-डॉ० डंडा लखनवी
राजनीति के घाट पर, अभिनय का बाज़ार।
मिला डस्टबिन में पड़ा, जनसेवा उपकार॥1
जब से नेता दे रहे, अभिनेता को मंच।
आमजनों को मिल रहे, तब से फिल्मी - पंच॥2
फैशन - हिंसा - काम -छल, दें टीवी - चलचित्र।
इन सब में बाजार है, इसमें कहाँ चरित्र?3
टीवी ने सबको दिए, सपने अति रंगीन।
बदले में उसने लिया, सामाजिकता छीन॥4
न्यूज़ चैनलों पर ख़बर, लो दे रहीं बटेर।
शाकाहारी बनेंगे अब, जंगल के शेर॥5
क्या परोसतीं देखिए, लोक लुभावन फिल्म।
अदब हो गया बेअदब, घिसा - पिटा सा इल्म॥6
’डंडा’ अब चलचित्र की, महिमा बड़ी विचित्र।
दावा युग - निर्माण का, बिगड़ा और चरित्र॥7
जब तक फिल्में रहेंगी, युग - यर्थाथ से दूर।
फैलेगा तब तक नहीं, नैतिकता का नूर॥8
केवल धन - धंधा नहीं, फिल्मों का निर्माण।
उज्ज्वल लोकाचार हैं, इसके असली प्राण॥9
सपने अति रंगीन,
जवाब देंहटाएंगुनाह करें संगीन .
बहुत सुन्दर भाव समन्वय्।
जवाब देंहटाएंसत्य को उद्घाटित करते विचार अनुकरणीय हैं।
जवाब देंहटाएंसच्चाई को व्यंग का पुट देकर बहुत सुंदर भाव पेश किया है. नमन.
जवाब देंहटाएंटीवी ने सबको दिए, सपने अति रंगीन।
जवाब देंहटाएंबदले में उसने लिया, सामाजिकता छीन॥4
सटीक बात कहते सारे दोहे .
बेहतरीन व्यंग्य .....
जवाब देंहटाएंbahut utkrish rachna.
जवाब देंहटाएंसबकी पोल खोल रहें हैं आप , जबरदस्त व्यंग्य आपकी लेखनी को नमन और आपको बधाई
जवाब देंहटाएंआज तक सिर्फ तीन से चार बार ही आपके ब्लॉग पर आ पाया हूँ....मगर जब आया तरोताजा होकर लौटा...आज भी दिल जीत लिया आपके दोहों ने....!!
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