वीडियो-पार्ट-2
31 जनवरी 2011
22 जनवरी 2011
क्या आपको ब्लाग-फालोवरों की तलाश है?
-डॉ० डंडा लखनवी
साहित्य के क्षेत्र में कदम रखते ही कुछ उत्साही कलमकार तत्काल धन और यश की कामना करने लगते हैं। जब मनोकामना की पूर्ती नहीं होती है तो उनमें निराशा घर कर जाती है। इस संबंध मेरा मानना है कि साहित्य-लेखन एक साधना है। इसमें सिद्धि प्राप्त करने के लिए प्रतिभा के साथ लगन और धैर्य की आवश्यकता होती है। किसी को रचना लिखने के पूर्व लेखक को सोचना चाहिए कि क्या लिखना है और क्यों लिखना है। प्रयोजन स्पष्ट होगा तो लक्ष्य तक पहुँचना आसान होता है। लेखक को लेखन परंपरा का ज्ञान होना आवश्यक है। इसके लिए उसे खूब अध्ययन करना चाहिए। वरिष्ठ साहित्यकारों की संगति से भी कुछ लाभ मिल सकता है।
मनुष्य प्रशंसाप्रिय प्राणी है। प्रशंसा उसे उत्साहित करती है। वहीं थोथी प्रशंसा उसे गुमराह भी कर सकती है। ब्लागों की भीड़ में फालोवर जुटाने से कलमकार को बहुत कुछ हासिल होने वाला नहीं है। भीड़ प्रोत्साहित करती है, मार्गदर्शन नहीं। अत: भीड़ से प्रशंसा हासिल करना आत्म-सम्मोहित होना है। इस क्षेत्र के नवागंतुकों को विषय-मर्मज्ञ के द्वारा उनकी कला के गुण-दोषों को उजागर करने वाली टिप्पणी महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। इस तथ्य की पुष्टि में महाकवि वृंद के एक दोहे का उल्लेख करना यहाँ पर्याप्त होगा-
साथियो! आपका पुरषार्थ व्यर्थ नहीं जाएगा। अतएव आप अपनी प्रतिभा और लेखन-क्षमता को पहचानिए। धैर्य पूर्वक आप अपना काम निरंतर करते रहिए। कुछ ही वर्षों में यश और सम्मान आपका स्वमेव अनुगमन करेगा। अंत में अपनी गज़ल के एक शेर से इस आलेख को विराम देता हूँ-
साहित्य के क्षेत्र में कदम रखते ही कुछ उत्साही कलमकार तत्काल धन और यश की कामना करने लगते हैं। जब मनोकामना की पूर्ती नहीं होती है तो उनमें निराशा घर कर जाती है। इस संबंध मेरा मानना है कि साहित्य-लेखन एक साधना है। इसमें सिद्धि प्राप्त करने के लिए प्रतिभा के साथ लगन और धैर्य की आवश्यकता होती है। किसी को रचना लिखने के पूर्व लेखक को सोचना चाहिए कि क्या लिखना है और क्यों लिखना है। प्रयोजन स्पष्ट होगा तो लक्ष्य तक पहुँचना आसान होता है। लेखक को लेखन परंपरा का ज्ञान होना आवश्यक है। इसके लिए उसे खूब अध्ययन करना चाहिए। वरिष्ठ साहित्यकारों की संगति से भी कुछ लाभ मिल सकता है।
प्रसिद्ध उपन्यासकार स्वर्गीय अमृतलाल नागर ने मुझे सुझाव दिया था- "किसी रचना के लिखने के बाद उसे तत्काल प्रकाशित मत कराओ। कुछ दिनों के लिए उसे फाइल में दबा कर रख दो।" मैंने उनसे पूछा- "इस सुझाव के पीछे आपका क्या मंतव्य है।" उन्होंने कहा- "जल्दबाजी में रचना में अनेक ऐसे अनेक तथ्य छूट जाते हैं जिनके समावेश से रचना में चार-चाँद लग सकना संभव होता है। यदि आप आज लिखी रचना को कुछ माह बाद पढ़ोगे तो अनेक खामियाँ अपने आप पकड़ में आ जाएंगी। परिमार्जन लेखन प्रक्रिया का अंग है। बड़े से बड़े साहित्यकार को अपनी रचनाओं में परिमार्जन करना पड़ना है।"
मनुष्य प्रशंसाप्रिय प्राणी है। प्रशंसा उसे उत्साहित करती है। वहीं थोथी प्रशंसा उसे गुमराह भी कर सकती है। ब्लागों की भीड़ में फालोवर जुटाने से कलमकार को बहुत कुछ हासिल होने वाला नहीं है। भीड़ प्रोत्साहित करती है, मार्गदर्शन नहीं। अत: भीड़ से प्रशंसा हासिल करना आत्म-सम्मोहित होना है। इस क्षेत्र के नवागंतुकों को विषय-मर्मज्ञ के द्वारा उनकी कला के गुण-दोषों को उजागर करने वाली टिप्पणी महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। इस तथ्य की पुष्टि में महाकवि वृंद के एक दोहे का उल्लेख करना यहाँ पर्याप्त होगा-
"सरस कविन के चित्त को, वेधत हैं द्वै कौन।
असमझदार सराहिबो, समझदार को मौन॥"
साथियो! आपका पुरषार्थ व्यर्थ नहीं जाएगा। अतएव आप अपनी प्रतिभा और लेखन-क्षमता को पहचानिए। धैर्य पूर्वक आप अपना काम निरंतर करते रहिए। कुछ ही वर्षों में यश और सम्मान आपका स्वमेव अनुगमन करेगा। अंत में अपनी गज़ल के एक शेर से इस आलेख को विराम देता हूँ-
"अगर के बाटोगे आप खुशबू तो हाथ महकेंगे आपके भी।"
17 जनवरी 2011
कुर्सी तेरे चट्टे - बट्टे
कुर्सी तेरे चट्टे - बट्टे।
कैसे इतने हट्टे - कट्टे?
जिनके हाथों श्रम के ढ़ट्ठे-
वो क्यों निर्बल और सुखट्टे॥
जो खाते सब माल-मसाला-
वही दिखाते हमे ठिंगट्टे॥
सुबह - सुबह अख़बार बताते-
नक़ब - रहज़नी, छीन - झपट्टे॥
ये कैसी आजादी बापू-
दाँत हुए जनता के खट्टे॥
अब लंगोट की कद्र कहाँ है-
मूल्यहीन हो गए दुपट्टे॥
शोषक हित में कहीं न बाधा-
जनहित में लाखों अरझट्टे॥
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