31 दिसंबर 2011

नए वर्ष की मंगल कामनाओं के साथ....


मीठे सुरों के साज़ के सुरताल की तरह।
तेरे हसीन ख्वाब के महिवाल की तरह।
दिल में मोहब्बतों का उजाला लिए हुए-
मैं आ रहा हुँ दोस्त! नए साल की तरह॥
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सद्भावी-डॉ० सुरेश उजाला

25 अक्तूबर 2011

ज्योति-पर्व हार्दिक मंगलकामनाओं सहित...........


                                      - डॉ० डंडा लखनवी

मोटे -- मोटे रैट हों, जिस -------बंगले  के पास।
गण-पति जी का समझिए, उसमें आज
निवास॥1
 
लक्ष्मी  वाहन  को  कभी,  कहिए  नहीं उलूक।
वे रखते पिस्तौल अरु,  रायफलें ------ बंदूक़॥2


लक्ष्मी जी का वाहन = उलूक, उल्लू, आधुनिक वाहन और ड्राइवर हाईटेक हैं.                                               गणपति जी का वाहन = चूहा, आधुनिक वाहन और ड्राइवर हाईटेक हैं.

09 अक्तूबर 2011

बोध-बिहार


               

     

     
-डॉ० डंडा लखनवी

 



क्रोध -बोध  के बीच  में, चलता  सतत विरोध।
बोध-नाश पर क्रोध हो, क्रोध-विजय पर बोध॥

तीन  बुद्ध  की  ’शरण’ हैं, पाँच  बुद्ध के ’शील’।
तीन- पाँच से दुख सभी, सुख  में  हों तब्दील॥
 
'डंडा'  बोध - बिहार के, चिंतन   का  यह सार।
वधस्थलों  पर हो सकी,’अवध’  भूमि तैयार॥

पंच - शील से  जब  घटी, पंच -  मकारी  मार।
’डंडा’  तब  संसार में, चमका  अवध - बिहार॥

स्वर्ण  अक्षरों  में  मिला,  दर्ज़ा   जिसे  विशेष।
जहाँ न  वध का नाम था, वो
था अवध  प्रदेश॥

दसो  इंद्रियों  का जहाँ, बहा  सुमति   का  नीर।
गोमति का चिर अर्थ है, इंद्रिय - निग्रह   धीर॥

’डंडा’  फैजाबाद   है, अवध  -  शब्द   अनुवाद।
अवध  हमारी   संस्कृति, वध  करता  बरबाद॥

शरण= त्रिशण, शील= पंचशील, वधस्थल= बलि देनेके स्थान, पंच-मकार= मन - विचलन के पाँच आकर्षण, सुमति= अच्छा चिंतन, गोमति=चिंतन का सार, इंद्रिय-निग्रह=इंद्रियों पर नियंत्रण, धीर= धीरज, फ़ैजाबाद= आपदा मुक्त स्थान, अवध,

26 सितंबर 2011

बिल्ली का खंभा नोचना

                          
                -डॉ० डंडा लखनवी

हिंदी में एक मुहावरा है....... "बिल्ली का खंभा नोचना"। इस मुहावरे का अर्थ है कदाचार में पकड़े जाने पर कुपित होना, रोष प्रकट करना। यहाँ एक उदाहरण रख रहा हूँ। टिकट-विंडो पर लम्बी लाइन लगी होती है। एक व्यक्ति आता है और लाइन में लगे हुए लोगों को धकिया कर हाथ टिकट-विंडो में डाल देता है। यदि लोग आपत्ति करते हैं तो बहाने बनाता है। किसी तरह से जब टिकट लेकर दूर खड़े अपने साथियों के पास पहुंचता है तो चकमा दे कर जल्दी टिकट पाने पर इतराता है। कदाचार का यह एक उदाहरण मात्र है। कदाचारी के पास बहुत से बहाने होते हैं। उसकी हरकतें पर जब पकड़ी जाती हैं तो उसकी दशा 'बिल्ली का खंभा नोचने वाली' हो जाती है। ऐसी हरकतें  करने वाले विदेशी नहीं देशी लोग हैं, नेता ही नहीं, जनता भी है।

19 सितंबर 2011

सपने अति रंगीन.........


                                     -डॉ० डंडा लखनवी

राजनीति  के  घाट  पर, अभिनय  का   बाज़ार।
मिला डस्टबिन में पड़ा, जनसेवा  उपकार॥1                         

जब  से    नेता    दे  रहे, अभिनेता     को  मंच।
आमजनों को मिल रहे, तब से फिल्मी -  पंच॥2

फैशन - हिंसा - काम -छल, दें  टीवी - चलचित्र।
इन  सब  में  बाजार  है, इसमें    कहाँ   चरित्र?3

टीवी   ने  सबको    दिए, सपने     अति   रंगीन।
बदले   में  उसने  लिया, सामाजिकता   छीन॥4

न्यूज़  चैनलों  पर   ख़बर, लो   दे    रहीं   बटेर।
शाकाहारी    बनेंगे   अब, जंगल     के     शेर॥5

क्या  परोसतीं  देखिए,  लोक  लुभावन  फिल्म।
अदब  हो गया बेअदब, घिसा - पिटा सा इल्म॥6

’डंडा’  अब  चलचित्र  की, महिमा  बड़ी  विचित्र।
दावा युग - निर्माण   का, बिगड़ा  और  चरित्र॥7

जब  तक  फिल्में  रहेंगी,  युग - यर्थाथ   से दूर।
फैलेगा  तब   तक  नहीं, नैतिकता   का    नूर॥8

केवल  धन - धंधा   नहीं, फिल्मों  का  निर्माण।
उज्ज्वल  लोकाचार   हैं, इसके  असली   प्राण॥9 


28 अगस्त 2011

दोहों के आगे दोहा

                          -डॉ० डंडा लखनवी
अभिनायक  करने लगे, जब नायक के रोल।
नाटकीयता  बढ़  गई, मूल्य  हो  गए गोल॥
अभिनेताओं   को  लगे, नेताओं   के  शौक़।  देशी घी  की जगह पर, केरोसिन की छौंक
 

14 अगस्त 2011

*****जय महापर्व पन्द्रह अगस्त

                                                      -डॉ० डंडा लखनवी

जय हो, जय हो, मंगलमय हो, जय महापर्व पन्द्रह अगस्त।
                                          जय महापर्व पन्द्रह अगस्त।।


घर -  घर  में   बजी   बधाई    थी,
आजादी     जिस    दिन  आई थी,
पुरखों  ने     जिसकी  प्राणों    से-
क़ीमत     संपूर्ण     चुकाई      थी,

उस  स्वतंत्रता की रक्षा में  नित रहना होगा सजग - व्यस्त।
जय हो, जय हो, मंगलमय हो, जय महापर्व पन्द्रह अगस्त॥

आजादी      के       उपहार  मिले,
मन      चाहे       करोबार    मिले,
खुल   गए   गुलामी    के   बंधन-
जन - जन को बहु अधिकार मिले,

कर्तव्य   किए  बिन, याद रहे! अधिकार स्वत: होत निरस्त।
जय हो, जय हो, मंगलमय हो, जय महापर्व पन्द्रह अगस्त॥

हम    हिंदू     सिख   ईसाई     हैं,
मुस्लिम    हैं,   बौद्ध  -  बहाई  हैं,
बहुपंथी    भारत     वासी     हम-
आपस    में    भाई   -   भाई   हैं,

सारे  अवरोध  हटा कर हम, पथ अपना करते ख़ुद प्रशस्त।
जय हो, जय हो, मंगलमय हो, जय महापर्व पन्द्रह अगस्त


(नोट :  आजादी की स्वर्णजयंती दि० १५-८-१९९७ को डी-डी-१ से संगीतबद्ध रूप में प्रस्तुत रचना।)

19 जुलाई 2011

*****चाहने वाले उसके बुढ़ा जाएंगे

                -डॉ० डंडा लखनवी
पंगई        दंगई,       लुच्चई,     नंगई।
हर   जगह  बढ़  गई  आजकल  वाक़ई॥

अब   है  मौसम  का  कोई  भरोसा नहीं-
मार्च  में    जनवरी,  जनवरी   में   मई॥

भा   गया   हैरीपाटर   नई   पौध      को-
धूल   खाती    किनारे    कहीं  सतसई॥

जिसको  देखो  वो  सपने में ही बक रहा-
मुंबई,      मुंबई,         मुंबई,     मुंबई॥

राजा  दसरथ  अगर   आज  कोई   बना-
नोच  डालेगी   अब   की   उसे    केकई॥

गलियों-गलियों में करके सुना एमबीए.-
लड़की-लड़के   कहें   ले   दही,  ले  दही॥

प्यार     आहें     भरे  पहरेदारी    में  जो-
तो   मोबाइल  के  जरिए  मिले  चंगई॥

चाहने    वाले    उसके    बुढ़ा     जाएंगे-
नई   दिल्ली   रहेगी   नई    की    नई ॥


22 जून 2011

लोकपाल होगा नहीं, होगा ऐप्रिल-फूल

                                                 - डॉ० डंडा लखनवी


जब   चरित्र   निर्माण   की,  बात   गए  सब  भूल।
लोकपाल   होगा    नहीं,  होगा   ऐप्रिल  -   फूल॥1

औषधि    भ्रष्टाचार    की,  बस   चरित्र - निर्माण।
ये   ही   रक्षा - कवच  है, यही   राम   का   वाण॥2


मैंने     पूछा   प्रश्न    तो,  साध   गए    वे    मौन।        
लोकपाल  कल   दूध  का,  धुला   बनेगा   कौन?3 

जहाँ      राज्य - संसाधनों,   का  हो  बंदर  -  बांट।
वहाँ     कष्ट   बौने   सहें, मारे   मौज़    विराट॥4




डेमोक्रेसी   बन   गई, दे - माँ - कुर्सी  - जाप।
जटिल रोग  उपचार  में, साधू झोला  छाप॥5

चोट कहाँ  है  कहाँ   पर, चुपड़  रहे वो   बाम।
यूँ  वोटर की शक्ति 
वे,  कर   देंगे  नीलाम॥6

 




निर्णय   करें    विवेक    से,  मुद्दा   बड़ा     ज्वलंत।
जनता के प्रतिनिधि  प्रमुख, याकि स्वयंभू  संत॥7


रहा     अंधविश्वास    का,   विज्ञानों      से     बैर।
 कदम  बढ़ाता  ज्ञान जब , छलिया   खीचें   पैर  ॥8

                                     


09 जून 2011

भ्रष्टाचार के संस्कार घर से पड़ते हैं

                                         -डॉ० डंडा लखनवी

 
प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु का कथन है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या मनुष्य जन्मजात सामाजिक प्राणी है? सच बात तो यह है कि मनुष्य जन्मजात सामाजिक प्राणी नहीं है। वह शिक्षा से संस्कारिक होकर के सामाजिक बनता है। उसे सामाजिक बनाने के लिए हमारे यहाँ स्कूल, कालेज, प्राथमिक पाठशालाएं हैं। पूजागृह /  देवालयों की देश भर में कमी नहीं है। टी०वी० चैनलों पर धार्मिक उपदेश देने वाले लोग आदमी को चरित्रवान बनाने की कवायद में चौबीस घंटे व्यस्त रहते हैं। मीडिया भी समाज को जगाने के लिए खूब बेचैन रहता है। कुछ एजेंसियाँ तो इस कार्य को सदियों से कर रही हैं। अरबों-खरबों रूपए का बजट मनुष्य के चरित्र को सवांरने में व्यय हो जाता है। कुत्ते की दुम फिर भी टेढ़ी की टेढ़ी बनी हुई है। भ्रष्टाचार का ग्राफ दिनों-दिन क्यों चढ़ता चला जा रहा है। यह विचारणीय विषय है।

आजकल हमलोग भोग को कसकर पकड़े हुए हैं उसे और मजबूती से पकड़ने के लिए योग का सहारा ले रहे हैं न्याय के बिना भोग और योग दोनों निरंकुश हो जाते  हैं, पतित  हो जाते  हैं जहाँ न्याय है, वहां चरित्र है भ्रष्टाचार के संस्कार सबसे पहले घर से पड़ते हैं। हमने अपनी आराधना पद्धति से चरित्र सुधारने की बात को हासिए पर पहुँचा दिया है। ईश्वर सबके घर-घर जाकर चरित्र नहीं सुधरेगा। इस काम के लिए वह अनुबंधित नहीं है हम ईश्वर से अपने चरित्र को सुधारने की याचना नहीं करते हैं, उसे हम भूला बैठे हैं मनचाही मुरादें खूब माँगते रहते हैं। चढावा चढाते हैं और काम बनवाते हैं। वह हमारा प्री-पेड सेवक नहीं है। उसकी गरिमा का ध्यान रखिए। बचपन में उत्तीर्ण होने की कामना से विद्यार्थी चढ़ावा चढ़ाता है। भगवान भरोसे सफलता मिल जाती है तो हौसला बढ़ जाता है। और काम के लिए और चढ़ावा चढ़ाता है। इस तरह उसके श्रम-हीन जीवन की ओर कदम निकल पड़ते हैं। बड़े होकर आदत पड़ जाती है। प्रोफेशनल बन जाता है तो बड़े काम बनवाने के लिए वह बड़ी रिश्वत देता है। यह सब करते हुए उसे शर्म भी नहीं आती है। ऐसा विकृत हमारे सामाजिक जीवन का ढर्रा बन चुका है

संसार भर में व्यवस्था परिवर्तन की आंधी चल रही है। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है वहां भी उसकी माँगें उठ रही हैंईश्वर का एक नाम प्रभु  हैलोकतांत्रिक-व्यवस्था में प्रभुता सदैव किसी एक व्यक्ति की नहीं रहा करती है प्रायः जिन लोगों को प्रभुता सहज में मिल जाती है वे उसे साध नहीं पाते हैं। ख़ुद को ही ख़ुदा मान बैठते हैं। चढ़ावे को सेवा-शुल्क समझने लगते हैं। यह सामाजिक अशांति का एक प्रमुख कारण है। जिसका निराकरण योजनाबद्ध ढंग से तत्काल किये जाने की आवश्यकता है

04 जून 2011

आस्था को अग्नि-परीक्षा देने से मत रोकिए

                                               -डॉ० डंडा लखनवी

आजकल आस्था का ढ़ोल बड़ी जोरों से पीटा जा रहा है। आम जनता मीडिया के प्रवाह में बह जाती है। जब होश आता है तब बड़ी देर हो चुकी होती है। आस्था यह एक संवेदनशील मुद्दा है। इस पर गंभीरता-पूर्वक विचार किए जाने की आवश्यकता है। व्यक्ति की आस्था उसका नितांत निजी विषय है। किसी की आस्था से  छेड़छाड़ करने का किसी को हक़ नहीं होता है। यह दिल का और घर की सीमा का विषय है। जब आस्था घर की चाहारदिवारी से बाहर आ जाती है तो वह समुदायिक विषय-वस्तु बन जाती है। उसके घरके बाहर आने से अनेक लोग प्रभावित होते हैं। ऐसी दशा में उसे सत्य की कसौटी पर कसे जाने की आवश्यकता होती है। अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो कुछ व्यकित्यों की आस्था जाने-अनजाने पूरे समुदाय टोपा बन जाती है। वह टोपा सबके सिर पर फिट आए यह कैसे संभव है? देश आस्थाओं से नहीं कानून-व्यवस्था से अनुशासित होता हैआस्था और पाखंड दोनों अलग- अलग चीजें हैं। इन दोनों में आसानी से रिस्ता बनाया जाता रहा है। आस्था अगर शहद है तो पाखंड विष है। आप दोनों को एक साथ नहीं मिला सकते हैं।

पिछले कई महिनों में अखबारों में ऐसे समाचारों को आपने पढ़ा है। जिनमें साधु-वेश में आस्था के नाम पर पाखंड़ियों ने महिलाओं को फंसाया और बलात्कार किया। पकड़े जाने पर उन्होंने अपनी हवस का शिकार बनाए जाने बातें स्वीकार कीं। आस्था के नाम पर पशुबलि और नरबलि चढ़ाए जाने के समाचार यदा-कदा आज भी सुर्खियों में आते रहते  हैं। आस्था के नाम पर वाजिब कीमत चुकाए बिना भू माफिया सार्वजनिक जमीन को लूट रहे हैं। जन-सहयोग से वे पहले जमीन घेरते है और बाद में उसे निजी संपत्ति बना लेते हैं। यह काम सुनियोजित तरीके से अविकसित क्षेत्रों के चौराहों के निकट खूब होता है। जब क्षेत्र विकसित हो जाता है तो उस स्थान को व्यावसायिक बना दिया जाता है। ऐसी आस्था से कुछ लोग लाभ की स्थिति में आ जाते है किन्तु को कुछ के हिस्से में हानि ही हानि आती है। आस्था के नाम पर यह सामुदायिक हितों पर कुठाराघात  है। यह कैसी आस्था है? आस्था निजी स्वार्थों की कठपुतली नहीं है। इसकी ओट में जो लोग अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं वे उनका यह प्रयास रहता है कि समाज में विवेक-शून्यता बनी रहेआस्था कभी किसी से अपनी आँख, मुंह, नाक, कान बंद करने के लिए नहीं कहती है। वह सत्य की आँच से घबराती भी नहीं है और न वह अग्नि-परीक्षा देने से कतराती है। आस्था अग्नि-परीक्षा से और चमकती है। आस्था को अग्नि-परीक्षा देने से मत रोकिए। उसे संसार के सामने असली कांति के साथ आने दीजिए। 

इस संबंध में मुझे एक कथा घटना याद आ गई- "बेसिक कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे को एक दिन अध्यापक ने पढ़ाया कि गंगा नदी हिमालय पर्वत से निकलती है। अगले दिन वह बच्चा अपनी माँ के साथ धार्मिक प्रवचन सुनने जाता है। वहाँ बताया जाता है कि गंगा भगवान शंकर की जटाओं से निकलती है।" अब आप बताएं- "बच्चा अध्यापक की बात माने अथवा उपदेशक की? यह प्रश्न उससे प्रतियोगी परीक्षाओं आगे पूछा जाएगा तो वह क्या जवाब देगा?"

30 मई 2011

+++++ पर्दे-शी और मर्दे-शी


                                       -डॉ० डंडा लखनवी


परदों पर लिखते हुए मुझे अपने परदादे याद आने लगे। जब मैं सात साल का था- "बताया गया माँ स्वर्गवासी हो गई।" निकटस्थ संबंधियों से स्वर्गवासी होने का मतलब जानना चाहा। बताया गया- "वह परदेसी हो गई है।"  मैंने अर्थ लगाया -"वो पर्दे में चली गई।" सात साल का बच्चा इससे अधिक अर्थ लगा भी क्या सकता था?पने पिता जी को मैंने देखा, दादा को देखा किन्तु परदादा को नहीं देखा। मेरे पैदा होने के पहले वे परदेसी हो चुके थे। पर+दादा के पिता जी उसके पहले परदेसी हो चुके थे। कहते हैं कि ईश्वर सबका पिता है। 'स्वर्ग' उसका  स्थायी पता है अथवा अस्थायी, यह तो वही बता सकता है। मुझे तो वह पर+देसी लगता है। ईश्वर और इंसान के बीच हमेशा पर्दा -सा रहा है। यह पर्दा -सा ही उसे पर+देसी बनाता है। पर्दे के प्रति ईश्वर का लगाव अधिक है। पर्दा उसके लिए बहुत उपयोगी है। वह इंसान के सामने बेपर्दा कभी नहीं हुआ। वह पर्दे में बना रहे तो ही अच्छा है। यदि वह पर्दे के बाहर आ गया तो उनके लिए मुसकिलें खड़ी हो सकती हैं जो खु़द को ईश्वर घोषित किए हुए हैं।

यूँ तो परदे शब्द के गूढ़ार्थ कई हैं। एक परदे का मतलब उड़ने वाले पंख दे दे, 'पर' दे, 'पर' दे एक परदे का अर्थ उस वस्तु से है जिसकी ओट में छिपने की क्रिया हो और ’शी’ का संबंध 'नारी' से है। इस तरह से हिंगलिश में परदे+शी का अर्थ- 'पर्दे की ओट में रहने वाली नारी कहा जाएगा।'  पचास साल पहले भारत में अधिकांश नारियाँ पर्दे-she हुआ करती थीं। तब ’चादर’ फुल पर्दा होता था और ’घूंघट’ मिनी पर्दा। मिनी परदा भी देढ़ हाथ से कम का न होता था। परदे भी कई चीजों से बनते थे। टाट के पर्दे, चिक के पर्दे, कपड़े के पर्दे आदि-आदि। औरतों के इक्के-ताँगों पर बैठने के पहले उसे पर्दों से ढ़क दिया जाता था। पर्दे का महत्व उस समय इतना अधिक था कि घर की छत की मरम्मत के लिए मज़दूर भेजने के पूर्व गोहार लगवानी पड़ती थी-’पर्देवालियो! पर्देवालियो! पर्दे में हो जाओ! छत पर मजदूर चढ़ने जा रहे हैं।’ मजदूरों की नज़र उन पर पड़ने न पाए इसलिए वे घर में पर्दे+she हो जाती थीं। अब ये गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। बाजारवाद और उदारीकरण ने औरत को उदरीकरण का हुनर भी सिखा दिया है। तभी तो क्रिकेट की दीवानगी में पूनम पाँडे ने वस्त्रों से सन्यास लेने की घोषणा कर दी और इस लीक पर चलने वाली अन्य हीरोइनों का बाजा बजा दिया।

अबकी औरतें पर्दे-she नहीं हैं, वे मर्दे-she हैं। क्या कहा ? आप मर्दे-शी का मतलब नहीं समझ पाए! अजी! मर्दे-शी का मतलब- "मर्दों को सबक सिखाने वाली नारियाँ।" क्या करूणानिधि-सरकार का तख्ता पलट देने वाली जयललिता को आप मर्दे-शी नहीं मानते? क्या बुद्धदेव भट्टाचार्या -सरकार के गुब्बारे की हवा निकालने वाली ममता बनर्जी को आप मर्दे-शी  नहीं मानते? क्या मायावती को भी आप मर्दे-शी नहीं माँनते हैं? भारत में मर्दे-शी की फेहरिस्त बड़ी तेजी से बढ़ रही है। कुछ लोग खुद को काँग्रेशी कहते  हैं । उनकी पार्टी में -शी पहले से जुड़ा है। वह पुरानी she-पार्टी है उसकी कमान मर्दे-she के हाथों में पहले भी थी और आज भी है। क्या इन्दिरा गाँधी मर्दे-शी नहीं थीं। क्या रीता बहुगुणा मर्दे-शी की दावेदार नहीं हैं? क्या सोनिया गाँधी को आप मर्दे-शी नहीं मानते हैं? अजी! मेरी बातों पर आप हा-हा, ही-ही (He-He) कर रहे हैं। आगे का समय ही-ही का नहीं शी-शी (she-she)  का होगा ।


26 मई 2011

असली सालिग्राम हैं या नकली सालिग्राम हैं

                                                     -डॉ० डंडा लखनवी

आज भवन-निर्माण कराते हुए कुछ समय राजगीर और मजदूरों के बीच बिताना पड़ा। उनसे वार्तालाप करने के दौरान एक मज़दूर ने एक संस्मरण सुनाया। जिसे मैं यहाँ साझा कर रहा हूँ।

"गाँव में मेरे पड़ोसी के घर पर सत्यनारायण की कथा होनी थी। कथा को कराने के लिए सुदूर गाँव से पुरोहित बुलाने का काम मुझे सौंपा गया था। पुरोहित को बुलाने के लिए मैं उनके गाँव पहुँचा और कथा कराने का निमंत्रण दे कर साथ चलने का अनुरोध किया। पुरोहित जी निमंत्रण स्वीकार कर साथ चल पड़े। काफी दूर चले आने पर एक बाग के निकट उन्हें याद आया कि सालिग्राम की बटिया वो घर पर ही भूल आए हैं। वापस लौट कर बटिया लाने का समय न था। कथा का मुहूर्त निकला जा रहा था। पु्रोहित जी के सामने विकट समस्या थी। अचानक उन्होंने मुझसे कहा - "बच्चा! इस जामुन के पेड़ पर चढ़ जा।" मैं जामुन के पेड़ पर चढ़ गया। फिर उन्होंने कहा- "एक बढ़िया सा जामुन तोड़ कर मुझे दे।" उनके एक कहने के अनुसार मैंने एक बड़ा सा जामुन उन्हें तोड़ कर दे दिया। कथा कराते समय मैंने देखा  क़ि  पुरोहित जी ने जामुन को सालिग्राम की जगह पर रख दिया और पूरी कथा संपन्न करा दी। सालिग्राम की जगह पर बैठे जामुन को कोई जान नहीं पाया कि असली सालिग्राम हैं या नकली सालिग्राम हैं।"

20 मई 2011

+++++आरक्षण : सत्ता का गुलगुला

     -डॉ० डंडा लखनवी
आरक्षण के मुद्दे पर अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में कुछ अर्से पूर्व मुझे कुछ लेख पढ़ने को मिले। वादों- प्रतिवादों के बीच से गुजर कर एक धारणा बनी क़ि भारत में आरक्षण की व्यवस्था प्राचीन काल से विद्यमान है। पहले आरक्षण का लाभ किसी और के हिस्से में था। आज वह किसी और के हिस्से में है। पहले का भी आरक्षण वर्णवाद के आधार पर था। आज का आरक्षण भी उसी की देन हैं। आज आरक्षण का आरोप दलित एवं पिछड़े वर्गों का पर लगता है। क्या आज सरकारी और गैर-सरकारी  दो तरह की आरक्षण-व्यवस्था समाज में प्रभावी नहीं है? क्या हजारों वर्षों से आरक्षण का लाभ यही वर्ग उठाता रहा है? व्यवस्थाकारों की नीति और नियत से जुड़ा हुआ  यह प्रश्न  है जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए ।

वस्तुत: भारत की जनगणना चातुर्वर्णीय व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और सूद्र के अनुसार होती तो अच्छा था। उसके  आधार यह पता चल  सकता था  कि भारत के समस्त संसाधनों  पर किस वर्ग का कितना कब्जा है? आरक्षण पर विचार करते समय इस बात के आँकड़ों को देखा जाना चाहिए कि आरक्षित और गैर-आरक्षित वर्ग में किसका अधिक कालाधन देशी / विदेशी बैंकों जमा है? यह भी देखा जाना चाहिए कि आरक्षित और गैर-आरक्षित वर्ग में खेतिहर जमीन,  बड़े उद्योगों पर अधिक कब्जा किसका है? इस मुद्दे पर चर्चा में  यह भी देखा जाना आवश्यक है कि धर्म के शीर्ष पदों पर किसकी  कितनी भागीदारी है और सत्ता के प्रमुख पदों पर किस वर्ग का कितना कब्जा है? 


इन सबके बाद यह निर्णय किया जाना जाना उचित होगा क़ि आजादी के समुद्र-मंथन का लाभ किस वर्ग को ज्यादा मिला है जिस वर्ग को ज्यादा मिला हो उस पर अतिरिक्त कराधान लगाया जाय और जिस वर्ग को कम मिला है उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आरक्षण सही अर्थ में तभी कहलायगा। अन्यथा आरक्षण प्राचीन काल का हो अथवा आधुनिक काल का वह सत्ता का गुलगुला ही बना रहेगा। इसे जो खाएगा वह और मुख फैलाएगा  और जो इसे खाने को न पाएगा वह  हाय....हाय.... हाय...चिल्लाएगा


17 मई 2011

लमहों ने ख़ता की थी, सदियों ने सजा पायी


                                                                   -डॉ० डंडा लखनवी

दार्शनिक अरस्तु का कथन है मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मैं कहता हूँ मनुष्य मूल रूप से प्राणी (Man is animal) है। शिक्षा से वह संस्कारित होता है। फलत: वह सामाजिक प्राणी कहलाने योग्य बनता है। उसे प्राणी से सामाजिक प्राणी बनाने में यूँ तो अनेक संस्थाएं कार्य कर रही हैं। क्या शहर क्या देहात सभी जगहों पर......प्राथमिक पाठशालाएं  हैं पूजागृहों की देश भर में कमी नहीं है। टी०वी० चैनलों पर धार्मिक उपदेश देने वाले लोग आदमी को चरित्रवान बनाने की कवायद चौबीस घंटे व्यस्त रहते हैं। पुलिस, प्रशासन, कोर्ट-कचहरी, थाना, जेल आदि सभी तो मनुष्य के चरित्र को सुधारने में हलकान हैं। अरबों-खरबों रूपए का बजट सबके चरित्र को सवांरने में व्यय हो रहा है। फिर भी "कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी" वाली कहावत चरितार्थ होती है। वांछित परिणाम हासिल क्यों नहीं हो रहे हैं? आखिर आदमी को आदमी बनाने वाले हमारे प्रयासों में कहाँ कमी है? जिन एजेंसियों के कंधों पर मानवीय चरित्र को सुधारने का दायित्व है वे हाथी के दिखाने वाले दाँत तो नहीं बन गए हैं? उनकी करनी और कथनी में भेद तो नहीं है? क्या इसे तटस्थ भाव से जाँचने-परखने की जरूरत नहीं है?

चरित्र मानवीय-मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता से सवंरता है। सदाचार की राह पर चलने के लिए व्यक्ति को स्वयं पहल करनी होती है। चरित्रवान बनने के लिए आत्म-निरीक्षण और अवगुणों से छुटकारा पहली शर्त है। कोई किसी को जबरन चरित्रवान नहीं बना सकता  है। संयम और त्याग की आँच पर  ख़ुद को तपाना पड़ता है। हरामख़ोरी से बचना होता है। चरित्र बाहरी दिखावा नहीं अभ्यांतरिक शुद्धता है। चरित्र व्यक्ति के आचरण और व्यवहार से झलकता है। नेता जी सुभाषचंद बोस, सरदार भगतसिंह, रामप्रसादबिस्मिलआदि ने कभी सोचा न होगा कि जिस आजादी को प्राप्त करने के लिए वे जीवन की कुर्बानी दे रहे हैं वह भ्रष्टाचार के कारण  इतनी पतित हो जायगी। आजादी को खिलौना समझने वालों को कविवर बृजकिशोर चतुर्वेदीब्रजेशव्यंग्य के कटघरे में खड़ा कर कहते हैं-’कुर्ते सिलवा खादी के। मज़े लूट आजादी के॥चरित्र का यह संकट देश और समाज के लिए बड़ा घातक है। हमारे क्षुद्र स्वार्थ भावी पीढ़ी के लिए अभिशाप हैं।

मेरे एक कवि मित्र "तरंग" ने बैकुंठ की परिभाषा दी है। वे  'वय' का निषेधात्मक अर्थनहीं’ और कुंठ का अर्थ कुंठा मानते  हैं।अत: वह स्थान जहाँ कुंठा न हो। यदि परिवार के सदस्यों के बीच कुंठा नहीं है तो वहाँ बैकुंठ है। यदि पड़ोसियों के बीच कुंठा नहीं है तो वहाँ बैकुठ है। सुचरित्र से कुंठाओं  की गाँठ खुल जाती है चरित्र-संकट जहाँ  है, वहाँ नरक है। हमें सुखद भविष्य के लिए चरित्र-संकट से उबरना ही होगा। जियो और जीने दो की भावना का विकास करना होगा। आइए हम अपने-अपने गिरहबानों में झाँकें, अपना-अपना जमीर टटोलें। सोचें कि हमने देश और समाज को क्या दिया? सब कुछ एक दिन में ठीक हो जाएगा ऐसा संभव नहीं है। ऐसा सोचना भी गलत हैसुधारने का संकल्प लेने से सुधार होगा। सुधार एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। हमें मिलजुल  कर इसे प्रकिया को गतिशील बनाना है। 
"रंग लाएगी किसानी। यह धरा होगी सुहानी॥
आने वाली कोपलों को- देके देखो खाद-पानी॥"


05 मई 2011

***** सच+इन डाट काम


                                                   -डॉ. डंडा लखनवी

क्रिकेट-फीवर जबसे भारत पर चढ़ने लगा है आदमी ’इन’ और ’आउट’ के चक्कर में घनचक्कर बन गया है। किसी के लिए काला धन ’आउट’ करना लोकहित है तो किसी के लिए काला धन ’इन’ करना लोकहित है। सत्ता के अन्दर और बाहर इन और आउट की रस्साकसी चल रही है। कम्प्यूटर  की भाषा में ‘इन’ इंडिया का संकेतक है। साईं बाबा जब तक चिकिसकों की निगरानी में, अस्पताल में और अपने शरीर में थे तब तक वे ’इन’ थे। अब वे अस्पताल और शरीरिक बंधन दोनों से ’आउट’ हैं। मीडिया में उनके आउट होने की कई दिनों तक जोर-शोर से चर्चा रही। जब तक वे ’इन’ रहे, आश्रम स्वर्णमय रहा। उनके आउट होते ही सोना भी आउट हो गया। शरीर त्यागने के बाद बाबा कहाँ गए जब कोई नहीं बता पा रहा...तो सोने  के विषय में कौन बता पाएगा?

अंग्रेजी भाषा में कई प्रकार के मेल हैं-यथा मेल, फीमेल, ई-मेल,  जी -मेल  आदि  आदि। हिंदी भाषा का ’मेल’ मिलावट-बोधक है। मिलावट  से चमत्कार पैदा होता  है। ’इन’ के पहले यदि ’सच’ मिलाने से अर्थ यू-टर्न ले लेता है और एक नया शब्द ’सचिन’ पैदा होता है। सच और इन का योग बड़ा अनोखा है। सचिन इंडिया में जन्मा है। सचिन इंडिया का सच है। उसके रिकार्डों को सामने रख लोग कहते हैं-’सच+इन+इंडिया’ या ’सचिन इंडिया’। इंडिया सचिनमय है और सचिन इंडियामय। सचिन भारत में कहाँ रहता है सब जानते हैं। मैं सचिन को फोन लगाता हूँ रिस्पांस मिलता है लेकिन ’सच’ को  फोन लगाता हूँ तो कोई रिस्पांस नहीं मिलता है।

कहा जाता है राजा हरिश्चन्द्र की सच से गहरी यारी थी। उससे याराना निभाने में उन्हें लोहे के चने चबाने पड़े। दर-दर की खाक़ छाननी पड़ी। शमसान घाट में टैक्स-पेई की उन्होंने अद्भुत मिसाल रखी किन्तु चरित्र पर टैक्स-चोरी का धब्बा नहीं लगने दिया। सच का रास्ता काँटों भरा है। बाद के राजाओं ने काँटों से बचने वाले जूते पहनने शुरू किए अथवा सच से मुख मोड़ बैठे इस संबंध में इतिहास कुछ बोलता नहीं। वह मौन साधे हुए है।

आधुनिक युग में राजा-रानी मतपेटी से जन्म लेने लगे हैं। अत्याधुनिक  युग में राजाओं और रानियों की जननी इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन है। माँ-बाप के चरित्र का असर बच्चों पर पड़ता है। वोटिंग मशीनों  का उसकी संतानों पर क्या असर पड़ा यह व्यवहार-विज्ञान से पूछिए। इतना  ज़रूर है आधुनिक राजा-रानियों की जननी वोटिंग-मशीनों का राजा हरिश्चन्द्र से रक्त-संबंध नहीं है। इसलिए उसकी संतानों का हरिश्चन्द्र की परंपरा निभाने में रुचि नहीं है। आजादी के बाद सरकारी कार्यालयों में नारा लिखा रहता था-’सत्यमेव जयते’। अब यह नारा अपने स्थान पर नहीं दिखता है। उसके विस्थापित होने के दो कारण हैं वह मिट चुका है अथवा ’असत्यमेव जयते’ द्वारा पिट चुका है।


25 अप्रैल 2011

*****जनसेवा की शपथ

                                              - डॉ० डंडा लखनवी


अपने यहाँ मिल्क-बार नहीं हैं, तो न सहीबार तो हैं। उनके होने से कौन सा पहाड़ टूटा जा रहा है। रही सेहत की बात तो उसके लिए योजनाकारों ने जगह-जगह  विदेशी शराब के ठेके खुलवा ही दिए हैं। दारू का ज़ायका बढ़ाने के लिए मछली-मुर्गा की फार्मिंग चल ही रही हैं। रह गया सुअर, उसकी महानता के कहने ही क्या? जब देववाणी संस्कृत वाले उसे बा-राह कहते हैं तो जनवाणी हिंदी वालों की क्या बिसात कि वे उसे बे-राह कह सकें।
 
वैज्ञानिकों ने तो बारहों में अनेक खूबियाँ ढ़ूंढ निकाली हैं। उनका कथन है-‘बाराह गंदी जगहों पर रहते हैं।अपने पांडे का अपना बाराह-पुराण है। वे कहते पूछते हैं कि गंदगी कहाँ नहीं है? उदाहरण रूप में राजनीति को ही लेलें। वहाँ कौन स्वच्छता के झंडे फहर रहे हैं, रहने वाले वहाँ भी रह लेते हैं। बाराहों के व्यवहार-विज्ञान पर वैज्ञानिकों का विचार है-‘‘वे राह चलते-चलते पलटा मार जाते हैं। उनकी इस हरकत से असावधान लोग चोट खा जाते है।पांड़े कहते हैं-’’राजनीति के बाराह तो रोज़ ही पलटा मारते रहते हैं। कब किस बात को कह कर मुकर जाँय इसे कौन जानता है? वैज्ञानिकों के अनुसार- ‘‘बाराह के बाल सीधे और सख़्त होते हैं। उन्हें मनचाहे आकार में मोड़ना आसान नहीं होता।‘‘ पांड़े का दावा है कि-‘‘राजनीति के बाराहों के बाल कौन बड़े़ मुलायम होते है?’’ वैज्ञानिकों का मत है-‘‘बाराह की त्वचा में चर्बी की मोटी-मोटी पर्तें होती हैं। पांड़े प्रश्न करते हैं-‘‘राजनीति के बाराहों के गर्वीले और चर्बीलेपन पर क्या किसी को संदेह है?  

वैज्ञानिक कहते हैं-‘‘बाराह एक-दूसरे पर खूब कीचड़ उछालते हैं।’’ पांड़े का कथन है-‘राजनीति के बारहों का स्वभाव भी तो ऐसा होता है। उन्हें एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते और थूकते हुए किसने नहीं देखा ?’ पशु-विज्ञान में हुए नए शोधों से यह तथ्य प्रका में आया हैं कि बाराहों के रीर में दो प्रकार के वायरस पलते हैं। एक से मलेरिया और दूसरे से इंसेफेलाइटिस फैलता है। पांडे को इसमें भी अद्भुत समानता दिखी है। उनका कथन है कि राजनीति के बाराहों पर भी दो प्रकार के वायरस पलते हैं। एक धर्मवाद के वायरस फैलाते हैं और दूसरे जातिवाद के वायरस फैलाते हैं।
 
कई हरों में इंसेफेलाइटिस के वायरस आजकल डिस्को-डांस कर रहे हैं। उनकी घीगा-मस्ती और उधम-चैकड़ी से सैकड़ों नौनिहालों के प्राण-पखेरू उड़ चुके हैं। संसार भर में अपनी थू-थू कराने वाले उग्रवादी संगठन अलक़ायदा की भी एक नीति है। वह जब कोई वारदात करता है तो अलजजीरा नामक टी0वी0 चैनल के माध्यम से अपनी जि़म्मेदारी को कबूल कर लेता है। एक राजनीति के बाराह-गण ठहरे। सैकड़ों बच्चों के मौत के मुं में चले जाने के बाद जि़म्मेदारी लेने के लिए आगे नहीं आते हैं। पाडे़ कहते हैं -‘‘वे कोई उग्रवादी थोड़े हैं, न उन्हें पागल कुत्ते ने काटा हैआगे आएं जि़म्मेदारी लें और इत्तिफ़ा  दें।

.आजकल सार्वजनिक संस्थाएं विविध प्रकार के वायरसों की गेस्टहाऊस बन कर रह गई हैं। ढ़ीठ वायरस उनमें शरणार्थियों की तरह आते हैं और बाप की प्रापर्टी समझ कर क़ाबिज़ हो जाते हैं। वे डाक्टरों से नहीं डरते हैं अपितु डाक्टर लोग उनसे दूर भागते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के वायरस कुछ ज्यादा ही लग्गड़ हैं। इसलिए समझदार चिकित्सक वहाँ जाने से सदैव  बचते हैं। वे वहाँ जाएंगे और ही वहाँ के वायरसों से उनका आमना-सामना होगा। 
 
धवलता डाक्टरों के चऱित्र और वस्त्रों से टपकती है। उनकी उज्ज्वलता पर प्राइवेट-प्रैक्टिस का आरोप लगाना सरासर अन्याय है? जाँच होगी तो आरोपी अपना सिर पीटते रह जाएंगे देख लेना। चिकित्सकों की बेल होगी, जेल नहीं। ऐसे उज्ज्वल चिकित्सकों के रहते हुए कोई कैसे कह सकता है कि इंसेफेलाइटिस की मार से रामभरोसे अस्पताल में कराहता है। राजनैतिक बाराहों के वस्त्रों में तो वैसे भी बड़ा टिनोपाल रहता हैं। उन पर किसी प्रकार आरोप लगाना सूरज के मुख पर थूकना है। इसके लिए ये लोग हरगिज जिम्मेदार नहीं हैं। जनसेवा की सच्ची शपथ लेने का चलन राजनीति  में भी है और सच्ची ओथ चिकित्सक भी लेते हैं।