29 सितंबर 2010
किस भाँति जगे जन चेतनता....
प्रसिद्ध साहित्यकार -डॉ० तुकाराम वर्मा
के स्वर में उनके दो छंदो का आस्वादन
कीजिए।
प्रस्तोता -डॉ० डंडा लखनवी
25 सितंबर 2010
22 सितंबर 2010
नोकझोक : ज्योतिषियों और वैज्ञानिकों की
-डॉ० डंडा लखनवी
आजकल अनेक टी०वी० चैनलों पर ज्योतिष-शास्त्र से जुडे़ कार्यक्रम प्रमुखता से प्रसारित हो रहे हैं। कुछ कार्यक्रमों में वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों के बीच नोकझोक अर्थात शास्त्रार्थ भी दिखाया जाता है। इस नोकझोक में ज्योतिषियों के अपने तर्क होते हैं और वैज्ञानिकों के अपने। दोनों में से कोई भी हार मानने के लिए तैयार नहीं होता। अंतत: ज्योतिषी महोदय अपनी बात मनवाने के लिए अड़ जाते हैं। वैज्ञानिक जब उनकी बातों का खंडन करते हैं तो उन्हें क्रोध आ जाता है और वे अपनी योग विद्या के प्रभाव से विज्ञानवादी वक्ता को सबक सिखाने पर तुल जाते हैं। यह सबक येनकेन प्रकारेण उसे भयभीत करने का तरीका होता है। इस काम के लिए वह वैज्ञानिक पर मनोविज्ञान दबाव भी बनता है। वैज्ञानिक उसके दबाव में जब नहीं आता तो ज्योतिषी महोदय के तेवर धीरे-धीरे आक्रामक होते जाते हैं और विज्ञानवादी रक्षात्मक स्थिति में आ जाता है। कुल मिला कर यह एक ऐसा स्वांग होता है जो दिन भर चलता है। दर्शक गण हक्का-बक्का हो कर दोनों के तर्क-वितर्क में डूबते-उतराते रहते हैं। कोई निर्णय अंत तक नहीं हो पाता है। सारंश यह है कि निर्णय दर्शक को स्वयं करना होता है।
इस संबंध में मेरा मानना है कि ज्योति शब्द प्रकाश अर्थात आलोक का द्योतक है। प्रकाश के सम्मुख आने पर वे सभी चीजें दिखने लगती हैं जो अंधेरे के कारण हमें नहीं दिखाई पड़ती हैं। जिस प्रकार सजग शिक्षक अपने विद्यार्थियों के आचरण और व्यवहार में निहित गुण-दोषों को देखकर उसके जीवन के विकास के खाके का अनुमान लगा लेता है। वैसे ही ज्योतिषी भी जातक के जीवन में घटित होने वाली धटनाओं का अनुमान लगाता है, खाका खीचता है। इस कार्य में वह धर्म, दर्शन, गणित, अभिनय-कला, नीतिशात्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, पदार्थ-विज्ञान, शरीर-विज्ञान, खगोल-विज्ञान, समाजशात्र तथा लोक रुचि के नाना विषयों का सहारा लेता है। वस्तुत: ज्योतिष शास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है। यह पदार्थों पर आधारित विज्ञान नहीं है। इस विज्ञान की प्रयोगशाला समाज है। सामाजिक विज्ञानों के लिए अकाट्य सिद्धांतों का निरूपण करना कठिन होता है। सामाजिक परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है। इसके अंर्तगत होने वाले परिवर्तन के प्रभाव तत्काल दिखाई नहीं देते हैं। अत: पदार्थ विज्ञानों की भांति ज्योतिष के निष्कर्ष शतप्रतिशत खरे होने की कल्पना आप कैसे कर सकते हैं? ज्योतिष के निष्कर्षों की विविधता का एक अन्य कारण और भी है। कु़दरती तौर पर हर व्यक्ति का कायिक और भौतिक परिवेश दूसरे से भिन्न होता है। इस आधार पर उसका विकास स्वतंत्र और दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। यहाँ तक जोड़वां संतानों में भी कोई न कोई अन्तर अवश्य रहता है जिसके आधार पर वे पहचाने जाते है। इस आधार पर हर व्यक्ति का भविष्य भी दूसरे से भिन्न ठहरता है। अत: पदार्थ विज्ञान की भाँति इससे तत्काल और सटीक परिणामों की आशा करना व्यर्थ है। इसके परिणाम एक प्रकार के पूर्वानुमान होते हैं। हाँ, किसी धंधे को चमकाने के लिए मीडिया एक अच्छा माध्यम है । ‘ज्योतिषियों’ और मीडिया की आपसी साठगांठ से दोनों का धंधा फलफूल रहा है। वर्तमान को सुधारने से भविष्य सुधरता है। इस तथ्य अगर आप आत्मसात लें तो आपका भविष्य अवश्य सुखद होगा।
आजकल अनेक टी०वी० चैनलों पर ज्योतिष-शास्त्र से जुडे़ कार्यक्रम प्रमुखता से प्रसारित हो रहे हैं। कुछ कार्यक्रमों में वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों के बीच नोकझोक अर्थात शास्त्रार्थ भी दिखाया जाता है। इस नोकझोक में ज्योतिषियों के अपने तर्क होते हैं और वैज्ञानिकों के अपने। दोनों में से कोई भी हार मानने के लिए तैयार नहीं होता। अंतत: ज्योतिषी महोदय अपनी बात मनवाने के लिए अड़ जाते हैं। वैज्ञानिक जब उनकी बातों का खंडन करते हैं तो उन्हें क्रोध आ जाता है और वे अपनी योग विद्या के प्रभाव से विज्ञानवादी वक्ता को सबक सिखाने पर तुल जाते हैं। यह सबक येनकेन प्रकारेण उसे भयभीत करने का तरीका होता है। इस काम के लिए वह वैज्ञानिक पर मनोविज्ञान दबाव भी बनता है। वैज्ञानिक उसके दबाव में जब नहीं आता तो ज्योतिषी महोदय के तेवर धीरे-धीरे आक्रामक होते जाते हैं और विज्ञानवादी रक्षात्मक स्थिति में आ जाता है। कुल मिला कर यह एक ऐसा स्वांग होता है जो दिन भर चलता है। दर्शक गण हक्का-बक्का हो कर दोनों के तर्क-वितर्क में डूबते-उतराते रहते हैं। कोई निर्णय अंत तक नहीं हो पाता है। सारंश यह है कि निर्णय दर्शक को स्वयं करना होता है।
इस संबंध में मेरा मानना है कि ज्योति शब्द प्रकाश अर्थात आलोक का द्योतक है। प्रकाश के सम्मुख आने पर वे सभी चीजें दिखने लगती हैं जो अंधेरे के कारण हमें नहीं दिखाई पड़ती हैं। जिस प्रकार सजग शिक्षक अपने विद्यार्थियों के आचरण और व्यवहार में निहित गुण-दोषों को देखकर उसके जीवन के विकास के खाके का अनुमान लगा लेता है। वैसे ही ज्योतिषी भी जातक के जीवन में घटित होने वाली धटनाओं का अनुमान लगाता है, खाका खीचता है। इस कार्य में वह धर्म, दर्शन, गणित, अभिनय-कला, नीतिशात्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, पदार्थ-विज्ञान, शरीर-विज्ञान, खगोल-विज्ञान, समाजशात्र तथा लोक रुचि के नाना विषयों का सहारा लेता है। वस्तुत: ज्योतिष शास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है। यह पदार्थों पर आधारित विज्ञान नहीं है। इस विज्ञान की प्रयोगशाला समाज है। सामाजिक विज्ञानों के लिए अकाट्य सिद्धांतों का निरूपण करना कठिन होता है। सामाजिक परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है। इसके अंर्तगत होने वाले परिवर्तन के प्रभाव तत्काल दिखाई नहीं देते हैं। अत: पदार्थ विज्ञानों की भांति ज्योतिष के निष्कर्ष शतप्रतिशत खरे होने की कल्पना आप कैसे कर सकते हैं? ज्योतिष के निष्कर्षों की विविधता का एक अन्य कारण और भी है। कु़दरती तौर पर हर व्यक्ति का कायिक और भौतिक परिवेश दूसरे से भिन्न होता है। इस आधार पर उसका विकास स्वतंत्र और दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। यहाँ तक जोड़वां संतानों में भी कोई न कोई अन्तर अवश्य रहता है जिसके आधार पर वे पहचाने जाते है। इस आधार पर हर व्यक्ति का भविष्य भी दूसरे से भिन्न ठहरता है। अत: पदार्थ विज्ञान की भाँति इससे तत्काल और सटीक परिणामों की आशा करना व्यर्थ है। इसके परिणाम एक प्रकार के पूर्वानुमान होते हैं। हाँ, किसी धंधे को चमकाने के लिए मीडिया एक अच्छा माध्यम है । ‘ज्योतिषियों’ और मीडिया की आपसी साठगांठ से दोनों का धंधा फलफूल रहा है। वर्तमान को सुधारने से भविष्य सुधरता है। इस तथ्य अगर आप आत्मसात लें तो आपका भविष्य अवश्य सुखद होगा।
19 सितंबर 2010
कोने से कोने तक
-अशोक ऋषिराज दुबे
आदमी की आँखों में
आदमी का रक्त जमा ।
रोटी के टुकड़ों पर
भूखे का स्वप्न और-
स्वप्नों की महफिल में
मानव का यह समाज ?
वह समाज ?
क्षितिज पर कोलाहल रक्तिम हो-
यहाँ जमा वहाँ जमा
कोनों की दूरियों का
यह तनाव वह तनाव,
और तना और तना।
कोने से कोने को जोड़ दो,
सारे तनावों को तोड़ दो,
पहिए की परिधि पर-
विषमता का कालचक्र
समता के नामों में
एक नया नाम जुड़ा।
आदमी की आँखों में
आदमी का रक्त जमा।
("कोने से कोने तक" से साभार)
३२-चाणक्य पुरी, सेक्टर-१४ (पावर हाउस के निकट)
इंदिरा नगर, लखनऊ-२२६०१६
13 सितंबर 2010
मेरी कविता
-मनोज श्रीवास्तव
जन जीवन का आधार सतत वह ज्योति पुंज सविता ही है।
बंजर उपवन करने वाली जलधार स्रोत-सरिता ही है॥
जो राह दिखाती युग-युग से आक्रांत-क्लांत मानव मन को-
घनघोर तिमिर में आभा की वह एक किरण कविता ही है॥
जो चोटिल मन को सहला दे हम उसको कविता कह्ते हैं।
जो रोते बच्चे बहला दे हम उसको कविता कह्ते हैं॥
जिसको सुन रक्त शिराओं में बनकर लावा दौड़ने लगे-
जो चट्टानों को पिघला दे, हम उसको कविता कह्ते हैं।
जो राष्ट्र-धर्म का गान करे, हम उसको कविता कह्ते हैं।
जो जन-जन का उत्थान करे, हम उसको कविता कह्ते हैं॥
जिससे शोषित मानवता के आधारों पर लाली आ जाए-
जो दीपक को दिनमान करे, हम उसको कविता कह्ते हैं॥
कविता मन की गहराई है, कविता केवल परिहास नहीं।
कविता सम्पूर्ण चेतना है, कुछ शब्दों का विन्यास नहीं॥
हर युग में मानव के मन को प्रतिबिंबित यह करती आयी-
कविता इतिहास रचा करती, कविता केवल इतिहास नहीं॥
कविता का मर्म न इसमें है, बस हास और परिहास करे।
कर्तव्य कदापि नहीं कवि का कुछ शब्दों का विन्यास करे॥
जिस कवि-कविता ने ज्ञान दिया, अभियान दिया मानवता को-
उसको युग-युग तक नमन विश्व का गौरवमय इतिहास करे॥
मेरी कविता मोहताज नहीं आडंबर और छलावों की।
मेरी कविता मोहताज नहीं, प्रतिघातों और दुरावों की॥
मेरी कविता जन-मानस के भीतर उमंग उपजाती है।
मेरी कविता के बहने से चंदन की खुशबू आती है॥
मेरी कविता सुनने वाला दिनमान चलाता है जीवन।
हर भोर जगाता है कलियाँ, हर सुबह खिलाता है उपवन॥
मेरी कविता से ऊषा के गालों पर लाली आती है।
मेरी कविता अपने दम से अपना इतिहास बनाती है॥
2/78- विश्वास खंड,गोमती नगर,लखनऊ-226016
सचलभाष- 09452063924, 0522-2350955
जन जीवन का आधार सतत वह ज्योति पुंज सविता ही है।
बंजर उपवन करने वाली जलधार स्रोत-सरिता ही है॥
जो राह दिखाती युग-युग से आक्रांत-क्लांत मानव मन को-
घनघोर तिमिर में आभा की वह एक किरण कविता ही है॥
जो चोटिल मन को सहला दे हम उसको कविता कह्ते हैं।
जो रोते बच्चे बहला दे हम उसको कविता कह्ते हैं॥
जिसको सुन रक्त शिराओं में बनकर लावा दौड़ने लगे-
जो चट्टानों को पिघला दे, हम उसको कविता कह्ते हैं।
जो राष्ट्र-धर्म का गान करे, हम उसको कविता कह्ते हैं।
जो जन-जन का उत्थान करे, हम उसको कविता कह्ते हैं॥
जिससे शोषित मानवता के आधारों पर लाली आ जाए-
जो दीपक को दिनमान करे, हम उसको कविता कह्ते हैं॥
कविता मन की गहराई है, कविता केवल परिहास नहीं।
कविता सम्पूर्ण चेतना है, कुछ शब्दों का विन्यास नहीं॥
हर युग में मानव के मन को प्रतिबिंबित यह करती आयी-
कविता इतिहास रचा करती, कविता केवल इतिहास नहीं॥
कविता का मर्म न इसमें है, बस हास और परिहास करे।
कर्तव्य कदापि नहीं कवि का कुछ शब्दों का विन्यास करे॥
जिस कवि-कविता ने ज्ञान दिया, अभियान दिया मानवता को-
उसको युग-युग तक नमन विश्व का गौरवमय इतिहास करे॥
मेरी कविता मोहताज नहीं आडंबर और छलावों की।
मेरी कविता मोहताज नहीं, प्रतिघातों और दुरावों की॥
मेरी कविता जन-मानस के भीतर उमंग उपजाती है।
मेरी कविता के बहने से चंदन की खुशबू आती है॥
मेरी कविता सुनने वाला दिनमान चलाता है जीवन।
हर भोर जगाता है कलियाँ, हर सुबह खिलाता है उपवन॥
मेरी कविता से ऊषा के गालों पर लाली आती है।
मेरी कविता अपने दम से अपना इतिहास बनाती है॥
2/78- विश्वास खंड,गोमती नगर,लखनऊ-226016
सचलभाष- 09452063924, 0522-2350955
06 सितंबर 2010
आर्थिक संकट दोषपूर्ण योजनाएं, अकुशल नेतॄत्व तथा भ्रष्टाचार से उपजता है.......... -डॉ० डंडा लखनवी
आज बूढ़ों को आर्थिक संकट बढ़ाने में सहायक मानने वाले एक आलेख को पढ़ कर बड़ा क्षोभ हुआ। अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए अथवा मूल विषय से आम जनता का ध्यान बटाने के लिए कैसे-कैसे तर्क और आँकड़े दिए जाते हैं। वस्तुत: सच्चाई कुछ और लगती है। गेट और डंकल समझौते के तहत भारत में अब खुली अर्थ व्यवस्था ने अपने पैर पसार लिए हैं। जनता के पैसों से खडे़ किये सार्वजनिक उद्योगों को धीरे-धीरे खोखले हो गए। यही नहीं उनको औने-पौने दाम पर पूंजीपतियों के हाथों सौपा जा रहा है। परंपरागत कुटीर उद्योग की अवधारण छिन्न-भिन्न हो चुकी है। आम जनता के हितार्थ राज्य के द्वारा की जाने वाली कल्याणकारी योजानाएं खस्ता हाल स्थिति में हैं। सरकारें उनसे अपना हाथ खीच रही हैं। जनता को उसके हाल पर छोड़ देना, विलंबित न्याय की स्थिति पैदा करना भी शोषण का तारीका है। बेरोजगारी का आलम ये है कि युवा वर्ग को अपने माँ-बाप बोझ लगने लगे है। पूंजीवाद की एक नीति रही है --’यूज एण्ड थ्रो’।
भारत में अब उसका रंग स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा है। व्यक्ति जब तक युवा रहे उसे नीबू की तरह निचोड़ कर रस निकाल लो और जब वह बूढ़ा हो जाए तो उससे उसके जीवन का हक़ भी छीन लो।
युवावर्ग के पास उत्साह एवं श्रमबल होता है तो बूढ़े लोगों के पास अनुभव का खजाना। दोनों के सहयोग से उत्पादकता में वॄद्धि होती है और आर्थिक संकट दूर होता है। प्राचीन काल में भारत का लौह उद्योग, वस्त्र उद्योग, जहाजरानी उद्योग, रसायन उद्योग इसी आधार पर खड़े थे। भारत सोने की चिड़िया उसी दम पर कहलाता था। आर्थिक संकट दोषपूर्ण योजनाएं, अकुशल नेतॄत्व तथा भ्रष्टाचार से उपजता है। सुधी पाठक अब आप बताएं कि देश में आर्थिक संकट उपजाने में दोषपूर्ण योजनाएं, अकुशल नेतॄत्व तथा भ्रष्टाचार सहायक हैं अथवा बूढ़े माँ-बाप।
युवावर्ग के पास उत्साह एवं श्रमबल होता है तो बूढ़े लोगों के पास अनुभव का खजाना। दोनों के सहयोग से उत्पादकता में वॄद्धि होती है और आर्थिक संकट दूर होता है। प्राचीन काल में भारत का लौह उद्योग, वस्त्र उद्योग, जहाजरानी उद्योग, रसायन उद्योग इसी आधार पर खड़े थे। भारत सोने की चिड़िया उसी दम पर कहलाता था। आर्थिक संकट दोषपूर्ण योजनाएं, अकुशल नेतॄत्व तथा भ्रष्टाचार से उपजता है। सुधी पाठक अब आप बताएं कि देश में आर्थिक संकट उपजाने में दोषपूर्ण योजनाएं, अकुशल नेतॄत्व तथा भ्रष्टाचार सहायक हैं अथवा बूढ़े माँ-बाप।
04 सितंबर 2010
बापू तेरे चेलों के............
-डॉ० डंडा लखनवी
थू-थू, थू-थू, थू-थू, थू।
जननायक हैं या डाकू?
धोती और लंगोटी पे-
क्यों तुम जीते थे बापू?
बापू तेरे चेलों के-
चालचलन में क्यों बदबू?
तुमने सत्याग्रह रक्खा-
ये रखते कट्टे- चाकू?
कहने को जनसेवक ये-
किन्तु वास्तव में पेटू?
खु़द मनमाना वेतन लें-
जनता को देते आँसू॥
था वो अनाज भूखों का-
वो बोले कि सड़ जा तू॥
भूखी जनता चिल्लाती-
ये पीते, खाते काजू॥
नेतागीरी धंधा क्या-
उसमें क्या रक्खे लड्डू?
युवा हाथ को काम नहीं-
मंहगाई है बेकाबू॥
कहाँ मीडिया सोयी है-
कहाँ गया उसका जादू?
(चित्र-गुगल से साभार) |
थू-थू, थू-थू, थू-थू, थू।
जननायक हैं या डाकू?
धोती और लंगोटी पे-
क्यों तुम जीते थे बापू?
बापू तेरे चेलों के-
चालचलन में क्यों बदबू?
तुमने सत्याग्रह रक्खा-
ये रखते कट्टे- चाकू?
कहने को जनसेवक ये-
किन्तु वास्तव में पेटू?
खु़द मनमाना वेतन लें-
जनता को देते आँसू॥
था वो अनाज भूखों का-
वो बोले कि सड़ जा तू॥
भूखी जनता चिल्लाती-
ये पीते, खाते काजू॥
नेतागीरी धंधा क्या-
उसमें क्या रक्खे लड्डू?
युवा हाथ को काम नहीं-
मंहगाई है बेकाबू॥
कहाँ मीडिया सोयी है-
कहाँ गया उसका जादू?
सदस्यता लें
संदेश (Atom)