25 मार्च 2011

********बीड़ा और बीड़ी

                                     -डॉ० डंडा लखनवी

पान लगाने की कला और उसे पेश करने के फ़न में ’बनारस’ अव्वल है। इसकी उत्तम प्रजाति उपजाने में ’महोबा’ का नाम है। हमारी सांस्कृतिक परंपरा में पान की प्रतिष्ठा सदियों पुरानी है। पूजन सामग्री में पान का विशेष महत्व है। प्राचीन काल के चिकित्सक अपनी कड़वी और बेस्वाद दवाओं को पान के बीच रखकर खाने की सलाह दिया करते थे। अतः कहा जा सकता है कि आधुनिक युग के कैपसूलों का उस युग में  पान विकल्प था। इसे लगाना अपने आप में एक विशिष्ट कला है। अनेक प्रकार के सुगंधित, स्वादिष्ट, स्फूर्तिदायक मसालों में यह लपेटा जाता था। इसके ऊपर विशेष कौशल से चाँदी-सोने का वर्क लगाया जाता था। उसे 'बीड़ा ' कहा जाता था। 


भारतीय समाज में बीड़ा उठाने की प्रथा सदियों पुरानी है। राज्य के चुनौती पूर्ण अभियानों को संपन्न करने के लिए जब कभी साहसी एवं पराक्रमी नायक की आवश्यकता पड़ती थी। तब उसकी सूचना व्यापक रूप से राज्य भर में प्रचारित कर दी जाती थी और पान का बीड़ा दरबार में निर्धारित स्थान पर रख दिया जाता था। चुनौतीपूर्ण अभियान को पूर्ण करने का संकल्प लेकर जो नागरिक आगे आता था वह दरबारियों के सम्मुख ’बीड़े’ को उठा कर खाता था। तत्पश्चात अभियान पूर्ण करने के लिए प्रयाण कर जाता था। अभियान को सफल करके लौटने पर उस व्यक्ति का राजकीय सम्मान किया जाता था। यह राज्य और व्यक्ति दोनों के लिए गौरव की बात होती थी। इस तरह बीड़ापायी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा में काफ़ी इजाफ़ा हो जाता था। भारत के ऐतिहासिक आख्यानों में बीड़ा उठाने का अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है। कालांतर में ’बीड़ा उठाना’ मुहावरे के रूप में प्रयुक्त होने लगा। इसका अर्थ है-’स्वेच्छा से किसी चुनौतीपूर्ण कार्य को पूरा करने की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति।’
    


प्रायः देखा गया है कि जिस उद्देश्यों को आधार मानकर कोई परंपरा जन्म लेती है धीरे-धीरे उसके उद्देश्यों में विचलन आ जाता है। समाज परंपरा के मूल उद्देश्यों से भटक जाता है। ऐसा इस प्रथा के साथ भी हुआ। लोग ’बीड़ा-उठाना’ भूल गए। बीड़ापायी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा को देखकर नकली बीड़ा-चबाने वालों की बाढ़ आ गई। क्योंकि नकली बीड़ापायी ओछेपन का दामन पकड़े थे। अत: वे अपनी फूहड़ता से सार्वजनिक स्थानों को गंदा करने लगे। बात बीड़ा चबाने तक सीमित रहती तो भी गनीमत थी। लकीर के फकीरों ने पान के पत्ते का विकल्प तेंदू का पत्ता खोज लिया। फिर तेंदू के पत्ते में तंबाकू को लपेट कर बीड़ा के साथ बीड़ी को भी मैदान में उतार दिया गया। अब बीड़ा, बीड़ी दोनों  हैं परन्तु हर क्षेत्र में व्याप्त चुनौतियों से लोहा लेने वाले नदारद हैं।

18 मार्च 2011

क्या फागुन की फगुनाई है


               -डॉ० डंडा लखनवी

क्या     फागुन    की     फगुनाई  है।
डाली    -   डाली         बौराई       है॥
हर   ओर    सृष्टि    मादकता     की-
कर   रही     मुफ़्त        सप्लाई  है॥

धरती      पर      नूतन    वर्दी     है।
खामोश      हो    गई      सर्दी     है॥
कर    दिया   समर्पण   भौरों       ने-
कलियों         में       गुंडागर्दी     है॥


मनहूसी         मटियामेट       लगे।
खच्चर    भी     अपटूडेट       लगे॥
फागुन     में   काला     कौआ    भी-
सीनियर        एडवोकेट         लगे॥


मत     इसे   आप    समझें मजाक़।
मुर्गा  -   मुर्गी   हो    या     पिकाक॥
बालीवुड      के       माडल       जैसे-
करते  वन   -  वन    में   कैटवाक॥


अब   इस   सज्जन  से आप मिलो।
फिश   पर  जो   फिदा    हमेशा हो॥
अप्रेन     पहने       रहता      सफेद-
है   बगुला,  लगता  सी०एम०ओ०॥


बागों      में      करते       दौरे      हैं।
गालों     में     भरे        गिलौरे    है॥
देखो    तों    इनका      रसिक   रूप-
शृंगारिक    कवि    सम    भौरे    हैं॥


जय      हो    कविता   कालिंदी  की।
जय     रंग     रंगीली     बिंदी   की॥
मेकप     में   वाह    तितलियाँ   भी-
लगती     कवयित्री     हिंदी      की॥


वह    साड़ी        में   थी   हरी - हरी।
रसभरी   रसों      से    भरी -  भरी॥
नैनों     से       डाका    डाल       गई-
बंदूक      दग     गई      धरी - ध्ररी॥

यह       फागुन    की   अंगड़ाई    है।
गुम       हो    जाती   तनहाई      है॥
स्वीकारो      हँसी   -   ठिठोली    के-
मौसम    की     यही     बधाई      है॥


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