04 अगस्त 2010

’है बड़ी ठगनी : मीडिया की माया’

                                                                 -डॉ० डंडा लखनवी

कुछ दिनों पूर्व लेखिका वीना शर्मा ने युवा वर्ग पर प्रिंट एवं इलेकट्रानिक्स मीडिया के सम्मोहन से हो रहे भटकाव पर अपनी चिंता जाहिर की थी। एक सीमा तक उनकी चिंता जायज है। इस संबंध में उनका कथन है-"युवा मन के चारों ओर का माहौल  में बसा रह्ता है- प्यार। वह प्यार से आच्छादित फ़िल्में देखता है। उसी प्रकार का साहित्य पढ़ता है। हर ओर वही प्रेम की बातें, प्रेम कथाओं का.....समुन्दर। अख़बार इन्हीं खबरों से लबरेज हैं। हर पत्रिका का कवर पेज़ किसी न किसी प्रेम में डूबी नायिका के चित्र से सज्जित ।  ऐसे माहौल में जिंदगी के बीस बरस बितने पर जब हो जाता है- प्यार। और लगने लगती है दुनिया रंगीन। फिल्मी परदे की बातें बनती हैं.....जीवन का सच। तब अचानक बदलने लगती है-दुनिया। पता नहीं कहाँ गुम हो जाता है- प्रेम। साहित्य....चुक जाता है...विद्यापति खो जाते हैं। खो जाती हैं प्रेम कथाएं....चारों ओर से होने लगता है....व्यंग्यों का हमला। तब बताया जाने लगता है उसे वासना.... और न जाने क्या-क्या।"

वे आगे कह्ती हैं-" ये सब इतना जल्दी घटता है कि प्यार करने वाले समझ ही नहीं पाते कि जो कल मूवी देखी थी- "देवदास", "हम आपके हैं कौन" और बहुत सी प्रेम में डूबी तहरीरें सब बकबास थी....तो क्यों रचा जा रहा था ऐसे बकबास, प्यार का माहौल? क्यों बनाई जा रही थी ऐसी झूठी पिक्चरें? और क्यों रच रहा था- ऐसा साहित्य?  जबाब दिया जा रहा है। अरे वह तो बस देखने और पढने के लिए है। ये सब सच थोड़े ही न होता है। बस देखो पढ़ो और भूल जाओ। अब तुम ही बताओ मेरे मित्र कैसा है ये प्रेम ? "

विद्वान लेखिका ने बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया  है। फिल्मों से यदि बहुत कुछ सीखने को मिला है तो भटकाव भी कम नहीं हुआ है। कबीर ने पाँच सौ वर्ष पूर्व कहा था-"माया तू बड़ी ठगनी"। फिल्मी दुनिया का दूसरा नाम "माया नगरी" है। वहाँ  सम्मोहन ही सम्मोहन है। इसी सम्मोहन के द्वारा मायावी ठगी का बहुत बड़ा और जटिल कारोबार चलता है। मायावी ठगी  का  सुनियोजित ढ़ंग हैं। अबोध जनों के साथ यह आसानी से हो जाती है। जब तक बचपन और युवा अवस्था रहती है। माँ-बाप की छत्रछाया सर पर होती है। संतानों का दर्द वे अपने कंधों पर उठाए रह्ते हैं। 

इस अवस्था में दुनियादारी के झमेलों से व्यक्ति अपरचित रहता है। प्रिंट मीडिया हो अथवा इलेकट्रानिक्स मीडिया दोनों के अधिकांश कार्यक्रम किशोर-युवा आयु-वर्ग वर्ग को केन्द्र में कर बनाए जाते हैं। यह समय जीवन को सवांरने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। जगत की वस्तुओं में रस भी इस उम्र में अधिक आता है। यही कारण है कि वे फिल्मों द्वारा निर्मित भाव-नगर में खो कर दिवास्वप्न देखने लगते हैं। असली जीवन से उन सपनों का कोई संबंध नहीं होता। जब वास्तविकता पता चलती है तब तक बड़ी देर हो चुकी होती है। दैहिक प्रदर्शन, कामुकता, और विलासिता संबंधी वस्तुओं को अत्यधिक प्रश्य दे कर आखि़र फिल्म वाले आम जनता को क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या इन घिसे-पिटे विषयों के अतिरिक्त और  कोई विषय ही नहीं बचे? क्या आम जनता के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने वाले विषयों का टोटा पड़ गया? लिजलिजा साहित्य और फूहड़ फिल्मों के माध्यम से युवा वर्ग को वास्तविक जीवन और कामुकता के दलदल में खींचना ठगी है, जधन्य अपराध है।  


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