28 अगस्त 2014

जैसी अंटी चाउमिन.....



नव  - आगंतुक सभी के,  चूम  रहे  हैं लिप्स।
जैसी   अंटी  चाउमिनवैसे  अंकल   चिप्स॥

अंडों  में  मत  कीजिए,  मुर्गों  की   पहचान!
बहुत लोग  कहते  उसे, आलू   की   संतान

कैसे   दोनों    में  बना, रहे     प्रेम  महफूज़
बीवी   नन्हीं  रसभरी,  बड़े  मियां  तरबूज़

जीवन  सारा  खा गई, बैंक लोन  की  किस्त।
ख़त्म न लेकिन हो सकीं, चाहों  की  फ़ेहरिश्त॥

गर्मी  में  बिजली  बिना, कूलर - एसी  फेल।
गरमाहट  पा निकलता, निरा बदन का तेल??

फूहड़ टिप्पणियों से शर्मशार होना पड़ेगा ?

रेलवे लाइनों के किनारे प्रात:काल शौच के लिए बैठे लोगों को देखकर एक विदेशी यात्री ने अपनी डायरी में लिखा था... 'India is a vast toilet.'| क्या उस यात्री की टिप्पणी सही है? इस रूप में देश को ले जाने वाला कौन है? क्या हमारी सामाजिक व्यवस्था इसकी दोषी नही है? इतिहास बताता है कि इस देश की रक्षा का भार क्षत्रियों पर था। शेष नागरिक देश-रक्षा के दायित्व से मुक्त रहे| बार-बार विदेशी हमले हुए। आपसी वैमनस्य के कारण समस्त रियासतों द्वारा विदेशी हमलावरों का संगठित मुकाबला नहीं किया गया| परिणाम देश की गुलामी का काल बढ़ता चला गया| वैसा ही मामला सफ़ाई का है| आज भी आम भारतीयों की पाकशालाएं चमचमातीं हैं किन्तु शौंचालय में दम घुटने लगता है। दोनों स्थानों की स्वच्छता में जमीन आसमान का अंतर होता है। हमारी सामाजिक व्यवस्था में सफ़ाई का काम करना एक जाति विशेष का दायित्व समझ लिया गया। सिर पर मैला ढोने की प्रथा दशकों तक आरोपित रही। गंदगी करने वाला व्यक्ति सफाई के लिए दूसरे की ओर निहारता है| सफ़ाई कर्मियों के श्रम का मूल्यांकन ऐसा नहीं हुआ कि दूसरे लोग इस पेशे की ओर आकर्षित होकर अपनाते और गर्व का अनुभव करते। स्वच्छता बुनियादी जरूरत है। गाँधी जी ने सफाई के महत्व को समझा था। उन्होने अपना शौचालय खुद साफ़ करने की पहल की थी। आजादी के साथ ही इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विद्यालयों में शौचालयों न होने की बात कही है। अनेक कार्यालयों में सफाई व्यवस्था अस्थाई है जबकि वहाँ का कार्य स्थाई प्रकृति का है। यह विडंबना है कि देश के राजनेताओं और नौकरशाहों ने सफ़ाई को जीवन का अनिवार्य विषय नहीं माना हैं। स्वच्छता चाहे शरीर की हो, घर की हो अथवा सार्वजनिक जीवन की जबतक जीवन के लिए अनिवार्य नहीं माना जाएगा। हम भारतीयों को ऐसी फूहड़ टिप्पणियों से शर्मशार होना पड़ेगा।
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आफिस में स्वीपर लगा, टमप्रेरी सरवेंट।
बदबू जो फैला रहे, वे सब....परमानेंट॥
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@ सद्भावी- डॉ० डंडा लखनवी

31 जनवरी 2013

महान कहलाने का अधिकारी कौन है?

आजकल पेड-न्यूज़ का क्रेज बहुत बढ़ गया है। धन देकर किसी प्रचार एजेन्सी से कोई व्यक्ति यह सेवा ले सकता है। कुछ धनवान व्यवसायिकों ने इस काम के लिए निजी मीडिया हाउस बना रखे हैं। पेड-न्यूज़ तो पेड-न्यूज़ है। इस न्यूज़ की सेवाएं लेने वाले और देने वाले आपस में एक करार से बंधे होते हैं। ऐसी ख़बरों में तथ्यों और शब्दों के प्रयोग ग्राहक के हितों को ध्यान में रख किया जाता है। प्रचारित खबर से होने वाले लाभ अथवा हानि से प्रचार-एजेंसी जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होती है। कई बार तो इस प्रकार की खबरों की सत्यता संदिग्ध होती है। ऐसे लेखन से जुड़े लोग अपने ग्राहक को महिमा-मंडित करने में अति श्योक्ति का सहारा लेते हैं। अतिश्योक्ति के लिए एक शब्द है-’महान’। इस शब्द से वे रातो-रात साधारण मानव को असाधारण कोटि का बना देते हैं।

 प्रचार-तंत्र से बने महान लेखकों, महान कवियों, महान नेताओं, महान अभिनेताओं, महान नायकों, महान पुरुषों महान संतों से हमारा समाज भरा पड़ा है। चारों ओर महानता के खूब झंडे गड़े हैं। प्रश्न उठता है कि किसी व्यक्ति की महानता को नापने की कसौटी क्या है? आदमी अपने गुणों से महान बनता है ... अथवा छद्म प्रचार से? क्या अखबारों में अथवा टीवी चैनलों पर बार-बार नाम प्रचारित होने से कोई इंसान महान कहलाने का अधिकारी हो जाता है? ओसामा बिन लादेन का प्रचार माध्यमों में खूब नाम उछला था... किन्तु क्या वह महान कहलाने का अधिकारी बन सका था? सही अर्थों में सभ्य समाज में महान कहलाने का अधिकारी वही है. जिसके कार्य ’बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ हों।
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बलशाली होने से कोई...........बड़ा नहीं बन जाता।
धन-दौलत से नहीं बड़प्पन का किंचित भी नाता॥ 
बड़े वही इंसान कि जो... करते सब पर उपकार हैं।
हम सब एक तरह के पंछी जग करते गुलजार हैं॥
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सद्भावी- डॉ० डंडा लखनवी



06 दिसंबर 2012

जब-जब झाडू...


पैरोकार ....


रोता बच्चा हंस ...



बच्चों की मुसकान में ...



पाखंडों से दोस्ती ...



बाजारवाद और हम



07 मार्च 2012

डॉ० राम निवास ‘मानव’ की क्षणिकाएं


(1)
सीमा पार से निरंतर
घुसपैठ जारी है|
‘वसुधैव कुटुम्बकम’
नीति यही तो हमारी है|
(2)
दलदल में धंसा है|
आरक्षण और तुष्टीकरण के,
दो पाटों के बीच में
भारत फंसा है|
(3)
लूट-खसोट प्रतियोगिता
कबसे यहाँ जारी है |
कल तक उन्होंने लूटा था,
अब इनकी बारी है|
(4)
देश के संसाधनों को
राजनीति के सांड चर रहे हैं|
और उनका खामियाजा
आमजन भर रहे हैं|
(5)
मेरा भारत देश
सचमुच महान है|
यहाँ भ्रष्टाचारियों के हाथ में
सत्ता की कमान है|
(6)
जो नेता बाहर से
लगते अनाड़ी हैं|
लूट-खसोट के वे
माहिर खिलाडी हैं|
(7)
वे कमीशन का कत्था
रिश्वत का चूना लगाते हैं|
इस प्रकार देश को ही
पान समझ कर खाते हैं|
(8)
देश को, जनता को,
सबको छल रहे हैं|
नेता नहीं, वे सांप है,
आस्तीनों में पल रहे हैं|
(9)
नेता जी झूठ में
ऐसे रच गए|
सच को झूठ कहकर,
साफ़ बच गए|
(10)
नेता बाहर रहे
या जेल में,
वह पारंगत है,
सत्ता के हर खेल में|
(11)
उन्होंने गांधी टोपी पहन
अन्नागीरी क्या दिखाई|
कल तक ‘दादा’ थे,
आज बने हैं ‘भाई’|
(12)
जो कई दिनों से था
अस्पताल में पड़ा हुआ|
खर्च का बिल देखते ही
भाग खड़ा हुआ|
(13)
क्या छोटे हैं,
और क्या बड़े हैं|
सभी यहाँ बिकने को
तैयार खड़े हैं|
(14)
झूठ जाने क्या-क्या
सरेआम कहता रहा|
और सिर झुका कर सच
चुपचाप सहता रहा|

अनुकृति’, 706, सेक्टर-13
हिसार (हरि०)
फोन-01662-238720




31 दिसंबर 2011

नए वर्ष की मंगल कामनाओं के साथ....


मीठे सुरों के साज़ के सुरताल की तरह।
तेरे हसीन ख्वाब के महिवाल की तरह।
दिल में मोहब्बतों का उजाला लिए हुए-
मैं आ रहा हुँ दोस्त! नए साल की तरह॥
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सद्भावी-डॉ० सुरेश उजाला

25 अक्तूबर 2011

ज्योति-पर्व हार्दिक मंगलकामनाओं सहित...........


                                      - डॉ० डंडा लखनवी

मोटे -- मोटे रैट हों, जिस -------बंगले  के पास।
गण-पति जी का समझिए, उसमें आज
निवास॥1
 
लक्ष्मी  वाहन  को  कभी,  कहिए  नहीं उलूक।
वे रखते पिस्तौल अरु,  रायफलें ------ बंदूक़॥2


लक्ष्मी जी का वाहन = उलूक, उल्लू, आधुनिक वाहन और ड्राइवर हाईटेक हैं.                                               गणपति जी का वाहन = चूहा, आधुनिक वाहन और ड्राइवर हाईटेक हैं.

09 अक्तूबर 2011

बोध-बिहार


               

     

     
-डॉ० डंडा लखनवी

 



क्रोध -बोध  के बीच  में, चलता  सतत विरोध।
बोध-नाश पर क्रोध हो, क्रोध-विजय पर बोध॥

तीन  बुद्ध  की  ’शरण’ हैं, पाँच  बुद्ध के ’शील’।
तीन- पाँच से दुख सभी, सुख  में  हों तब्दील॥
 
'डंडा'  बोध - बिहार के, चिंतन   का  यह सार।
वधस्थलों  पर हो सकी,’अवध’  भूमि तैयार॥

पंच - शील से  जब  घटी, पंच -  मकारी  मार।
’डंडा’  तब  संसार में, चमका  अवध - बिहार॥

स्वर्ण  अक्षरों  में  मिला,  दर्ज़ा   जिसे  विशेष।
जहाँ न  वध का नाम था, वो
था अवध  प्रदेश॥

दसो  इंद्रियों  का जहाँ, बहा  सुमति   का  नीर।
गोमति का चिर अर्थ है, इंद्रिय - निग्रह   धीर॥

’डंडा’  फैजाबाद   है, अवध  -  शब्द   अनुवाद।
अवध  हमारी   संस्कृति, वध  करता  बरबाद॥

शरण= त्रिशण, शील= पंचशील, वधस्थल= बलि देनेके स्थान, पंच-मकार= मन - विचलन के पाँच आकर्षण, सुमति= अच्छा चिंतन, गोमति=चिंतन का सार, इंद्रिय-निग्रह=इंद्रियों पर नियंत्रण, धीर= धीरज, फ़ैजाबाद= आपदा मुक्त स्थान, अवध,

26 सितंबर 2011

बिल्ली का खंभा नोचना

                          
                -डॉ० डंडा लखनवी

हिंदी में एक मुहावरा है....... "बिल्ली का खंभा नोचना"। इस मुहावरे का अर्थ है कदाचार में पकड़े जाने पर कुपित होना, रोष प्रकट करना। यहाँ एक उदाहरण रख रहा हूँ। टिकट-विंडो पर लम्बी लाइन लगी होती है। एक व्यक्ति आता है और लाइन में लगे हुए लोगों को धकिया कर हाथ टिकट-विंडो में डाल देता है। यदि लोग आपत्ति करते हैं तो बहाने बनाता है। किसी तरह से जब टिकट लेकर दूर खड़े अपने साथियों के पास पहुंचता है तो चकमा दे कर जल्दी टिकट पाने पर इतराता है। कदाचार का यह एक उदाहरण मात्र है। कदाचारी के पास बहुत से बहाने होते हैं। उसकी हरकतें पर जब पकड़ी जाती हैं तो उसकी दशा 'बिल्ली का खंभा नोचने वाली' हो जाती है। ऐसी हरकतें  करने वाले विदेशी नहीं देशी लोग हैं, नेता ही नहीं, जनता भी है।

19 सितंबर 2011

सपने अति रंगीन.........


                                     -डॉ० डंडा लखनवी

राजनीति  के  घाट  पर, अभिनय  का   बाज़ार।
मिला डस्टबिन में पड़ा, जनसेवा  उपकार॥1                         

जब  से    नेता    दे  रहे, अभिनेता     को  मंच।
आमजनों को मिल रहे, तब से फिल्मी -  पंच॥2

फैशन - हिंसा - काम -छल, दें  टीवी - चलचित्र।
इन  सब  में  बाजार  है, इसमें    कहाँ   चरित्र?3

टीवी   ने  सबको    दिए, सपने     अति   रंगीन।
बदले   में  उसने  लिया, सामाजिकता   छीन॥4

न्यूज़  चैनलों  पर   ख़बर, लो   दे    रहीं   बटेर।
शाकाहारी    बनेंगे   अब, जंगल     के     शेर॥5

क्या  परोसतीं  देखिए,  लोक  लुभावन  फिल्म।
अदब  हो गया बेअदब, घिसा - पिटा सा इल्म॥6

’डंडा’  अब  चलचित्र  की, महिमा  बड़ी  विचित्र।
दावा युग - निर्माण   का, बिगड़ा  और  चरित्र॥7

जब  तक  फिल्में  रहेंगी,  युग - यर्थाथ   से दूर।
फैलेगा  तब   तक  नहीं, नैतिकता   का    नूर॥8

केवल  धन - धंधा   नहीं, फिल्मों  का  निर्माण।
उज्ज्वल  लोकाचार   हैं, इसके  असली   प्राण॥9