31 मार्च 2010

‘रेडियो पत्रकारिता’ का लोकार्पण


डॉ0 आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ की पुस्तक
‘रेडियो पत्रकारिता’
का लोकार्पण समपन्न

               
         भिवानी। विगत सत्ताइस वर्षों से रेडियो लेखन, अभिनय, शिक्षण व पत्रकारिता से ‘आनन्द कला मंच एवं शोध संस्थान’ के अध्यक्ष आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘रेडियो पत्रकारिता’ का लोकार्पण 26 फरवरी 2010 को नीचम (म0प्र0) में एक राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकार डॉ0 वेदप्रकाश वैदिक के करकमलों से सम्पन्न हुआ। यह जानकारी देते हुए ‘आनन्द कला मंच एवं शोध संस्थान’ भिवानी के सचिव राजकुमार पवांर ने बताया कि विगत 26 एवं 27 फरवरी को नीमच (म0प्र0) के स्वामी विवेकानन्द शासकीय महाविद्यालय में ’हिंदी पत्रकारिता कल आज और कल’ विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस संगोष्ठी में डॉ वेद प्रकाश वैदिक मुख्य अतिथि थे। उनके साथ हरिद्वार से डॉ कमलकांत बुधकर और उनकी धर्मपत्नी संगीता बुधकर, दिल्ली से डॉ0 कुमुद शर्मा और उनके पति पत्रकार अरुणवर्धन और भिवानी से आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ और उनके कला एवं शोध संस्थान के सदस्य राजकुमार पवांर और आकाशवाणी रोहतक के उद्धोषक संपर्ण सिंह नीमच पहुँचे थे। रेलवे स्टेशन पर राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी की संयोजिका डॉ0 मीना चौधरी, डॉ0 आर0के0 गुरेटिया और महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ0 आर0एस0 वर्मा ने अतिथियों का फूल मालाओं से स्वागत किया।
         इस शोध संगोष्ठी के उद्धाटन सत्र में डॉ0 वेद प्रकाश वैदिक ने आनन्द प्रकाश ‘आटिस्ट’ की पुस्तक ‘रेडियो पत्रकारिता’ का लोकार्पण किया। इस अवसर पर स्वामी विवेकानन्द शासकीय महाविद्यालय नीमच (म0प्र0) के स्टाफ और शोधार्थियों के अलावा देश के कोने-कोने से आए पत्रकार और विद्वान मौजूद थे। महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ0 आर0एस0 वर्मा और हिंदी विभाग की सहायक प्राध्यापिका एवं संगोष्ठी की संयोजिका डॉ0 बीना चैधरी ने आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ को बधाई दी। पुस्तक के लोकार्पण के उपरान्त विद्वानों की उपस्थिति में आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ ने ‘रेडियो पत्रकारिता: चुनौतियाँ एवं संभावनाएं’ विषय पर अपना शोध-पत्र प्रस्तुत किया। रात्रि-सत्र में आयोजित काव्य-गोष्ठी में कन्या भूर्ण-हत्या के विरुद्ध जन-चेतना विषयक गीतों के अलावा आनन्द प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ ने अपनी एक प्रसिद्ध गजल ‘‘लिखी है ग़ज़ल मैंने दिल का लहू निचोड़ कर-पर कौन मानेगा इस बात को सिर्फ तुमको छोड कर’’ भी प्रस्तुत की। उक्त दोनों सत्रों में डॉ0 हरिमोहन बुधौलिया (उज्जैन), डॉ0 प्रेम भारती (भोपाल), पत्रकार अनिल लोढ़ा (जयपुर), डॉ0 संजीव कुमार भावनावत (जयपुर), डॉ0 कमलकांत बुधकर और उनकी पत्नी संगीता बुधकर (हरिद्वार), डॉ0 कुमुद शर्मा ओर उनके पति पत्रकार अरुणवर्धन (दिल्ली), डॉ0 किशोर काबरा (अहमदाबाद), डॉ0 कृष्ण कुमार अस्थाना (इंदौर), डॉ0 गुणमाला खिमेसरा (मंदसौर), श्रीमती प्रेरणा ठाकरे ‘परिहार’ (नीमच), डॉ0 प्रमोद रामावत ‘प्रमोद’ (नीमच), आकाशवाणी रोहतक के उद्धोषक संपर्ण सिंह बागड़ी, कार्यक्रम की संयोजिका डॉ0 बीना चौधरी और महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ0 आर0एस0 वर्मा विशेष रूप से उपस्थित थे।
         समारोह के समापन में डॉ0 बीना चौधरी ने सभी के हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित किया और आशा व्यक्त की कि यू0जी0सी0 द्वारा प्रयोजित ऐसी शोध संगोष्ठियों से न केवल शिक्षा में गुणात्मक सुधार आएगा बल्कि संचित अनुभवों एवं ज्ञान के आदान-प्रदान से शिक्षण एवं शोध को नई दिशाएं मिलेंगी।

28 मार्च 2010

सुरेश उजाला के चार मुक्तक

(1)  
सागर  के  सीप  हो   गए।
लक्ष्य के समीप  हो गए।।
शिक्षा जब मिल गई हमें-
अपने  ही  दीप   हो गए।।

 

(2)
खडे़ कुछ सवाल हो गए।
जान को बवाल हो गए।।
समझा था जिनको कर्णधार-
देश के दलाल हो गए।।
 

(3)
तिल से जो  ताड़  हो  गए।
राई  से   पहाड़  हो  गए।।
निधियाँ उनको फली मगर-
गाँव-घर उजाड़  हो  गए।।

(4)
अंधकार      को  दूर   भगाओ।
शिक्षित बन गुथ्थी सुलझाओ।
सभी   रास्ते   खुल       जाएंगे-
अपने दीप स्वयं बन जाओ।।
 

सचलभाष- 9451144480

18 मार्च 2010

विज्ञान और ज्योतिषशास्त्र

                            -डॉ० डंडा लखनवी


आजकल अनेक टी०वी० चैनल पर ज्योतिषशास्त्र से जुडे़ कार्यक्रम प्रमुखता से प्रसारित हो रहे हैं। प्राय: ऐसा  टी०आर०पी० बढ़ाने के लिए होता है। इस कार्यक्रम में ज्योतिषियों के अपने तर्क होते हैं और वैज्ञानिकों के अपने। दोनों में से कोई भी हार मानने के लिए तैयार नहीं होता। अंतत: ज्योतिषी महोदय को क्रोध आ जाता है और वे अपनी विद्या-बल के प्रभाव से विज्ञानवादी वक्ता को सबक सिखाने पर तुल जाते हैं। यह सबक येनकेनप्रकारेण उसे भयभीत करने का होता है। इस काम के लिए वह मनोविज्ञान का भरपूर उपयोग करता है। ज्योतिषी महोदय के तेवर धीरे-धीरे आक्रामक होते जाते है और विज्ञानवादी के स्थिति रक्षात्मक । कुल मिला कर यह एक ऐसा स्वांग होता है जो दिन भर चलता है। दर्शकगण हक्का-बक्का हो कर दोनों के तर्क-वितर्क में डूबते-उतराते रहते हैं।इस संबंध में मेरा मानना है कि.......


ज्योति शब्द प्रकाश अर्थात आलोक का द्योतक है। प्रकाश के सम्मुख आने पर वे सभी चीजें दिखने लगती हैं जो अंधेरे के कारण हमें नहीं दिखाई पड़ती हैं।......जिस प्रकार सजग शिक्षक अपने विद्यार्थियों के आचरण और व्यवहार में निहित गुण-दोषों को देखकर उसके जीवन का खाका खीच देता है। वैसे ही ज्योतिषी भी जातक के जीवन में घटित होने वाली टनाओं का अनुमान लगाता है, खाका खीचता है। इस कार्य में वह धर्म, दर्शन, गणित, अभिनय-कला, नीतिशात्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, पदार्थ-विज्ञान, शरीर-विज्ञान, खगोल-विज्ञान, समाजशात्र तथा लोक रुचि के नाना विषयों का सहारा लेता है। वस्तुत: ज्योतिषशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है। इस विज्ञान की प्रयोगशाला समाज है। सामाजिक विज्ञानों के लिए अकाट्य सिद्धांतों का निरूपण करना कठिन होता है। सामाजिक परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है। इसके प्रभाव भी तत्काल दिखाई नहीं देते हैं। यह बात ज्योतिषशास्त्र पर भी लागू होती है। अत: अन्य सामाजिक विज्ञानों की भांति इस विज्ञान के निष्कर्ष शतप्रतिशत खरे होने की कल्पना आप कैसे कर सकते हैं? इस  निष्कर्ष विविधता का एक यह भी कारण  है कि कु़दरती तौर पर संसार का हर व्यक्ति अपने आप में मौलिक होता है। उसके जैसा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं होता है। इस आधार  पर हर व्यक्ति का भविष्य भी दूसरे से भिन्न ठहरेगा। अत: शुद्ध विज्ञान की भांति इससे तत्काल और सटीक परिणामों की आशा करना व्यर्थ है।............ हाँ किसी धंधे को चमकाने के लिए मीडिया एक अच्छा माध्यम है । ‘ज्योतिषियों’ और मीडिया की आपसी साठगांठ से दोनों का धंधा फलफूल रहा है।.वर्तमान को सुधारने से भविष्य सुधरता है। इस तथ्य जो मनीषी परिचित हैं उन्हें मालूम हो जाता है कि उनका भविष्य कैसा होगा।

14 मार्च 2010

‍भड़ौवाकार बेनीभट्ट ‘बंदीजन’



भड़ौवाकार  बेनीभट्ट ‘बंदीजन’
       (सन् 1788-सन् 1836)
                                                                  
                                           - डॉ० गिरीश कुमार वर्मा
हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन युग में अवध के शासकों के संरक्षण में उनकी कला-विलासिता तथा सौन्दर्य-प्रियता की भावना को तुष्ट करने के लिए अनेक विशेषज्ञ कलाकार लखनऊ में आ जुटे थे। उनकी कलाओं में आलंकारिता, सूक्ष्मता, दक्षता तथा उत्कृष्टता थी। समकालीन राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियों का स्पष्ट प्रभाव तत्कालीन साहित्य में भी दृष्टिगत होता है। उर्दू साहित्य का तो लखनऊ केन्द्र ही बन गया था। दिल्ली के उजड़ने के पश्चात् वहाँ के अनेक श्रेष्ठ कवि यहाँ आ बसे और अवध के नवाबों का आश्रय पा कर अदब के स्तर पर लखनऊ की संमृद्धि में सहायक बने। यहाँ की तत्कालीन स्थितियों पर डा0 ब्रजकिशोर मिश्र का अभिमत है-“तत्कालीन समाज की प्रमुख वृत्ति आलंकारिक कही जा सकती है। प्रत्येक क्षेत्र में प्रसाधन का प्रयत्न बहुत स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। वास्तुकला में विशेष सूक्ष्मतायुक्त कला के दर्शन होते हैं। साहित्य भी इसी प्रवृत्ति से प्रभावित है। सर्वप्रथम मुक्तक शैली ही इस बात को लक्षित करती है कि कवियों में चमत्कारपूर्ण कलात्मक रचना करने की विशेष रुचि उत्पन्न हो गयी थी। चित्रण तथा अभिनय की वृत्ति को भी इसी मुक्तक रचना में चरितार्थ करने का प्रयत्न किया गया है।” कविवर बेनी भट्ट उसी परंपरा का पोषक माना जा सकता है। 


उनके काव्य का एक पक्ष हास्य का भी है। इस पक्ष पर डा0 ब्रज किशोर मिश्र की सम्मति है-“हास्य-वृत्ति का मुक्त वर्णन इन कवियों में कम मिलता है, किन्तु सरस्वती की गुप्तधारा के समान उसकी ख्याति प्रायः सभी स्थलों पर विद्यमान है। शृंगार का तो वह प्रधान सहायक बनकर आया है। अन्य स्थलों पर कहीं वाक्चातुरी के रूप में कहीं व्यंग्य, उपालम्भ के रूप में, कहीं केवल भाषागत चमत्कार प्रदर्शन में उसकी अभिव्यक्ति हुई है। सामाजिक व्यंग्य के रूप में प्रस्तुत हास्य रचना सबसे अधिक प्रत्यक्ष हुई है-‘भड़ौआ’ के रूप में अनेक कवियों ने इस प्रकार की रचना की।” हास्य-वृत्ति के आधार पर कविवर बेनी भट्ट द्वारा की गई साहित्य-सर्जना का अपना अलग महत्त्व है, यद्यपि उनके दो और ग्रन्थ “रस-विलास” एवं “टिकयतराय प्रकाश” भी हैं किन्तु तीसरे ग्रन्थ ‘‘भड़ौवा-संग्रह’’ को विशेष ख्याति मिली। मिश्र बन्धुओं के अनुसार-‘‘बेनी की सबसे उत्कृष्ट रचनाएं ‘‘भड़ौवा-संग्रह’’ में ही पायी जाती हैं। ऐसे भड़कीले भड़ौवे किसी ने नहीं बनाये।’’ कविवर बेनी के जीवनवृत्त पर प्रकाश डालते हुए डा0 सूर्यप्रसाद दीक्षित ने लिखा है-“लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला के अर्थमंत्री राजा टिकयतराय के दरबारी कवि बेनी इस नगर के गौरव रहे हैं। इनका जन्म तो बेंती (रायबरेली) में हुआ था, लेकिन निवास तो बहुत अर्से तक लखनऊ में रहा है।’’ उनके जीवनवृत पर “हिन्दी विश्वकोश” में उल्लेख मिलता है-“इनका जन्म सं0 1844 में हुआ था। ये लखनऊ के नवाब के दीवान टिकयतराय के यहाँ रहते थे। सं0 1892 में ये परलोक सिधारे।’’ 


इनके संबंध में एक तथ्य उल्लेखनीय है कि लखनऊ में बेनीदीन बाजपेयी नाम के एक अन्य रचनाकार उनके समकालीन थे। उन्होंने भी ‘बेनी’ नाम से काव्य रचना करना आरम्भ किया था परन्तु बेनीभट्ट के परामर्श पर बेनीदीन बाजपेयी ने ‘बेनी प्रवीन’ उपनाम से काव्य-रचनाएं कीं और साहित्य जगत् में विख्यात् हुए। कविवर बेनीभट्ट की पर्यवेक्षण-शक्ति बहुत व्यापक है। आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग उन्होंने अपनी रचनाओं में किया है। सड़कों पर फैले कीचड़ के कारण राहगीरों की कठिनाइयों पर प्रकाश डालते हुए बडे़ सजीव शब्दचित्र गढ़े हैं। वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए एक छंद में उन्होंने लखनऊ की गलियों का व्यंग्योक्तिपूर्ण उल्लेख किया है-“मीच तो कबूल पै न कीच लखनऊ की।” एक अन्य छंद में नागरिक सुविधाओं का चित्रण कर कवि ने प्रबंधनकारों की प्रच्छन्न निंदा बड़ी चतुराई से की है। उनकी वाक्चातुरी का परिचय निम्नलिखित छंद में प्राप्त होता है- 


                           "एकै बिछलत,  पिछलत तिन्हैं  लसे एकै, 
 एकै   परे कीच  में विधाता  को बकत है।
  ठौर - ठौर   नदी उमड़ी  है  नापदानन की,
हाथीवान हूलैं, हाथी  जाय न सकत है।।
बरसत  मेह  ऐसी   दशा  लखनऊ बीच,
बरनत  शेष   हूँ    के   आनन  थकत है।
देवता  मनाये पुन्य पिछिली सहाय डेरे,
  पहुँचत  जाख ताके  पूर  न  बखत  है।।” 

झूठी शान-शौकत का दिखावा करने वाले कुछ लोग चादर के बाहर अपने पाँव पसार लेते हैं। ऐसे लोगों की जब पोल-पट्टी खुलती है तो वे सामाजिक रूप से उपहास के पात्र बन जाते हैं। अपनी सूक्ष्मदर्शी दृष्टि से बेनी ने एक छन्द में एक ऐसे ही व्यक्ति का उपहास किया है। तत्कालीन परम्परा के अनुसार पगड़ी, जूता, चूड़ीदार पायजामा इत्यादि परिधान धारण करना तथा मशालची रखना संपन्नता की निशानी थी। रात्रि के समय मशाल लेकर आगे-आगे पैदल चलते हुए अपने मालिक का पथ-प्रदर्शन करना मशालची का काम होता था। सामान्य जनों के लिए माँग कर वस्त्र जुटा लेना तो आसान था परन्तु मशालची की व्यवस्था करना अत्यन्त कठिन था। कुछ लोग फिर भी छद्म-वैभव प्रदर्शन करने में अपनी शान समझते थे। बेनी कवि ने झूठा दिखावा करने वालों की बड़ी कुशलता से बखिया उधेड़ी है-

"तुर्रा  पगरी  पर  केराया  के करी पर सू,
आजु या घरी पर चले हैं सजि मेले को।

हंसि  मुख  फेरत   हैं, इत   उत हेरत हैं,

बार - बार  टेरत  हैं आदमी अकेले को।।

चूड़ीदार जामा घिरा एक हू न सामा और,

फेरि कुम्हिलाय गये जैहो पात केले को,

याही हेत भागे आगे-आगे सब लोगन के,

रात समै साथ ना मसालची उजेले को।।”

डा0 बरसानेलाल चतुर्वेदी ने उक्त भड़ौओं की प्रशंसा में लिखा है-“बेनी के भड़ौवे (सटायर) हिन्दी में अपने ढंग की एक मात्र वस्तु हैं। ‘भड़ौवे’ में उपहास पूर्ण निन्दा रहती है।‘’ अति कृपण व्यक्ति समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखे जाते हैं। उनके ऊपर संसार की उपेक्षा का कोई प्रभाव भी नहीं पड़ता है। ऐसे व्यक्तियों की बेनी ने अपने भड़ौवा छंदों में खूब ख़बर ली है। एक कृपण व्यक्ति ने अपने पिता के श्राद्ध के अवसर पर बेनी को कुछ दुर्गंधित पेड़े दिये थे। नीरस पेड़े उन्हें पसन्द नहीं आये। अतः उन्होंने पेड़ों के दानकर्ता को संलक्षित कर उसका उपहास प्रस्तुत छन्द में किया है। उनके उक्ति चमत्कार एवं वाग्वैद्ग्ध्यता का परिचय प्रस्तुत पंक्तियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है-

“चींटी न  चाटत, मूसे न सूंघत,
माछी  न  बास ते  आवत  नेरे।
आनि    धरे   जब    ते  घर  में,
तब ते रहै  हैजा परोसिन  घेरे।।
मटिहुँ में कछु स्वाद,मिलै इन्हें,
खात   सो    ढ़ूंढ़त  हर्रे -  बहेरे।
चैंकि  पर्यो  पितु लोक में बाप,
सुपूत के  देखि सराध के पेरे।।”

हास्य-उपहास के उद्वेग में आलम्बन की असंगतियों की प्रधानता रहती है। आलम्बन की उक्त असंगतियाँ शारीरिक, मानसिक, घटना, कार्यकलाप, रहन-सहन, शब्दावली आदि किसी भी स्तर पर हो सकती हैं। अंगुली कटा कर शहीदों में नाम लिखाने की उक्ति को चरितार्थ करते हुए थोड़ा सा दान देकर महादानी कहलाने की आकांक्षा रखने वालों की उस युग में भी कमी न थी। कहा जाता है कि ‘राय जी’ नाम के एक दानदाता बेनी भट्ट को एक हल्की-फुल्की रजाई दे कर के सस्ते में ख्याति प्राप्त करना चाहते थे, परन्तु चारणराय कवि को इतने सस्ते में मना पाना आसान न था। दानकर्ता की चाल को समाज के सम्मुख खोल कर उन्होंने उसे उपहास के कटघरे में खड़ा कर दिया-



"कारीगर कोऊ  करामात करि लायो लीन्ही,
मोलन  की  थोरी  जानि बनी  सुधरई है।

राय जी को राय जी राजाई दई राजी ह्वै कै,

सब    ठौर   सहर   मैं   सोहरत   भई  है।।

‘बेनी’  कवि  पाय के  अघाय रहे   घरी  द्वैक,

कहत   बनै  न   कछु  ऐसी  गति  भई  है।

सांस लेत उड़िगो उपल्ला औ भितल्ला सबै,

दिन   द्वैक   बातिन  को  रुई रह  गई है।।”

बेनी के जीवन प्रसंग से जुड़ी इसी प्रकार की एक और घटना है। ऐसा कहा जाता है कि दयाराम नाम के किसी व्यक्ति ने बेनी को कुछ आम भेंट किए जो उन्हें रास नहीं आए। अतः उन्होंने वक्रोक्ति के माध्यम से दानदाता की ख़बर ले कर हास्य की सृष्टि की है-


"चीटीं की चलावे को,मसा के मुँह आए जाए,
स्वास   की   पवन लगै  कोसन भगत है।

ऐनक  लगाय  मरु - मरु  के निहार जात,

अनु - परमानु  की  समानता  स्वगत है।।

बेनी कवि  कहैं, और कहाँ लौ बखान करौं,

मेरे जान   ब्रह्म  को  विचारबो  सुगत है।

ऐसे आम दीन्हें ‘दयाराम’ मन  मोद करि,

जाके  आगे  सरसों  सुमेर  सी लगत है।।"

उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि ‘बेनी’ ने लखनऊ में भड़ौवों के माध्यम से हास्य की ज्योति जगाने में विशेष कार्य किया। वाग्वैदग्ध्य एवं उक्ति चमत्कार के साथ इनकी रचनाओं में मुहावरों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। भाषा के व्यावहारिक स्वरूप की व्याप्ति उनकी रचनाओं की विशेषता है। आलंकारिकता और मादकता का सन्निवेश रीतिकाल की देन रही है, जो दरबारी संस्कृति और उसमें छिपे फ़ारसी प्रभाव का प्रतिफल है। बिम्बों और प्रतीकों की नवीनता कवि की रचनाओं की विशेषता है जो युगबोध का दिग्दर्शन कराने में सहायक सिद्ध होते हैं। छंदानुशासन में निबद्ध लयात्मकता और अलंकारों की स्वाभाविक उपस्थिति काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि एवं हास्य प्रवणता में सहायक है। कविवर बेनी का हिन्दी हास्य-व्यंग्य परंपरा के विकास में किया गया योगदान काव्य-शास्त्रीय एवं समाज-शास्त्रीय दोनों ही दृष्टियों से मूल्यवान है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता।

01 मार्च 2010

चिंगारी

-डा0 सुरेश उजाला




चिंगारी का प्रतीक है-क्रांति
क्रांति का प्रतीक है चिंगारी,
चिंगारी का काम-
आग लागाना
आग का काम-
राख बनाना


मेरा धंधा-
मेरा काम-जाग्रति
आग के बझानें से पहले-
बन जाता हूं-
चिंगारी


जहाँ भी हो-
आग बन चुकी है-
बुझने से पहले-चिंगारी


दृष्टान्त-
लगती-सुलगती-
दहकती-धधकती-
आग है-चिंगारी




बेलछी, नारायणपुर-
पिपरा, मुजफ्फर नगर-
मुजफ्फर पुर-साढ़ु पुर-
देहुली-जमशेदपुर,
मेहराना,
और
उसके बाद आजतक
न नजीर न लड़ाई


चिंगारी-
आग है, हक़ और सम्मान की
इसे जरूरत है-
सिर्फ हवा की
तब होगी-
तब्दील चिंगारी
आग में-आग राख में


फिर करेगी न्याय-
राख में दबी-चिंगारी,

नेचर का देखो फैशन शो-

                                                                     -डॉ० डंडा लखनवी

क्या       फागुन     की   फगुनाई    है।
हर     तरफ      प्रकृति      बौराई है।।
संपूर्ण        में      सृष्टि         मादकता -
हो      रही      फिरी    सप्लाई    है।।1

धरती       पर     नूतन       वर्दी    है।
ख़ामोश      हो      गई       सर्दी    है।।
भौरों      की      देखो     खाट      खड़ी-
कलियों       में   गुण्डागर्दी       है।।2

एनीमल      करते      ताक   -  झांक।
चल      रहा     वनों    में   कैटवाक।।
नेचर      का      देखो     फैशन     शो-
माडलिंग   कर   रहे   हैं  पिकाक।।3

मनहूसी           मटियामेट          लगे।
खच्चर      भी       अपटूडेट       लगे।।
फागुन      में      काला    कौआ     भी-
सीनियर        एडवोकेट        लगे  ।।4

उस      सज्जन    से  अब आप मिलो।
एक   ही      टाँग    पर     जाता  सो ।।
पहने     रहता     है      धवल      कोट-
वह बगुला  अथवा सी0  एम0  ओ0।।5

इस   ऋतु     में     नित   चौराहों पर।
पैंनाता       सीघों     को       आकर।।
उसको   मत     कहिए   साँड     आप-
फागुन  में  वही  पुलिस  अफसर।।6

गालों      में         भरे     गिलौरे    हैं।
पड़ते    इन      पर    लव’  दौरे  हैं।।
देखो      तो       इनका     उभय   रूप-
छिन  में   कवि, छिन   में  भौंरे हैं।।7

जय    हो   कविता    कालिंदी   की।
जय    रंग -  रंगीली   बिंदी      की।।
मेकॅप   में    वाह   तितलियाँ     भी-
लगतीं    कवयित्री    हिंदी      की।8

ये      मौसम     की    अंगड़ाई    है।
मक्खी    तक    बटरफ्लाई     है ।।
घोषणा   कर    रहे   गधे        सुनो-
इंसान       हमारा      भाई       है।।9
                                      सचलभाष-09336089753

25 फ़रवरी 2010

मौसम चुहुल मसखरी वाला



हास्य









      -डॉ०डंडा लखनवी
  
गली    देखिए   घाट देखिए।
रंगबिरंगी    हाट    देखिए।।

मौसम चुहुल-मसखरी  वाला,
आज   हुआ  स्टार्ट  देखिए।।

इनको  जनसेवक मत कहिए,
ये   अबके   सम्राट  देखिए।।

उनकी निधियों  में मत झाँको,
उनके  केवल   ठाठ  देखिए।।

आज  सदाचारी   हैं  वे  भी,
जो  कल  थे खुर्राट  देखिए।।

पॉलिस्टर    झाड़े  है   कोई,
कोई   पहने    टाट देखिए।।

शिवजी   के   बाराती   जैसे,
होरिहारों  के  पाट देखिए।।

उनको भी कुछ कुछ होता है,
उम्र  भले हो  साठ देखिए।।

दर्पण   के    सामने   निहारें,
बाबा  टाई    नॉट  देखिए।।

यूँ  झटके  दे  गया  आयकर,
खड़ी  हो गई खाट देखिए।।

क्हीं   कचैड़ी, कहीं  पकौड़ी,
कहीं चल रही चाट देखिए।।

भाभी  की  स्पिन बालिंग पर,
देवर जी  के  शॉट देखिए।।

पढ़ा  रही  साली  जीजा को,
सोलह  दूनी  आठ  देखिए।।

लव   लाइन  छूने  के  पहले,
उसका   मेगावाट   देखिए।।

होली  कहती  खोल के बैठो,
मन  के  बंद कपाट देखिए।।

सचलभाष-09336089753

23 फ़रवरी 2010

होली की वजह से..........



हास्य

    होली की वजह से..........
   
                     -डॉ० डंडा लखनवी

कुछ का  हृदय  उदार है होली की वजह से।
कुछ की नज़र कटार है होली की वजह से।।

कल तक वो किसी तरह से  पसीजता न था,
अब दे रहा उधार है  होली  की  वजह से।।

सोते  में  साले  आए  थे,  बन्दर बना  गए-
साली को नमस्कार है, होली की वजह से।।

रिक्से का  भाड़ा कर रहे चुकता दरोगा जी,
यह सारा चमत्कार है, होली  की वजह से।।

वो  संत   नहीं  महासंत, छूते   कहाँ   मय?
आँखों में बस खुमार है, होली की वजह से।।

साहब की  पे तो उड गई  मेकॅप  में मेम  के,
ऊपर  का  इंतिजार है, होली की वजह से।।

उनको न हुआ कुछ भी बदन उसका छू लिया,
मुझपे  चढ़ा  बुखार है, होली  की वजह से।।

रंगों से  लबालब  भरी  नर्से  लिए  सिरेन्ज,
हर  डाक्टर  फ़रार है होली  की वजह से।।

सोचा था  देंगी गोझिया होंली में भाभियाँ,
पर, लठ्ठ  पुरस्कार है, होली  की  वजह से।।

 
          सचलभाष- ०९३३६-८९७५






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जीवन सूत्र

                       
डॉ०  तुकाराम वर्मा 

गुण-अवगुण  से कीजिए,  भले  बुरे का  भेद।
अंध - भक्त जाने नहीं, क्या है स्याह-सफेद।।

संत  पुरुष निज तेज से, करे तिमिर का नाश।
अंतिम  क्षण तक वे भरें, जग में प्रभा-प्रकाश।।

अग्नि, भूमि, जल, वायु, नभ, कहते सत्य प्रत्यक्ष।
मानव     सब     समकक्ष हैं, सब  हो सकते  दक्ष।।

भूलें  हो  सकतीं मगर, जिन्हें  सत्य  स्वीकार।
वे निज त्रुटि को समझ कर, करते स्वयं सुधार।।

जीवन   के  भूषण  यही, इन्हें  करे  स्वीकार।
सत्य,  अहिंसा,  शिष्टता, शील, स्नेह सहकार।।

कुण्ठाओं  की   परिधि  में, कोई   रचनाकार।
क्या उदात्त अभिव्यक्ति को, दे सकता आकार।।

कवि का जीवन वृक्ष-सा, जगहित में अभियान।
हरे   प्रदूषण  अरु करे, प्राणवायु   का   दान।।

उसे  कभी  मत  मानना, तुम साहित्यिक छंद।
जिसको सुनकर व्यक्ति की, तर्कशक्ति हो मंद।।

जिसको  पढ़ने  से बने, पाठक  स्वयं  समर्थ।
उस कविता को जानिए, है  शाश्वत-अव्यर्थ।।



ई-1/2, अलीगंज, हाउसिंग स्कीम, सेक्टर-बी
लखनऊ-226024
सचलभाष-09936258819

21 फ़रवरी 2010

अ‍स्‍त्र-शस्त्र



       


-डॉ० तुकाराम वर्मा 


अ‍स्‍त्र   -   शस्त्र   निर्माण  का, यही  मूल  आधार।
स्वार्थ    हेतु    पर   प्राण  पर,  कैसे  करें   प्रहार।।

चीख-चीख कर कह रहा, अब  तक  का इतिहास।
अस्त्रों  - शस्त्रों  ने  किया, बाधित  विश्व विकास।।

अणु - आयुध   की    मार  से, होगा सर्व  विनाश।
निर्जन    धरती    देख   कर,  रोएगा    आकाश।।

अस्त्र   -   शस्त्र     धारी  कभी,  कहीं  न पाएं  चैन।
किन्तु शास्त्र ज्ञाता करे, सुख अनुभव दिन-रैन।।

अस्त्र    शक्ति   से  शब्द  का, क्षमता  क्षेत्र  महान।
हरे  अस्त्र   हर  प्राण  को,  शब्द   करे  कल्याण।।






ई-1/2, अलीगंज, हाउसिंग स्कीम, सेक्टर-बी
लखनऊ-226024
सचलभाष-09936258819

03 फ़रवरी 2010

गजल : मैं लिहाज़ में न बुला सका

गजल
मैं लिहाज़ में न बुला सका

                                -रवीन्द्र कुमार ‘राजेश’

वह मिला, नज़र से नज़र मिली, उसे आज तक न भुला सका।
वह तभी से दिल में समा गया, उसे आज तक न बता सका।।

ग़मे दौर,  दौर-ए-ज़िंदगी  में  सिवाय ग़म के मिला ही क्या-
मेरे  सामने  से गुज़र  गया, मैं  लिहाज  में  न बुला  सका।।
                                         
ये  गलत  बयान  है  आपका, कि मैं संगे दिल हँू  या बेवफा-                               
मुझे प्यार  किसने  दिया कभी  कि जिसे नहीं मैं निभा सका।।                                        

नहीं  कोई  शिकवा किसी से  है, जो  हुआ यह मेरा नसीब है-
मैं खुली किताब हँू सामन,े कोई  राजे़  दिल न  छुपा  सका।।

जिसे समझे  अपना  थे  आशियाँ  मेरे सामने ही उजड़  गया-
मेरी  बेवसी  को  तो देखिए, मैं  खड़ा  रहा न  बचा  सका।।


पद्मा कुटीर,
सी-27, बसंत बिहार,
अलीगंज हाउसिंग स्कीम,
लखनऊ-226024
दूरभाष :  0522&232154

लघु कथा

 मैचिंग कुंडली

01 फ़रवरी 2010

हिंदी हास्य के विशिष्‍ट  पुरोधा :    कविवर  शारदा प्रसाद ‘भुशुण्डि’
                                                          
                                    -डॉ०  गिरीश कुमार वर्मा


    हिंदी हास्य वांगमय में अपनी प्रखर छाप छोड़ने वाले लखनऊवासी साहित्यकारों में श्री शारदाप्रसाद वर्मा ‘भुशुंडि’ का नाम अग्रिम पंक्ति के रचनाकारों में लिया जाता है। उनका स्मरण आते ही आँखों के सम्मुख एक ऐसा चित्र उभरता है जो अकिंचनता से शक्ति ग्रहण करता है और जिसके चारों ओर एक सुमधुर व्यक्तित्व की सुगंध प्रवाहमान रहती है। साहित्य मर्मज्ञ उनके ज्ञान की गहराई नापने के लिए अपने-अपने मीटरों से प्रयत्न करते रहे हैं। सागर की व्यापकता और उसकी गहराई की थाह तो मनुष्य ने पा ली है परन्तु आकाश के साथ ऐसा नहीं होता। उसका आकलन तो हर दृष्टा अपनी दृष्टि और क्षमता के अनुरूप ही करता है। सबका अपनी बाहों का विस्तार है तद्नुरूप सबका अपना-अपना आकाश भी। भुशुंडि जी के संबंध में विद्वानों के अनुभव कुछ ऐसे  ही हैं।

    कद-काठी के अनुसार उनकी मुखाकृति गोल, शरीर सुडौल, रंग गेहुआँ, कद मध्यम, तथा व्यक्तित्त्व आकर्षक था। स्वभावतः वे मितभाषी थे, किन्तु जब कभी उन्हें अपना दृष्टिकोण प्रगट करने का अवसर मिलता, बडे़ नपे-तुले शब्दों में वे अपने विचार प्रकट करने से नहीं चूकते थे। उनकी अन्तर्दृष्टि अत्यन्त तीक्ष्ण थी जिसके स्पर्श से प्रत्येक वस्तुस्थिति की मार्मिकता स्वतः स्पष्ट हो जाती है। वे जिस पक्ष को प्रस्तुत करना चाहते बड़ी सरलता और रसात्मकता से व्यक्त कर देते थे। अपने अवकाश ग्रहण करने पर हुई विदाई समारोह की एक घटना के संबंध में उन्होंने बताया था कि कार्यालय के एक साथी ने जब उनसे कहा कि अब तो आपके दर्शन लखनऊ में न हो पाएंगे क्योंकि आप अपने गृह जनपद इलाहाबाद चले जाएंगे। इस पर उनका उत्तर था -‘‘लखनऊ की संस्कृति, सभ्यता में अब मैं पूरी तरह से रम गया हूँ इसे छोड़ कर अब कही और नहीं जा सकता।’’ अपने वक्तव्य की पुष्टि में निम्नलिखित रचना सुना कर उन्होंने श्रोताओं को भावविभोर कर दिया।

    ‘‘अब लखनऊ न छ्वाड़ा जाई।
     छ्वाड़त-छ्वाड़त घिसी जवानी खला बुढ़ापा आई।।
     चमक-दमक लखि हमरे पुर की इन्द्रहु रहे सिहाई।
     कह ‘भुशुंडि’ यमराज  पुरी का जाय हमार बलाई।।’’

    यद्यपि हास्य कवि के रूप में उन्हें अधिक ख्याति प्राप्त हुई तद्यपि उनका इतर विधाओं में लेखन प्रचुर मात्रा में है। उनके कृतित्व में अध्ययनशीलता, बहुश्रुतता, सरलता, सरसता की व्याप्ति सर्वत्र विद्यमान मिलती है। उनकी साहित्य-सर्जना पर दिए गए एक अनुशंसा-पत्र में डा0 सूर्यप्रसाद दीक्षित ने लिखा है-‘‘मैंने कविवर शारदा प्रसाद भुशुंडि की अनेक कृतियों का अध्ययन और आस्वादन किया है। वे हास्य और व्यंग्य के तो सिद्ध कवि हैं ही, उन्होंने गम्भीर और स्थायी महत्त्व का भी काव्य-प्रणयन किया है। भुशुंडि जी ने वर्षों के दुस्साध्य परिश्रम द्वारा श्रीमद्वाल्मीकिय रामायण का जो पद्यानुवाद किया है, वह सर्वथा विशिष्ट और असाधारण है।’’ अपने समकालीन हास्य-व्यंग्यकारों के संबंध में जब मैंने कुछ जानना चाहा तो सर्व श्री बलभद्रप्रसाद दीक्षित ‘पढीस’, अमृतलाल नागर, चन्द्रभूषण त्रिवेदी ‘रमई काका‘, भगवतीप्रसाद द्विवेदी ‘करुणेश’ आदि साहित्यकारों की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश भी डाला। इससे उनकी समकालीन रचनाकारों के प्रति सहृदयता परिचय प्राप्त होता है। मैंने उनसे प्रश्न किया कि जब अनेक रचनाकार अवधी-भाषा में हास्य लेखन कर रहे थे उस समय आपने खड़ी बोली का आश्रय क्यों लिया? उनका उत्तर था -‘‘आजादी के बाद भाषा आंचलिकता की सीमाओं से निकल कर राष्‍ट्रीय क्षितिज पर विस्तार पा रही थी। ऐसे में हास्य के माध्यम से हिन्दी को देश व्यापी बनाने में खड़ी बोली सर्वाघिक उपयुक्त थी।’’ वस्तुतः खड़ी बोली में उल्लेखनीय कार्य कर के उन्होंने अपनी अलग पहचान स्थापित थी। कवि गोष्ठियों एवं कवि सम्मेलनों में उनकी हास्य फुलझड़ियों तथा खट्टी-मीठी व्यंग्य बटियों पर प्रायः रसज्ञ श्रोता लोट-पोट हो जाते थे। उनका व्यंग्य लेखन लोकमंगल की भावना से अभिप्रेरित है। इस प्रकार उनका जब कभी विसंगति, विकृति, विडम्बना आदि से साक्षात्कार होता अपनी बेबाक लेखनी चलाने से नहीं चूकते। सन् 1952 में फैशनपरस्ती को लक्ष्य कर लिखी गई उनकी कुंडलिया आज भी कितनी प्रासांगिक है-

‘‘भाई   फैशन  ने यहाँ, खूब  अड़ाई टाँग।
पति  तो मुछमुंडे  हुये, पत्नी भरे न  माँग।।
पत्नी भरे न  माँग, फिरै  बन क्वारी-क्वांरा।
सूखी किसमिस एक, एक है सड़ा छुहारा।।
कह भुशुंडि  भन्नाय, बात अटपट बन आई।
नर-मादा में भेद, नहीं मिलता  कुछ भाई।।’’

    सातवें-आठवें दशक में पंजाब में प्रथकतावादियों द्वारा चलाये जा रहे हिंसक आन्दोलनों में सैकड़ों निर्दोष लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। समाचार पत्रों में तत्संबंधित खबरों को पढ़ कर कवि की आत्मा का तड़प उठना स्वाभाविक था। अतः कवि ने वक्रोक्ति का आश्रय ले कर उक्त विषय पर सिरफिरे लोगों  की कुंडलिया छंद के माध्यम से इस प्रकार ख़बर ली है-

‘‘यही  खबर उड़ती  हुई,  पहुँच  गयी  आकाश।
काली  जी   के   हो गये, भक्त  अकाली  खास।।
भक्त   अकाली   खास, दिव्य  नर  मेघ  रचाते।
मानव  सर    को  काट,   भेंट  में उन्हें  चढ़ाते।।
कह  भुशुंडि   भन्नाय, मार्ग  यह  बड़ा निराला।
इससे  मिलती ख्याति, पुण्य मिलता  है आला।।’’

    वर्तमान काल में सामाजिक-जीवन मूल्यहीनता से अभिशप्त है। राजनीति जनसेवा की अपेक्षाकृत एक व्यवसाय बन कर रह गई है। नेतागण अपने स्वार्थों को सिद्ध करने में अधिक सक्रिय दिखते हैं। आम जनता के कष्ट निवारण में उनकी अभिरुचि प्रायः न के बराबर होती है। फिर भी दिखावा ऐसा किया जाता है कि उनके जैसा  जनता की सेवा करने वाला संसार दुर्लभ है। ऐसे व्यक्तियों को उन्होंने अपने अंतःचक्षुओं से पहचाना और उनके मुखौटे को नोंचकर उनका वास्तविकता चेहरा जनता के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया। इस दृष्टि से उनकी निम्नलिखित कुंडलिया कितनी प्रभावी है-

‘‘नेता दर्शक - वृन्द ने,   उर  में  भर  संताप।
गाँधी  जी के  नाम का, जपा अनोखा  जाप।।
जपा  अनोखा  जाप,  बाद  में भाषण  चमके।
धुवाँधार   आदर्श   बहुत,  फूलों  के   गमके।।
कह   भुशुंडि गड़  गये, शर्म से  पटु  अभिनेता।
उन लोगों से अधिक, कुशल अब लगते नेता।।’’

    आधुनिक युग में उपभोक्तावादी संस्कृति की जड़ें जैसे-जैसे जमती जा रही हैं, वैसे-वैसे व्यक्ति सामाजिक दायित्वों से विमुख होता जा रहा है। अपनी सुख-सुविधा की फ़िक्र में वह व्यक्तिवादी बन गया है। पैसे से वह सब कुछ ख़रीद लेने में विश्वास करने लगा है। मानवीय मूल्य और भावनाओं का उसके समक्ष कोई अर्थ नहीं होता। वह अर्थ को ही सर्वोपरि समझ कर ‘उपयोग करो और फेंक दो’ की नीति अमल में लाता है। भुशुंडि जी समाज में व्याप्त इस आचरण का उपहास बड़ी मार्मिकता से करते हैं, यथा-

‘‘पैसा   जग  में  सार  है,  पैसा  है  संसार।
 पैसे  के  सब  यार हैं,  पैसा   है   सरदार।।
 पैसा  है   सरदार,   काम   पैसे  से  होता।
 पैसा  बिना प्रणाम, न  करते  पोती-पोता।।
 कह  भुशुंडि भन्नाय, समझ  में  आता ऐसा।
 पैसा ही  भगवान, स्वर्ग  का  दाता  पैसा।।’’

    आधुनिक शिक्षा की दशा किसी से छिपी हुई नहीं है। उसका स्तर दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है। इससे  छात्र-छात्राओं के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होना असंभव -सा है। कवि इस स्थिति से अत्यन्त व्यथित है। अतः उसकी अभिव्यंजना तीक्ष्ण-व्यंग्य में प्रस्फुटित हुई है। यथा-

‘‘अब   बच्चों  के  कोर्स  भी, ऐसे  हैं  श्रीमान।
ज्यों  चूहों की पीठ पर,  हैं गणेश   भगवान।।
जिसे  देख  कर गारजियन, बा  देते हैं खीस।
होटल के बिल सी हुई, अब  पढ़ने की  फीस।।
लड़के   तो  स्कूल    में,  छीला   करते घास।
उनको  ट्यूटर चाहिए, घर  में बारह  मास।।’’

    कभी बाढ़ तो कभी सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं की त्रासदी सहते हुए आम आदमी को दो जून की रोटी जुटाना एक ओर दुष्कर है, वहीं कुछ लोग वंचितों की विवशता का लाभ उठा कर अपनी तिजोरियाँ भरते रहते हैं। इसके अतिरिक्त प्रभावकारी अंकुश न होने के कारण राजस्व को लोग निजी पूंजी समझ कर मनमाना उपयोग  करते हैं। इस असंगति को देख कर कवि का मन क्षोभ से भर उठता है। परिणाम स्वरूप उसका आक्रोश अधोलिखित दोहे में फूटा है-

 ‘‘चूहा  मैत्री-अर्दली,   अधिकारी  सरकार।
   ये  दुबले  पड़ते  नहीं,  सूखा  पड़े हजार।।’’

        एक समय था जब ‘अतिथि देवो भव’ का भाव लोगों के हृदय में विद्यमान रहता था। आज परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। अब जिस घर में अतिथि आकर कुछ दिन ठहर जाता है, उस घर में सारा बजट गड़बड़ा जाता है। अतएव अथितियों से किनारा कर लेने में ही लोग अपनी भलाई समझने लगेे हैं। कभी-कभी न चाहते हुए भी मेहमान गले पड़ जाते हैं। वर्तमान युग में मेज़बान की इस मानवीय दुर्बलता पर कवि की परिहासिक टिप्पणी निम्नलिखित दोहे में उल्लिखित है-

               ‘‘महंगाई  की  मौज  की,  ऐसी गजब   उडान।
                     सिर के  खिचड़ी  बाल से, खलते हैं  मेहमान।।’’

    युवा अवस्था जैसे-जैसे ढ़लती जाती है वैसे-वैसे इंसान के सिर के बाल सफेद होने लगते हैं। यद्यपि ऐसे सफेद बालों की उसे कामना नहीं होती तद्यपि उन्हें नोंच कर फेंक भी नहीं पाता। विपन्नता की दशा में घर पर यदि मेहमान आ जाते हैं तो मेजबान की स्थिति भी कुछ वैसी ही होती है।इसी प्रकार अनेकानेक समसामयिक विषयों पर चुटीले व्यंग्यों से उनके सामर्थ्य का परिचय हमें प्राप्त होता है। राशनिंग के दौर में राशन-कार्ड की महत्ता को दर्शाने वाला अधोलिखित दोहा कितना मार्मिक है-

‘‘आज  अन्नदाता तुम्हीं,  तुम्हीं  हमारे लार्ड।
  बारम्बार  प्रणाम है, तुम्हें  राशनिंग  कार्ड।।’’  
  
    भुशुण्डि जी अप्रस्तुत में प्रस्तुत की उपस्थिति दर्शाने में बड़े पटु हैं। बीमार होने पर व्यक्ति स्वास्थ्य-लाभ प्राप्त करना चाहता है। भले ही उसके लिए उसे इन्जेक्शन लगवाना पड़े। भुशुंड़ि जी इन्जेक्शन के कष्ट में प्रसन्नता अहसास करते है। इस भाव-दशा के चित्रण में वाग्वैद्ग्ध्य द्वारा अनुपम हास्य उद्भूत हुआ है-

‘‘सुई  भोंकती  जिस  जगह, पकड़  प्रेम  से हाथ।
  अगुन-शगुन सुख उस समय, मिले एक ही साथ।।’‘

    इस प्रकार भुशुंडि जी के दोहे साहित्य की एक प्रशंसनीय उपलब्धि माने जा सकते हैं। उनकी प्रसिद्ध कृति ‘भुशुंडि दोहावली’ में अफसरशाही, आँखों का आपरेशन, वृद्धापन, प्याज की पकौड़ी, फैशन, आजादी की देन, समाजवाद, शिक्षा, प्रगतिवाद, पशु कविसम्मेलन, अंडा महात्म, विधाता की मूर्खता, पार्क प्रशंसा, मूंगफली, गड़बड़झाला आदि अनेकानेक विषयों पर दोहे संग्रहीत हैं। इन दोहों में व्यंग्य-विनोद से परिपूर्ण व्यंजना सर्वथा अपूर्व है। भुशुंडि जी के कृतित्व का प्रत्यक्षीकरण करते हुए डा0 दुर्गाशंकर मिश्र की टिप्पणी है-‘‘मैंने भुशुंडि जी की शैली का नाम विदुष शैली दिया है। भुशुंडि जी के व्यंग्य और हास्य को पढ़ा-लिखा शिष्ट समाज ही हृदयांगम कर सकता है। यह उनकी विशिष्टता भी है और लोक-प्रियता में बाधक भी है। अंग्रेजी शब्द ज्ञान से शून्य उनके हास्य का आनन्द नहीं ले सकता है।’’ वे प्रसंगानुकूल आधुनिक प्रतीकों, बिम्बों एवं उपमानों के प्रयोग से अपनी अभिव्यक्ति को अनुपम विभूति बना देते हैं। उनकी रचनाओं में कल्पना की अनुपम चमत्कृति ध्वनित हुई है। वे अपने मनोभावों को प्रकट करने के लिए कोई न कोई विनोदमय मार्ग खोज ही लेते हैं। उन्होंने कुछ साहित्यकारों की छवियों के हास्यमय शब्द-चित्र भी उकेरे हैं। प्रख्यात् रचनाकार श्रीनारायण चतुर्वेदी का कवि ने बड़ा ही सजीव और यथार्थ चित्र उकेरा है-

‘‘गोरे  से   पतले  -  दुबले  पर, हिन्दी   में    हैं   गामा।
 प्यारी,  रिस्टवाच से ज्यादा, जिन्हें सायकिल  श्यामा।।
अपटूडेट   ब्रिटिश  माडेल   पर  रोली   तिलक   लगाते।
एक   साथ  पंडित-मिस्टर  का   जो   हैं नियम निभाते।।
अपनों   से   खुलकर   मिलते    बाकी    से   तो मौन हैं।
जो  ‘बियान की   सड़क’  सुनाते   बाबूजी   ये कौन  हैं?’’

         जैसी आंग्ल-साहित्य मे पैरौडी लेखन की बडी सबृद्ध परंपरा रही है, वैसी परंपरा हिन्दी में अभी विकसित नहीं हो पाई है। अतः हिन्दी में पैरोडी साहित्य का अभाव आज भी है। भुशुंडि जी ने इस प्रविधि का महत्त्व समझा और इसे आगे बढ़ाने में पहल की। उन्होंने अनेक सिद्ध-प्रसिद्ध लेखकों एवं कवियों की रचनाओं पर उत्कृष्ट पैरोडियाँ लिखी हैं। इन पैरोडियों में आधुनिक जीवन की विद्रूपताओं, विसंगतियों, विडम्बनाओं तथा कटु यथार्थ का कच्चा चिट्ठा मिलता है। आज के नौजवानों के समक्ष रोजगार प्राप्त करने की समस्या अत्यन्त जटिल है। वह नौकरी प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार की जुगत-जुगाड़ लगाता है। कवि ने इस गम्भीर समस्या को समझा और महाकवि सूरदास का ‘प्रभु मेरे अवगुन चित न धरो’ की पैरोडी रचकर आज के युवा-वर्ग की दीन-हीन दशा का परिचय प्रस्तुत किया है-

    ‘‘मोरे साहब अवगुन चित न धरौ।
          वैसे ही सरविस दै डारौ, इन्टरव्यू न करौ।।’’

    कविवर भुशुंडि जी की ब्याजोक्तियों में पाठकों की अंतःचेतना को अन्दोलित कर देने वाली चमत्कृति व्याप्त है। वे अपनी रचनाओं में विडम्बनाओं का चित्रण कुछ इस गाम्भीर्य के साथ करते हैं कि जिसे सुनकर अथवा पढ़कर समझदार व्यक्ति के मन में स्वतः तर्क-वितर्क उत्पन्न हो जाता है। उनकी रचनाओं का आस्वादन करते समय सहसा मानसिक झटका लगता है और व्यक्ति सोचने-समझने के लिए बाध्य हो जाता है कि क्या यह उचित और क्या अनुचित है? उनके व्यंग्य का वास्तविक आशय से पाठक अवगत हो जाता है। वस्तुतः व्यंग्यकार की वक्रोक्तियाँ यथार्थ को विखंडित रूप में प्रस्तुत करती हैं। भुशुंडि की रचनाओं में व्यक्त विडम्बनाओं को चाँदी की वर्कों से सजी प्लेट में परोसा हुआ लाल मिर्चों का हलवा कहना किंचित् भी अतिशयोक्ति न होगा। उदाहरणार्थ, आजकल के मंचीय कवियों एवं कवयित्रियों की रचनाओं में व्याप्त लिजलिजेपन पर आक्षेप करती हुई उनकी अधेलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

‘‘जिसने गा कर गीत सुनाये, उसको मेरा धन्यवाद है।
अल्हड   स्वर ने मेरे दिल को,
दिया  रेलगाड़ी  सा धक्का।।
कटी जेब,  यात्री  के   जैसा,
मै रह गया चकित-भौचक्का।।
भाव अटपटे, पोज खटपटे, उस पर भी चटपटा स्वाद है,             
                    उसको मेरा, धन्यवाद है।।
राग   रसीला   ऐसा   जैसे,
ठुमरी  के  ऊपर   हो ठप्पा!
खाता   रहा  गपागप उसको
समझ  गोल गप्पे का गप्पा।।
किन्तु जब उठी पीर जिगर में, दूध छठी का हुआ याद है।
                                      उसको मेरा, धन्यवाद है।।’’


    भुशुंडि जी का गाँव की माटी से गहरा संबंध रहा है। वे लोक साहित्य और लोक संस्कृति की विशेषताओं से भली-भाँति परिचित थे। अतएव उन्होंने शहरी जीवन की विसंगतियों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त विडंबनाओं को अपनी लेखनी के नश्तर चुभोए हैं। इसके लिए घाघ और भड्डरी जैसे प्राचीन रचनाकारों की रचनाओं को  उन्होंने अपनी पैरोडियों का विषय बनाया है। बानगी स्वरूप उनकी कुछ पैरोडियों का आस्वादन कीजिए-

‘‘जो  लरिका   अंग्ररेजी पढ़ी । खेती करी न जोती लढ़ी।
घर का कामु काजु करि नर्क। दफतर मा बन जाई क्लर्क।।’’
लीडर  जौन  कि  छैला बनै। भाषन  मा अपने का  गनै।
करी  न कबहूँ ऐइसनि भूलि । जेल जाइकै फाँकै  धूलि।।’’

    गोस्वामी तुलसीदास की विनयपत्रिका का बहुचर्चित पद ‘अब लौ नसानी अब न नसैहौं’ की भावधारा पर आधारित एक पैरौडी प्रस्तुत है। इसमें  कवि ने उस पिता के संताप को बडे़ ही मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया है, जिसका पुत्र शिक्षा के महत्त्व की अनदेखी करके बाप की गाढ़ी कमाई और अपने समय को बरबाद करता है-

                ‘‘बी.ए. तक  पढ़वायों   तुमका  अब   आगे  न पढ़ैहौं।
                   गाढ़ी कमाई  के  पैसन  का,  पानी  जस न   बहैहौं ।। अब लौ......
                   हैट  पैंट  और  कोट  हटाकर,  कुर्ता  सदा  पिन्हैहौं।
                   लैहौं   बैल    पछाहीं  हर  से  खेती  तुमहीं  करैहौं।। अब लौ...... 

कवि की एक अन्य पैरोडी रचना कविवर सूरदास के पद ‘मधुकर! कौन देश को वासी’ पर अवलम्बित है, जिसमें आधुनिक नेताओं पर करारा कटाक्ष प्रस्तुत किया गया है-

                     ‘‘नेता कौन देस के वासी।
                  बोली कउन-कउन है भाषा, कउन  तरफ के भाषी।
                  माखन टोस्ट उडावत डटि-डटि, नाम धरे हो धासी।
                  भीषण भाषण देत विभीषण, लिहे जबान टकासी।।’’

    पैरोडी लेखन में सिद्ध कवि भुशुंडि जी अपनी मौलिक विशेषताओं के कारण अद्वितीय हैं। उस युग में  स्फुट रचनाओं पर ही पैरोडियाँ लिखी जाती रहीं थीं। किसी रचनाकार की सम्पूर्ण कृति पर आधारित पैरोडी प्रकाश में नही आई थी। भुशुंडि जी ने इस चुनौती भरे कार्य का बीड़ा उठाया और जयशंकर प्रसाद की कृति ‘आँसू’ की पैरोडी ‘घड़ियाली आँसू’ लिखा। इस कृति में उन्होंने वर्तमान युग की सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था का यथातथ्य दिग्दर्शन कराया है। इसके अतिरिक्त आज की विसंगतियों, असंगतियों, विद्रूपताओं तथा मूल्यहीनता पर उन्होंने करारी चोट की है। प्रख्यात कहानीकार श्री गंगाप्रसाद मिश्र की कहानी ‘चरखा चलने के बाद की कथा’ पर उन्होंनें ‘स्कूल खुलने के बाद की कथा’ नामक पैरोडी लिखी थी। श्री गंगाप्रसाद मिश्र भुशुंडि जी के कृतित्त्व पर अपना दृष्टिकोण इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं- ‘‘भुशुंडि जी ने कितना लिखा है इसका सही लेखा-जोखा सामने आयेगा तो लोगों की आँखे खुली रह जायेंगी। यदि उन्होंने कुछ न लिख होता तो भी उनका बाल्मीकि रामायण का पद्यानुवाद ‘भुशुंडि रामायण’ उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और लगन का परिचायक होने के साथ उन्हें अमर करने के लिए पर्याप्त है।’’

    भुशुंडि जी की अनन्यता की झाँकी इस अर्थ में भी अपूर्व है कि पद्य की भाँति उनका गद्य-लेखन भी साहित्यानुरागियों को अनुप्राणित करने वाला रहा है। उन्होंने काव्य पैरोडियों की भाँति कथा पैरोडियाँ भी लिखी हैं। इस दृष्टि से पं0 चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की बहुचर्चित कहानी ‘उसने कहा था’ का प्रणयन कर उन्होंने हिन्दी व्यंग्य साहित्य में एक नवीनतम प्रयोग किया। ‘माधुरी’ जैसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित होने वाली यह पहली कथा पैरोडी थी। भुशुंडि जी की कथा-पैरोडियों पर अपना अभिमत प्रकट करते हुए अनिल बाँके ने लिखा है- ‘‘हिन्दी-साहित्य में प्रथम पैरोडी कथाकार होने का श्रेय इन्हीं को प्राप्त है।’’ बच्चों के प्रति भुशुंडि जी के हृदय में अगाध प्रेम था। उन्होंने उनके लिए मनोविनोद से परिपूर्ण प्रचुर मात्रा में बालसाहित्य की सर्जना की है। सरल-सुबोध भाषा में विरचित उनकी काव्य-कृति ‘बागड़-बिल्ला’ में बालोपयोगी हास्यपरक रचनाएं संग्रहीत हैं। ये रचनाएं बच्चों में कौतूहल उत्पन्न करने के साथ उनका स्वस्थ मनोरंजन भी कराती हैं। लोक जीवन में हास्य के महत्त्व को कभी नकारा नहीं जा सकता है। गाँव के खेतिहर मजदूर-किसान के मनोरंजन के साधनों में नौटंकी आज भी प्रचलित, जिसे वे बडे़ ही शौक से देखते-सुनते हैं। नौटंकियों में साहित्यिकता की अपेक्षा फूहड़पन और अश्लीलता की व्याप्ति पर सुधी रचनाकार का ध्यान गया और उनके हृदय में उसके परिष्कार की कामना बलवती हो गयी। फलतः लोकमंगल की भावना से उन्होंने अनेक हास्य-नौटंकियों की रचनाकर डाली। इन नौटंकियों में ‘दहेजमार झोला नं0 एक’, ‘दहेजमार झोला नं0 दो’, ‘दहेजमार झोला नं0 तीन’, ‘दहेज की पुड़िया’, ‘गंगा मइया की महिमा’ इत्यादि नौटंकियाँ आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित भी हुईं।

    इन हास्य-नौटंकियों में सन्निहित लोकमंगल के आलोक में डा0 कृष्णमोहन सक्सेना का कथन है-‘‘भुशुंडि जी ने पिछले दिनों हास्य नौटकियाँ लिखने में भी पहल की है। शिष्ट हास्य के प्रयोक्ता के रूप में हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा में उनका ऐतिहासिक महत्त्व है।’’ उनकी ‘मानस मनोरंजन’ नामक काव्य-कृति उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत हुई थी। वस्तुतः ‘रामचरितमानस’ जैसी गंभीर कृति पर अपनी मार्मिक टिप्पणियों से हास्य-सर्जना करना भुशुंडि जी जैसे सिद्ध रचनाकार के ही वश की बात है। समग्र रूप में उनका शब्द-चयन, लक्षणा-व्यंजना शक्ति से अभिव्यक्ति में चमत्कार उत्पन्न करना, प्रचलित मुहावरों का सार्थक प्रयोग, शिष्टता एवं रोचकता, उन्हें रस-सिद्ध, भावनिष्ठ तथा साधना-संपन्न साहित्यकार होने का अधिकारी ठहराती हैं। भुशुंडि जी को गुरुजनों का आशीष, स्वजन-सहयोगियों का प्रेम तथा अपने से कनिष्ठों का समादर प्राप्त हुआ है। आचार्य क्षेमचन्द्र ‘सुमन’ ने उन्हें जिन्दगी की चुलबुलाहट की संज्ञा से विभूषित किया है, श्री रामेश्वरदयाल दुबे ने उन्हें युग की पहचान कहकर संबोधित किया है और स्वतंत्र जी उन्हें नयी पीढ़ी का मसीहा ही मानते हैं।

    हिन्दी हास्य-व्यंग्य के विकास में श्री शारदाप्रसाद वर्मा ‘भुशुंडि’ का योगदान श्लाघनीय है। श्री सुशील अवस्थी के शब्दों में-‘‘ऐसे हास्य सम्राट भुशुंडि जी जिन्होंने अपने काव्य से जनमानस को हँसाया और व्यंग्य से विद्रूपताओं पर कटाक्ष किया, 23 अक्टूबर सन् 1992 ई0 में इक्यासी वर्ष की अवस्था में चिरनिद्रा में लीन हो गये। उनके साहित्यिक अवदान का हिन्दी जगत् सदैव ऋणी रहेगा। उनकी हास्यमयी विलक्षणता, उत्कृष्टता तथा अनन्यता उन्हें चिरकाल तक चर्चित बनाये रखने के लिए पर्याप्त है।  हिन्दी के सुधी पाठकों को शिष्‍ट एवं उत्‍कृष्‍ट हास्य के विशिष्ट रचनाकार पर सदैव गर्व रहेगा।

31 जनवरी 2010

उम्र की औकात



-डा0 सुरेश उजाला

सब कुछ है-याद
कुछ नहीं भूला हूँ-मैं

बहुत कुछ हो गया है-
तीन-तेरह
उलट-पलट

फिर भी-
सफेद कुहासे से धिरे-
पहाड़ी-जंगलों के बीच-
उलझने लगता हँू मैं
आज भी,


मेरे भीतर से
फूट पड़ता है-कोई
सूखा झरना,

खंडहरों में क़ैद-
पनीले स्वप्न
बेचैन हवाएं
ले जाती हैं-मुझे
जाने-कहाँ से कहाँ

बाहर का रेतीलापन
बहा ले जाता है-
मेरे अंदर का-
खैलता पानी,

क्योंकि मैंने
पलकों से किया है
नमक उठाने का-प्रयास
और
पानी की छाती पर
गोदा है-नया विश्वास,

इसलिए
मुझे मालूम है-
झूठे सच का दर्द
हवस की कोख
बेवश बस्तियाँ
भूखी-आँखें
सदियों की प्यास
बेलगाम आँधियाँ
और
उम्र की औकात
बगैर जिंदगी
होती है-क्या

जिसका परिणाम है-
बेरूत की आग
झुलसता लेबनान
फिलीपीन का धुआं
राख हुआ वियतनाम
और-
दक्षिण एशिया में
सुलगती चिंगारी,

इसलिए-
आओ-
करो जागरण
सच का-
सच्चाई का,
ताकि दे सको पैगाम
मानव-कल्याण का दुनिया में।

108-तकरोही, पं0 दीन दयाल पुरम मार्ग, इन्दिरा नगर,
लखनऊ-226016 सचलभाष-09451144480  

26 जनवरी 2010

गणतंत्र दिवस जब आता है,




-डा0 गिरीश कुमार वर्मा


गणतंत्र दिवस जब आता है, हम सबका मन  हरसाता है।
यह दिन जनता के  शासन की, सबको तारीख बताता है।।


कल     शिक्षा   के  उपहार  न   थे,
समरसता      के    आधार  न  थे,
 गिनती   सबकी     थी  दासों   में-
मिलते   मौलिक  अधिकार न  थे,
नव  भारत का नव संविधान मौलिक अधिकार दिलाता है।
यह  दिन  जनता  के शासन की सबको तारीख बताता है।।


जो  कल  था  वो है आज  नहीं,
गिरती   सामंती    गाज   नहीं,
अंग्रेज    यहाँ    से   गए   चले-
है   यहाँ  ‘क्वीन’ का  राज नहीं,
जनता का प्रतिनिधि जनता से चुनकर संसद में जाता है।
यह  दिन  जनता के शासन  की सबको तारीख बताता है।।


यह     तोहफा    बड़ा   सुहाना है,
इसका     सम्मान    बढ़ाना   है,
यह     पर्व     नहीं    है   महापर्व-
मिलजुल  कर   इसे   मनाना  है,
खुद  जियो  और को  जीने यह दिन युगबोध कराता है।
यह दिन जनता के शासन की सबको तारीख बताता है।।


आओ     हम    सब   नाचे  गाएं,
निज    प्रेम     परस्पर  बरसाएं,
अम्बर   में  चक्र    युक्त  अपना-
ध्वज   अमर   तिरंगा    लहराएं,
जिसके सम्मुख अति श्रद्धा से मस्तक सबका झुक जाता है।
यह   दिन  जनता  के शासन  की सबको  तारीख बताता है।।


                              



19 जनवरी 2010

उल्लू जी स्कूल गए



बाल कविता

उल्लू जी
-डा0 डंडा लखनवी

उल्लू जी स्कूल गए ।
घर में बस्ता भूल गए ।।
मिस बुलबुल ने टेस्ट लिया ।
टेस्ट उन्होंने नहीं दिया ।।
सारे पक्षी हीरो थे ।
उल्लू जी ही जीरो थे ।।