20 मई 2011

+++++आरक्षण : सत्ता का गुलगुला

     -डॉ० डंडा लखनवी
आरक्षण के मुद्दे पर अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में कुछ अर्से पूर्व मुझे कुछ लेख पढ़ने को मिले। वादों- प्रतिवादों के बीच से गुजर कर एक धारणा बनी क़ि भारत में आरक्षण की व्यवस्था प्राचीन काल से विद्यमान है। पहले आरक्षण का लाभ किसी और के हिस्से में था। आज वह किसी और के हिस्से में है। पहले का भी आरक्षण वर्णवाद के आधार पर था। आज का आरक्षण भी उसी की देन हैं। आज आरक्षण का आरोप दलित एवं पिछड़े वर्गों का पर लगता है। क्या आज सरकारी और गैर-सरकारी  दो तरह की आरक्षण-व्यवस्था समाज में प्रभावी नहीं है? क्या हजारों वर्षों से आरक्षण का लाभ यही वर्ग उठाता रहा है? व्यवस्थाकारों की नीति और नियत से जुड़ा हुआ  यह प्रश्न  है जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए ।

वस्तुत: भारत की जनगणना चातुर्वर्णीय व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और सूद्र के अनुसार होती तो अच्छा था। उसके  आधार यह पता चल  सकता था  कि भारत के समस्त संसाधनों  पर किस वर्ग का कितना कब्जा है? आरक्षण पर विचार करते समय इस बात के आँकड़ों को देखा जाना चाहिए कि आरक्षित और गैर-आरक्षित वर्ग में किसका अधिक कालाधन देशी / विदेशी बैंकों जमा है? यह भी देखा जाना चाहिए कि आरक्षित और गैर-आरक्षित वर्ग में खेतिहर जमीन,  बड़े उद्योगों पर अधिक कब्जा किसका है? इस मुद्दे पर चर्चा में  यह भी देखा जाना आवश्यक है कि धर्म के शीर्ष पदों पर किसकी  कितनी भागीदारी है और सत्ता के प्रमुख पदों पर किस वर्ग का कितना कब्जा है? 


इन सबके बाद यह निर्णय किया जाना जाना उचित होगा क़ि आजादी के समुद्र-मंथन का लाभ किस वर्ग को ज्यादा मिला है जिस वर्ग को ज्यादा मिला हो उस पर अतिरिक्त कराधान लगाया जाय और जिस वर्ग को कम मिला है उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आरक्षण सही अर्थ में तभी कहलायगा। अन्यथा आरक्षण प्राचीन काल का हो अथवा आधुनिक काल का वह सत्ता का गुलगुला ही बना रहेगा। इसे जो खाएगा वह और मुख फैलाएगा  और जो इसे खाने को न पाएगा वह  हाय....हाय.... हाय...चिल्लाएगा


12 टिप्‍पणियां:

  1. सौ प्रतिशत सही बात
    आपसे पूर्ण सहमत

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  4. ये तो आरक्षण को सही मानने और उसको सही तरीके से कैसे लागू करे इस बारे मे तर्क है.
    मूल प्रश्न ये है कि क्या आज के परिवेश मे आरक्षण का जो आधार है वो सही है?
    आरक्षण कि जो आवश्यकता थी (समाज मे समानता लाने की) क्या आरक्षण उसे पूरा कर पा रहा है? अगर नही तो क्या इसके प्रारूप मे कमी है या समाज मे समानता की बात एक आदर्शवाद है जो यथार्थ मे स्वीकार नही किया जा सकता?

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  5. ..........
    मैं "आरक्षण" शब्द का का पुरजोर विरोध करता हूँ, क्योंकि आज इस आरक्षण शब्द से धार्मिक, सम्प्रदायिक एवम जातिवाद की बू आने लगी है, मेरा मानना है की आज की तारीख में आरक्षण का जो स्वरूप तैयार किया गया है उससे समाज में सुख, समृधि एवम खुशहाली नहीं वरन सम्प्रदायिकता एवम जातिवाद को ही बढावा मिल रहा है लिहाजा इस आरक्षण शब्द को ही ख़त्म कर "पैकेज" के रूप में एक ऐसी नीति तैयार की जाय जिसे सिर्फ और सिर्फ मानवीय आधार पर लागू किया जाय और धर्म, सम्प्रदाय एवम जातिगत भावनाओं से परे हर उस इन्सान को इस नीति के दायरे में लाया जाय जो वास्तव में इसके हक़दार हैं, अन्यथा आने वाले वर्षों में मैं नहीं तो कोई और लिखने को मजबूर होगा की ................
    हर कोई मसीहा तेरा है, पर मेरा मसीहा कोई नहीं ,
    वोटों की चिंता रात-रात, इस देश की संसद सोई नहीं ..........

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  6. डंडा लखनवी साहब!
    पहली बार आपके ब्लॉग पर आया. कई पोस्ट देखे. अच्छा लगा. सामयिक विषयों पर आपने डंडा चलाया ज़रूर लेकिन लखनवी नजाकत के साथ.
    ---देवेंद्र गौतम

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  7. आरक्षण की बैसाखी निकाल कर उन्हें सक्षम बनायें .

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  8. सार्थक लेख....

    आरक्षण मात्र राजनैतिक नफा-नुकसान पर जारी है | गरीबों को इसका कितना फायदा मिल रहा है ? शायद नहीं के बराबर ...

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  9. mera to kahna hai ki Aaraksan ek rajneeti khel hai aur esi ke bal pe Rajneta aapna apna dukan chala rahe hai.
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