउट की रस्साकसी चल रही है। कम्प्यूटर  की भाषा में ‘इन’ इंडिया का संकेतक है। साईं बाबा जब तक चिकिसकों की निगरानी में, अस्पताल में और अपने शरीर में थे तब तक वे ’इन’ थे। अब वे अस्पताल और शरीरिक बंधन दोनों से ’आउट’ हैं। मीडिया में उनके आउट होने की कई दिनों तक जोर-शोर से चर्चा रही। जब तक वे ’इन’ रहे, आश्रम स्वर्णमय रहा। उनके आउट होते ही सोना भी आउट हो गया। शरीर त्यागने के बाद बाबा कहाँ गए जब कोई नहीं बता पा रहा...तो सोने  के विषय में कौन बता पाएगा?

अंग्रेजी भाषा में कई प्रकार के मेल हैं-यथा मेल, फीमेल, ई-मेल,  जी -मेल  आदि  आदि। हिंदी भाषा का ’मेल’ मिलावट-बोधक है। मिलावट  से चमत्कार पैदा होता  है। ’इन’ के पहले यदि ’सच’ मिलाने से अर्थ यू-टर्न ले लेता है और एक नया शब्द ’सचिन’ पैदा होता है। सच और इन का योग बड़ा अनोखा है। सचिन इंडिया में जन्मा है। सचिन इंडिया का सच है। उसके रिकार्डों को सामने रख लोग कहते हैं-’सच+इन+इंडिया’ या ’सचिन इंडिया’। इंडिया सचिनमय है और सचिन इंडियामय। सचिन भारत में कहाँ रहता है सब जानते हैं। मैं सचिन को फोन लगाता हूँ रिस्पांस मिलता है लेकिन ’सच’ को  फोन लगाता हूँ तो कोई रिस्पांस नहीं मिलता है।

कहा जाता है राजा हरिश्चन्द्र की सच से गहरी यारी थी। उससे याराना निभाने में उन्हें लोहे के चने चबाने पड़े। दर-दर की खाक़ छाननी पड़ी। शमसान घाट में टैक्स-पेई की उन्होंने अद्भुत मिसाल रखी किन्तु चरित्र पर टैक्स-चोरी का धब्बा नहीं लगने दिया। सच का रास्ता काँटों भरा है। बाद के राजाओं ने काँटों से बचने वाले जूते पहनने शुरू किए अथवा सच से मुख मोड़ बैठे इस संबंध में इतिहास कुछ बोलता नहीं। वह मौन साधे हुए है।

आधुनिक युग में राजा-रानी मतपेटी से जन्म लेने लगे हैं। अत्याधुनिक  युग में राजाओं और रानियों की जननी इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन है। माँ-बाप के चरित्र का असर बच्चों पर पड़ता है। वोटिंग मशीनों  का उसकी संतानों पर क्या असर पड़ा यह व्यवहार-विज्ञान से पूछिए। इतना  ज़रूर है आधुनिक राजा-रानियों की जननी वोटिंग-मशीनों का राजा हरिश्चन्द्र से रक्त-संबंध नहीं है। इसलिए उसकी संतानों का हरिश्चन्द्र की परंपरा निभाने में रुचि नहीं है। आजादी के बाद सरकारी कार्यालयों में नारा लिखा रहता था-’सत्यमेव जयते’। अब यह नारा अपने स्थान पर नहीं दिखता है। उसके विस्थापित होने के दो कारण हैं वह मिट चुका है अथवा ’असत्यमेव जयते’ द्वारा पिट चुका है।